अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
श॒तवा॑रो अनीनश॒द्यक्ष्मा॒न्रक्षां॑सि॒ तेज॑सा। आ॒रोह॒न्वर्च॑सा स॒ह म॒णिर्दु॑र्णाम॒चात॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तऽवा॑रः। अ॒नी॒न॒श॒त्। यक्ष्मा॑न्। रक्षां॑सि। तेज॑सा। आ॒ऽरोह॑न्। वर्च॑सा। स॒ह। म॒णिः। दु॒र्ना॒म॒ऽचात॑नः ॥३६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शतवारो अनीनशद्यक्ष्मान्रक्षांसि तेजसा। आरोहन्वर्चसा सह मणिर्दुर्णामचातनः ॥
स्वर रहित पद पाठशतऽवारः। अनीनशत्। यक्ष्मान्। रक्षांसि। तेजसा। आऽरोहन्। वर्चसा। सह। मणिः। दुर्नामऽचातनः ॥३६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
रोगों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(दुर्णामचातनः) दुर्नामों [बुरे नामवाले बवासीर आदि रोगों] को नाश करनेवाले (मणिः) प्रशंसनीय (शतवारः) शतवार [सैकड़ों से स्वीकार करने योग्य औषध विशेष] ने (वर्चसा सह) प्रकाश के साथ (आरोहन्) ऊँचे होते हुए (तेजसा) अपनी तीक्ष्णता से (यक्ष्मान्) राजरोगों [क्षयी आदि] और (रक्षांसि) राक्षसों [रोगजन्तुओं] को (अनीनशत्) नष्ट कर दिया है ॥१॥
भावार्थ
शतवार औषध के सेवन से क्षयी, बवासीर आदि रोग नष्ट होते हैं, और वे रोगजन्तु भी नष्ट होते हैं, जो शरीर में दाद बवासीर आदि के कारण हैं ॥१॥
टिप्पणी
शतवार और शतावरी एक ही औषध जान पड़ते हैं, जिसके नाम शतमूली आदि हैं ॥१−(शतवारः) शत+वृण् वरणे-घञ्। बहुभिर्वरणीयः स्वीकरणीयः। विश्ववारः-अ०५।२७।३। औषधविशेषः (अनीनशत्) नाशितवान् (यक्ष्मान्) अ०२।१०।५ राजरोगान्। क्षयरोगान् (तेजसा) प्रभावेण (आरोहन्) अधितिष्ठन् (वर्चसा) प्रकाशेन (सः) (मणिः) प्रशस्तः (दुर्णामचातनः) अ०८।६।३। दुर्णाम्नामर्शआदिरोगाणां नाशकः ॥
भाषार्थ
शतवार औषध (शृङ्गाभ्याम्) निज कंटकों द्वारा (रक्षः) यक्ष्म-रोग के कीटाणुओं को (नुदते) दूर करती है। (मूलेन) जड़ द्वारा (यातुधान्यः) यातना अर्थात् पीड़ा देनेवाले वातरोगों को दूर करती है। और (मध्येन) मध्य भाग द्वारा (यक्ष्मम्) यक्ष्मरोग को (बाधते) हटाती है। इस प्रकार (एनम्) इस मनुष्य को (पाप्मा) यक्ष्मरूपी पाप (न अति तत्रति) अधिक प्रभावित नहीं कर पाता।
टिप्पणी
[महाशतावरी कांटेदार होती है। भावप्रकाश में इसे “ऊर्ध्वकंटिका” कहा है। शृङ्ग का अभिप्राय है—कांटे। महाशतावरी के कांटों द्वारा निर्मित औषध सम्भवतः यक्ष्मरोग के कीटाणुओं को मार देती हो। अन्य भी औषधियाँ हैं, जिनके साथ शृृङ्गों का वर्णन हुआ है। यथा—शृङ्गी, ककंटशृङ्गी, शृङ्गटक अजशृङ्गी आदि। न तत्रति=तत्रि कुटुम्बधारणे। अर्थात् यक्ष्मा, रोगी में निजकुटुम्ब का धारण-पोषण नहीं कर पाता।]
विषय
रक्षः, यातुधान्यः, यक्ष्मम्
पदार्थ
१. यह 'शतवार' वीर्यमणि (शृङ्गाभ्याम्) = अपने सींगों से-अग्रभागों से (रक्षः नुदते) = रोग कृमियों व राक्षसीभावों को परे धकेलती है। (मूलेन) = मूल से (यातुधान्य:) = पीड़ा का अधान करनेवाली बिमारियों को दूर करती है और (मध्येन) = अपने मध्यभाग से (यक्ष्मम्) = क्षयरोग को (बाधते) = बाधित करती है। २. शतवार मणि को यदि एक वृक्ष के रूप में चित्रित करें तो वह अपने अग्रभाग से मानो रोगकमियों को, मूल से पीड़ाकर रोगों को तथा मध्य से राजरोग को दूर करती है। (एनम्) = इसको (पाप्मा) = कोई भी रोग (न अति तत्रति) = आक्रान्त नहीं कर पाता।
भावार्थ
वीर्य 'शतवार' मणि है। यह रोगकृमियों, रोगों व राजरोगों को विनष्ट करती है। रोग इसे आक्रान्त नहीं कर पाते।
इंग्लिश (4)
Subject
Shatavara Mani
Meaning
With its thorns it eliminates the destructive bacteria, with its root it cures the painful winds, with its middle part it cures and prevents cancerous consumption. No malignant force can obstruct or suppress the curative effect of it.
Translation
With its two horns it thrusts away the injurious germs, with its base the painful viruses, and with its middle part it removes the wasting disease. No malady escapes from it.
Translation
This praiseworthy germicidal shatavara (the name of herb which prevents hundred diseases) mounting over the disease with splendor vanishes the tuberculosis and its germs with power.
Translation
The above-mentioned herb (i.e, shatavar) drives off the atmospheric germs by its thorns, the contagious viruses of the earth by its root, and keeps in check the consumption by its middle part. No evil force can subdue its efficacy.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
शतवार और शतावरी एक ही औषध जान पड़ते हैं, जिसके नाम शतमूली आदि हैं ॥१−(शतवारः) शत+वृण् वरणे-घञ्। बहुभिर्वरणीयः स्वीकरणीयः। विश्ववारः-अ०५।२७।३। औषधविशेषः (अनीनशत्) नाशितवान् (यक्ष्मान्) अ०२।१०।५ राजरोगान्। क्षयरोगान् (तेजसा) प्रभावेण (आरोहन्) अधितिष्ठन् (वर्चसा) प्रकाशेन (सः) (मणिः) प्रशस्तः (दुर्णामचातनः) अ०८।६।३। दुर्णाम्नामर्शआदिरोगाणां नाशकः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal