यजुर्वेद - अध्याय 4/ मन्त्र 26
ऋषिः - वत्स ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - भूरिक् ब्राह्मी पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
2
शु॒क्रं त्वा॑ शु॒क्रेण॑ क्रीणामि च॒न्द्रं च॒न्द्रेणा॒मृत॑म॒मृते॑न। स॒ग्मे ते॒ गोर॒स्मे ते॑ च॒न्द्राणि॒ तप॑सस्त॒नूर॑सि प्र॒जाप॑ते॒र्वर्णः॑ पर॒मेण॑ प॒शुना॑ क्रीयसे सहस्रपो॒षं पु॑षेयम्॥२६॥
स्वर सहित पद पाठशु॒क्रम्। त्वा॒। शु॒क्रेण॑। क्री॒णा॒मि॒। च॒न्द्रम्। च॒न्द्रेण॑। अ॒मृत॑म्। अ॒मृते॑न। स॒ग्मे। ते॒। गोः। अ॒स्मे इत्य॒स्मे। ते॒। च॒न्द्राणि॑। तप॑सः। त॒नूः। अ॒सि॒। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। वर्णः॑। प॒र॒मेण॑। प॒शुना॑। क्री॒य॒से॒। स॒ह॒स्र॒पो॒षमिति॑ सहस्रऽपो॒षम्। पु॒षे॒य॒म् ॥२६॥
स्वर रहित मन्त्र
शुक्रन्त्वा शुक्रेण क्रीणामि चन्द्रञ्चन्द्रेणामृतममृतेन । सग्मे ते गोरस्मे ते चन्द्राणि तपसस्तनूरसि प्रजापतेर्वर्णः परमेण पशुना क्रीयसे सहस्रपोषम्पुषेयम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
शुक्रम्। त्वा। शुक्रेण। क्रीणामि। चन्द्रम्। चन्द्रेण। अमृतम्। अमृतेन। सग्मे। ते। गोः। अस्मे इत्यस्मे। ते। चन्द्राणि। तपसः। तनूः। असि। प्रजापतेरिति प्रजाऽपतेः। वर्णः। परमेण। पशुना। क्रीयसे। सहस्रपोषमिति सहस्रऽपोषम्। पुषेयम्॥२६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
मनुष्यैः किं कृत्वा यज्ञः साधनीय इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
अहं सग्मे या तपसस्तनूर(स्य)स्ति, यः पशुना प्रजापतेर्वर्णः क्रीयसे क्रीयते, तं सहस्रपोषं पुषेयम्। हे विद्वन्! यानि ते तव यस्याः गोः सकाशाच्चन्द्राण्युत्पन्नानि सन्ति, तान्यस्मे अस्मभ्यमपि सन्तु। अहं परमेण शुक्रेण यं शुक्रं यज्ञं चन्द्रेण चन्द्रममृतेनामृतं च क्रीणामि, त्वा तं त्वमपि क्रीणीहि॥२६॥
पदार्थः
(शुक्रम्) शुद्धिकारकम् (त्वा) तं क्रियामयं यज्ञम् (शुक्रेण) शुद्धभावेन (क्रीणामि) गृह्णामि (चन्द्रम्) सुवर्णम्। चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं॰१.२) (चन्द्रेण) सुवर्णेन (अमृतम्) मोक्षसुखम् (अमृतेन) नाशरहितेन विज्ञानेन (सग्मे) गच्छतीति ग्मा पृथिवी तया सह वर्त्तते तस्मिन् यज्ञे। ग्मेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰१.१) (ते) तव (गोः) पृथिव्याः सकाशात् (अस्मे) अस्मभ्यम् (ते) तव सकाशात् (चन्द्राणि) काञ्चनादीन् धातून् (तपसः) धर्मानुष्ठानस्याग्नेस्तापसस्य वा (तनूः) शरीरम् (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (प्रजापतेः) प्रजानां पतिः पालनहेतुः सूर्य्यस्तस्य (वर्णः) वरीतुं योग्यः (परमेण) प्रकृष्टेन (पशुना) व्यवहृतेन विक्रीतेन गवादिना (क्रीयसे) क्रीयते (सहस्रपोषम्) असंख्यातपुष्टिम् (पुषेयम्) पुष्टो भवेयम्। अयं मन्त्रः (शत॰३.३.३.६-९) व्याख्यातः॥२६॥
भावार्थः
मनुष्यैः शरीरमनोवाग्धनेन परमेश्वरोपासनादिलक्षणं यज्ञं सततमनुष्ठायासंख्याताऽतुला पुष्टिः प्राप्तव्याः॥२६॥
विषयः
मनुष्यैः किं कृत्वा यज्ञ: साधनीय इत्युपदिश्यते ॥
सपदार्थान्वयः
अहं सग्मे गच्छतीति ग्मा=पृथिवी तया सह वर्त्तते, तस्मिन् यज्ञे या तपसः धर्मानुष्ठानस्याग्नेस्तापसस्य वा तनूः शरीरम् असि=अस्ति, यः पशुना व्यवहृतेन विक्रीतेन गवादिना प्रजापतेः प्रजानां पालनहेतुः सूर्यस्तस्य वर्णः वरीतुं योग्यः क्रीयसे=क्रीयते, तं सहस्रपोषम् असंख्यातपुष्टिंपुषेयं पुष्टो भवेयम् । हे विद्वन् ! यानि ते=तव यस्या गोः पृथिव्याः सकाशात् चन्द्राणि (काञ्चनादीन् धातून्) उत्पन्नानि सन्ति, तान्यस्मे=अस्मभ्यमपि सन्तु। अहं परमेण प्रकृष्टेन शुक्रेण शुद्धभावेन यं शुक्रं शुद्धिकारकं यज्ञं चन्द्रेण सुवर्णेन चन्द्रंसुवर्णम् अमृतेन नाशरहितेन विज्ञानेन अमृतं मोक्षसुखं च क्रीणामि गृह्णामि त्वा=तं क्रियामयं यज्ञं त्वमपि क्रीणीहि ॥ ४। २६॥ [अहं सग्मे या तपसस्तनूरसि=अस्ति......सहस्रपोषं पुषेयम्]
पदार्थः
(शुक्रम्) शुद्धिकारकम् (त्वा) क्रियामयं यज्ञम् (शुक्रेण) शुद्धभावेन (क्रीणामि) गृह्णामि (चन्द्रम्) सुवर्णम्।चन्द्रमिति हिरण्यनामसु पठितम् ॥ निघं० १। २॥ (चन्द्रेण) सुवर्णेन(अमृतम्) मोक्षसुखम् (अमृतेन) नाशरहितेन विज्ञानेन (सग्मे) गच्छतीति ग्मा पृथिवी तया सह वर्त्तते तस्मिन् यज्ञे। ग्मेति पृथिवीनामसु पठितम् ।। निघं० १ । १।। (ते) तव (गोः) पृथिव्याः सकाशात् (अस्मे) अस्मभ्यम् (ते) तव सकाशात् (चन्द्राणि) कांचनादीन्धातून् (तपसः) धर्मानुष्ठानस्याग्नेस्तापसस्य वा (तनूः) शरीरम् (असि) अस्ति । अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (प्रजापतेः) प्रजानां पतिः पालनहेतुः सूर्य्यस्तस्य (वर्णः) वरीतुं योग्य: (परमेण) प्रकृष्टेन (पशुना) व्यवहृतेन विक्रीतेन गवादिना (क्रीयसे) क्रीयते (सहस्रपोषम्) असंख्यातपुष्टिम् (पुषेयम्) पुष्टो भवेयम् ॥ अयं मंत्रः शत० ३ ।३ ।३ ।६-९ व्याख्यातः ॥ २६ ॥
भावार्थः
मनुष्यैः शरीरमनोवाग्धनेनपरमेश्वरस्योपासनादिलक्षणंयज्ञं सततमनुष्ठायासंख्याताऽतुला पुष्टिः प्राप्तव्या ।। ४ । २६ ।।
भावार्थ पदार्थः
सग्मे=परमेश्वरस्योपासनादिलक्षणे यज्ञे । सहस्रपोषम्=असंख्यातामतुलां पुष्टिम् ॥
विशेषः
वत्सः । यज्ञः=स्पष्टम् ॥ भुरिग्ब्राह्मी पंक्तिः ।पंचमः ।।
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्यों को क्या-क्या साधन करके यज्ञ को सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
जैसे (सग्मे) पृथिवी के साथ वर्त्तमान यज्ञ में (तपसः) प्रतापयुक्त अग्नि वा तपस्वी अर्थात् धर्मात्मा विद्वान् का (तनूः) शरीर (असि) है, उसको शिल्पविद्या वा सत्योपदेश की सिद्धि के अर्थ (पशुना) विक्रय किये हुए गौ आदि पशुओं करके धन आदि सामग्री से ग्रहण करके (प्रजापतेः) प्रजा के पालनहेतु सूर्य्य का (वर्णः) स्वीकार करने योग्य तेज (क्रीयसे) क्रय होता है, उस (सहस्रपोषम्) असंख्यात पुष्टि को प्राप्त होके मैं (पुषेयम्) पुष्ट होऊं। हे विद्वन् मनुष्य! जो (ते) आपको (गोः) पृथिवी के राज्य के सकाश से (चन्द्राणि) सुवर्ण आदि धातु प्राप्त हैं, वे (अस्मे) हम लोगों के लिये भी हों, जैसे मैं (परमेण) उत्तम (शुक्रेण) शुद्ध भाव से (शुक्रम्) शुद्धिकारक यज्ञ (चन्द्रेण) सुवर्ण से (चन्द्रम्) सुवर्ण और (अमृतेन) नाशरहित विज्ञान से (अमृतम्) मोक्षसुख को (क्रीणामि) ग्रहण करता हूँ, वैसे तू भी (त्वा) उसको ग्रहण कर॥२६॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि शरीर, मन, वाणी और धन से परमेश्वर की उपासना आदि लक्षणयुक्त यज्ञ का निरन्तर अनुष्ठान करके असंख्यात अतुल पुष्टि को प्राप्त करें॥२६॥
विषय
शुक्र - चन्द्र - अमृत
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र में ‘अभि त्यम्’ = उस प्रभु की ओर चलने का वर्णन है। उसी प्रसङ्ग में कहते हैं कि ( शुक्रं त्वा ) = ज्ञान से दीप्त आपको ( शुक्रेण ) = ज्ञान की दीप्ति से ( क्रीणामि ) = खरीदता हूँ, प्राप्त करता हूँ। ( चन्द्रम् ) = [ चदि आह्लादे ] आह्लादमय आपको ( चन्द्रेण ) = आह्लादमयता से प्राप्त करता हूँ। ( अमृतम् ) = अमृत आपको ( अमृतेन ) = अमृतत्व से, नीरोगता से प्राप्त करता हूँ। वस्तुतः प्रभु की उपासना व प्राप्ति का प्रकार यही है कि हम प्रभु-जैसे बनें। प्रभु सर्वज्ञ हैं, आनन्दमय हैं, अमर हैं। उपासक को भी चाहिए कि नैत्यिक स्वाध्याय से अपने मस्तिष्क को ज्ञान से दीप्त करके ‘शुक्र’ बने, मन को राग-द्वेषादि मलों से रहित करके मनःप्रसाद को सिद्ध करके ‘चन्द्र’ बने और पथ्य का मात्रा में सेवन करते हुए नीरोग व ‘अमृत’ बने। प्रभु-प्राप्ति का यही सूत्र है—‘शुक्र-चन्द्र-अमृत’।
२. ( सग्मे ) = यजमान में ( ते ) = तेरी ( गौ ) = वेदवाणी स्थापित होती है। जितना-जितना मनुष्य यज्ञशील बनता है उतना-उतना वेदवाणी का आधार बनता है। [ सग्मे ते गौरिति यजमाने ते गौरिति—श० ३।२।६।७ ]। यजमान बनने का पहला पग ‘देवपूजा’ है। देवों की पूजा से ही ज्ञान की प्राप्ति होती है।
३. ( अस्मे ) = हमारे लिए ( ते ) = तेरी ( चन्द्राणि ) = आह्लादवृत्तियाँ हों। हम सदा प्रसन्न मनोवृत्तिवाले बनें। वस्तुतः जितना-जितना ज्ञान अधिक होता है उतना-उतना ही आनन्द अधिक होता है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए ‘यजमान’ बनना, देवपूजा की वृत्तिवाला बनना आवश्यक है।
४. ( तपसः तनूः असि ) = हे प्रभो! आप तो शरीरबद्ध तप हैं, तप के कारण ही तो आप अपने उच्च स्थान में स्थित हैं। ( प्रजापतेः वर्णः ) = आप अक्षरशः प्रजापति हैं। जो जितना-जितना तपस्वी होता है वह उतना-उतना ही लोकहित कर पाता है। वह उपासक भी आपका सच्चा उपासक है जो तपस्वी बनकर प्रजापति बनता है।
५. हे प्रभो! आप ( परमेण पशुना ) = उत्कृष्ट जीव से ( क्रीयसे ) = खरीदे जाते है—प्राप्त किये जाते हैं। परम अर्थात् पूर्ण वही है जिसने स्वास्थ्य साधन से अमृतता को सिद्ध किया है, तपस्या के द्वारा मनःप्रसाद को सिद्ध करके जो चन्द्र बना है और जो ज्ञान को दीप्त करके शुक्र बना है। जिसने शरीर, मन व मस्तिष्क तीनों के ही स्वास्थ्य का साधन किया है, वही ‘परम-पशु’ है।
५. इन्हीं साधनाओं को निर्विघ्नता से कर सकने के लिए मैं ( सहस्रपोषम् ) = उतने धन को जो हजारों का पोषण करनेवाला है ( पुषेयम् ) = प्राप्त करनेवाला बनूँ। मैं धन के दृष्टिकोण से निश्चिन्त होऊँ, परन्तु धन का ही दास न बन जाऊँ। मेरा धन शतशः लोगों का पोषण करनेवाला हो।
भावार्थ
भावार्थ — मैं ‘शुक्र-चन्द्र-अमृत’ बनूँ। तपस्वी व लोकहित करनेवाला बनूँ। सहस्रों का पोषण करनेवाले धन को प्राप्त करूँ।
विषय
ईश्वर की स्तुति। राजा के प्रजा के प्रति कर्तव्य ।
भावार्थ
राजा- प्रजा के परस्पर के व्यवहार को स्पष्ट करते हैं ।हे राजन् ! ( शुक्रं ) शरीर में वीर्य के समान राष्ट्र में बलरूप से विद्यमान (त्वा) तुझको मैं राष्ट्रवासी प्रजाजन ( शुक्रेणा ) अपने तेजोमय सुवर्णरजतादि अर्थबल से या अपने भीतर विद्यमान शरीर बल से ही ( क्रीणामि ) अदला बदली करते हैं, ग्रहण करते हैं और ( चन्द्रेण ) अपने चन्द आह्लादकारी धन ऐश्वर्य के द्वारा ( त्वां चन्द्रम् ) तुम सर्व प्रजारज्जक पुरुष को ( क्रीणामि ) अपनाते स्वीकार करते हैं और (अमृतेन ) अपने अमर आत्मा द्वारा ( अमृतम् ) अमृत, अविनाशी तुझको स्वीकार करते हैं । (ते) तेरे ( राज्ये ) चक्रवतीं राज्य में ( गोः ) इस पृथिवी से उत्पन्न ( अस्मे चन्द्राणि ) हमारे समस्त प्रकार के धन ऐश्वर्य ( ते ) सब तेरे ही है और तू साक्षात् ( तपसः ) तप का ( तनूः ) विग्रहवान्, शरीरों रूप ( असि ) है, अर्थात् शत्रु और दुष्टजनों का तापक एवं प्रजा के सुख के लिये समग्र तपस्या करने से साक्षात् तपःस्वरूप है और तू( प्रजापतेः ) प्रजा के पालन करने वाले पिता या परमेश्वर के ( वर्णः ) महान् प्रजा पालन के कार्य के लिये हमारे द्वारा वरण करने योग्य है और ( परमेण ) परम, सर्वोत्तम ( पशुना ) गौ, हाथी सिंह इत्यादि रूप से ( क्रीयसे) समस्त प्रजाओ द्वारा स्वीकार किया जाता है, माना जाता है अथवा तुझे प्रजा अपने सर्वोत्तम पशु धन देकर अपना रक्षक स्वीकार करती है। मैं, हम प्रजाजन ( सहस्रपोषम् ) हजारों धन समृद्धि सम्पदाएँ प्राप्त करके ( पुषेयम् ) पुष्ट होवें॥
टिप्पणी
२६' संग्मेते गौरस्मै ' इति उव्वट महीधराभिमतः पाठो निर्णयसागरीयः । सम्मेते गोरस्मे' इति शत०, द०, सात, काण्व० । `चन्द्र त्वा चन्द्रेण० शुक्र- शुक्रेणाम्' इति काण्व ० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यज्ञो लिङ्गोक्ता अजा सोमो वा देवता । भुरिग् ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
विषय
मनुष्यों को क्या-क्या साधन करके यज्ञ को सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ
मैं (सग्मे) गमनशील पृथिवी के साथ विद्यमान यज्ञ में जो (तपसः) धर्मानुष्ठान अग्नि वा तपस्वी का (तनूः) शरीर (असि) है और जो (पशुना) बेचे हुए गौ आदि पशु से (प्रजापतेः) प्रजा के पालक सूर्य के (वर्णः) वरण करने योग्य होने से ( क्रीयसे) खरीदा जाता है उसको (सहस्रपोषम्) असंख्य पोषण साधनों से पुष्ट करके (पुषेयम्) बलवान् रहूँ । हे विद्वान् मनुष्य ! (ते) तेरे लिए जिस (गोः) पृथिवी से (चन्द्राणि) सुवर्ण आदि धातु उत्पन्न हुई हैं वह (अस्मे) हमारे लिए भी हों । मैं (परमेण) उत्तम (शुक्रेण) शुद्धभाव से जिस (शुक्रम्) शुद्धि करने वाले यज्ञ को (चन्द्रेण) सोने से (चन्द्रम्) सोने को (अमृतेन) नाशरहित विज्ञान से (अमृतम्) मोक्षसुख को (क्रीणामि) ग्रहण करता हूँ (त्वा) उसे तू भी ग्रहण कर।।४।२६ ।।
भावार्थ
सब मनुष्य शरीर, मन, वाणी और धन से परमेश्वर की उपासना आदि लक्षण युक्त यज्ञ का सदा अनुष्ठान करके असंख्य अतुल पुष्टि प्राप्त करें ।। ४ । २६ ।।
प्रमाणार्थ
(चन्द्रम्) 'चन्द्र' शब्द निघं० ( १ । २) हिरण्य-(सुवर्ण) नामों में पढ़ा है। (सग्मे) 'ग्मा' शब्द निघं० ( १ । १ ) में पृथिवी नामों में पढ़ा है। (असि) अस्ति। यहाँ पुरुष-व्यत्यय है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० ( ३ ।३।३। ६-९) में की गई है ।। ४ । २६ ।।
भाष्यसार
क्या करके यज्ञ को सिद्ध करें--शरीर को धर्मानुष्ठान से युक्त करके, इसे अग्नि के समान तेजस्वी और तपस्वी बनाकर, गौ आदि पशुओं के क्रय-विक्रय रूप व्यवहार से सूर्य के वर्ण के समान सुवर्ण आदि धन को प्राप्त करके तथा पृथिवी से उत्पन्न होने वाले काञ्चन (सोना) आदि धातुओं को अपना कर, अत्यन्त शुद्ध भाव से परमेश्वर की उपासना आदि लक्षणों से युक्त यज्ञ का अनुष्ठान करके अतुल पुष्टि को प्राप्त करें। सोने के व्यवहार से सोने को बढ़ावें। अमृत रूप विज्ञान से मोक्ष को प्राप्त करें तथा क्रियामय इस यज्ञ को सिद्ध करें ॥ ४ । २६ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी शरीर, मन, वाणी व धन यांनी अत्यंत परमेश्वराची उपासना इत्यादी लक्षणांनी युक्त असलेल्या यज्ञाचे अनुष्ठान करावे व सामर्थ्यवान व्हावे.
विषय
मनुष्यांनी यज्ञाच्या सिद्धतेकरिता कोणकोणत्या साधनांची व्यवस्था करावी, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादित केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ -(सग्मे) पृथ्वीवर हा जो यज्ञ विद्यमान आहे, त्या यज्ञामुळे अग्नीच्या प्रभावामुळे तपस्वीजनाचे व धर्मात्मा विद्वानाचे (तनूः) शरीर पुष्ट झाले आहे. त्या अशा तपयुक्त शरीराचा उपयोग शिल्पविद्या शिकण्यासाठी व सत्योपदेश देण्यासाठी व्हावा. याकरिता (पशुना) विकत घेतलेले गौ आदी पशूंच्या पालन-पोषणाने धन वाढवावे (व यज्ञासाठी आवश्यक साधनें मिळवाीवत) (प्रजापतेः) प्रजेचा म्हणजे मनुष्यमात्राचा पालक जो सूर्य (वर्णः) त्याचे वारणीय तेज (क्रीयसे) विकले जात आहे (सूर्यापासून जे तेज प्रसारित होत आहे) त्या तेजाने (सहस्रपोषम्) असंख्य पुष्टी प्राप्त करीत मी (पुषेयम्) पुष्ट व्हावे. हे विद्वान महाशय, (ते) तुम्हांला (गोः) पृथ्वीच्या राज्य प्राप्त झाल्यामुळे ज्या (चंद्राणि) सुवर्ण आदी धातु प्राप्त झालेल्या आहेत, त्या वस्तू (अस्मे) (यज्ञामुळे) आम्हांसाठी प्राप्त व्हाव्यात (विद्वान म्हणतात) - मी (परमेश) उत्तम एवं (शुक्रेण) शुद्धभावनेने (शुक्रम) शुद्धिकारक यज्ञास प्राप्त केले आहे, (चन्द्रेय) स्वर्णाने (चन्द्रम्) स्वर्ण व (अमृतेन) अविनाशी विज्ञानाने (अमृतम्) मोक्ष (क्रीणामी) प्राप्त केले आहे, त्याप्रमाणे हे मनुष्या, (त्वा) तू देखील माझे अनुसरण करून ते सर्व (यज्ञ, स्वर्ण, मोक्ष) प्राप्त करून घे ॥26॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांसाठी हेच हितकारक आहे की त्यांनी शरीर, मन, वाणी आणि धनाने यज्ञाचे अनुष्ठान करावे. कारण की यज्ञ परमेश्वराच्या उपासनेचे एक लक्षण आहे. अशा प्रकारे मनुष्यांनी यज्ञामुळे अगणित व अतुलनीय पुष्टी आणि समृद्धी मिळवावी ॥26॥
इंग्लिश (3)
Meaning
In the yajna, we should please the learned performer by offering him cash and kind. May the praiseworthy brilliance of the sun make me strong through its thousand fold abundance. O wise person, may we also obtain the riches, which thou hast secured through thy rule over the earth. Just as I accomplish the sacrifice through noble, pure sentiments, earn gold with gold, attain to salvation through immortal knowledge so may thou.
Meaning
Yajna, you are a symbol of the discipline of fire. You are the golden choice of Prajapati, father of the creatures. Your gifts are begot for the price of the highest wealth. You are pure and immaculate, begot in return for the purest offering of mine. Golden and blissful you are, I offer the richest gold of my life for the celestial bliss. You are the nectar of life. I get you with the offering of the immortal knowledge I have. Your wealth is in the womb of the moving earth and the environment. May that wealth be ours too with yajna. You nourish life in a thousand ways. May I, by the grace of Prajapati, participate in the nourishment.
Translation
I purchase you О pure, with pure. І purchase you О blissful, with bliss. I purchase you. О immortal, with immortal. (1) May the sacrificer have your cow and may we have your gold pieces. (2) You are the embodiment of austerity and the form of the Lord of creatures. You are purchased with the sublimest of all the creatures. May I flourish with thousandfold nourishment. (3)
Notes
Sukram, pure; bright. Candrani, gold pieces; coins. Paramena pasuna, with the most sublime animal.
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যৈঃ কিং কৃত্বা য়জ্ঞঃ সাধনীয় ইত্যুপদিশ্যতে ॥
মনুষ্যদিগকে কী কী সাধন করিয়া যজ্ঞকে সিদ্ধ করা উচিত, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–যেমন (সগ্মে) পৃথিবী সহ বর্ত্তমান যজ্ঞে (তপসঃ) প্রতাপযুক্ত অগ্নি বা তপস্বী অর্থাৎ ধর্মাত্মা বিদ্বানের (তনূঃ) শরীর (অসি) আছে, উহাকে শিল্পবিদ্যা বা সত্যোপদেশের সিদ্ধির অর্থ (পশুনা) বিক্রীত গাভি আদি পশুগুলি করিয়া ধনাদি সামগ্রী দ্বারা গ্রহণ করিয়া (প্রজাপতেঃ) প্রজাপালন হেতু সূর্য্যের (বর্ণঃ) স্বীকার করিবার যোগ্য তেজ (ক্রীয়সে) ক্রয় হয় সেই (সহস্রপোষম্) অসংখ্য পুষ্টি প্রাপ্ত হইয়া আমি (পুষেয়ম্) পুষ্ট হই । হে বিদ্বান্ মনুষ্য! (তে) আপনার যে (গোঃ) পৃথিবীর রাজ্য সকাশে (চন্দ্রানি) সূবর্ণাদি ধাতু প্রাপ্ত, সেইগুলি (অস্মে) আমাদিগের জন্যও হউক যেমন আমি (পরমেন) উত্তম (শুক্রেণ) শুদ্ধ ভাব সহ (শুক্রম্) শুদ্ধিকারক যজ্ঞ (চন্দ্রেন) সুবর্ণ দ্বারা (চন্দ্রম্) সুবর্ণ এবং (অমৃতেন) নাশরহিত বিজ্ঞান দ্বারা (অমৃতম্) মোক্ষ সুখকে (ক্রীণামি) গ্রহণ করি সেইরূপ তুমিও (ত্বা) উহা গ্রহণ কর ॥ ২৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের কর্ত্তব্য যে, শরীর মন, বাণী ও মন দ্বারা পরমেশ্বরের উপাসনাদি লক্ষণযুক্ত যজ্ঞের নিরন্তর অনুষ্ঠান করিয়া অসংখ্য অতুল পুষ্টি প্রাপ্ত করুক ॥ ২৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
শু॒ক্রং ত্বা॑ শু॒ক্রেণ॑ ক্রীণামি চ॒ন্দ্রং চ॒ন্দ্রেণা॒মৃত॑ম॒মৃতে॑ন । স॒গ্মে তে॒ গোর॒স্মে তে॑ চ॒ন্দ্রাণি॒ তপ॑সস্ত॒নূর॑সি প্র॒জাপ॑তে॒র্বর্ণঃ॑ পর॒মেণ॑ প॒শুনা॑ ক্রীয়সে সহস্রপো॒ষং পু॑ষেয়ম্ ॥ ২৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
শুক্র ত্বেত্যস্য বৎস ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । ভুরগ্ব্রাহ্মী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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