Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 36 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 36/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - शतवारः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शतवारमणि सूक्त
    0

    हिर॑ण्यशृङ्ग ऋष॒भः शा॑तवा॒रो अ॒यं म॒णिः। दु॒र्णाम्नः॒ सर्वां॑स्तृ॒ड्ढ्वाव॒ रक्षां॑स्यक्रमीत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यऽशृङ्गः। ऋ॒ष॒भः। शा॒त॒ऽवा॒रः। अ॒यम्। म॒णिः। दुः॒ऽनाम्नः॑। सर्वा॑न्। तृ॒ड्ढ्वा। अव॑। रक्षां॑सि। अ॒क्र॒मी॒त् ॥३६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यशृङ्ग ऋषभः शातवारो अयं मणिः। दुर्णाम्नः सर्वांस्तृड्ढ्वाव रक्षांस्यक्रमीत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽशृङ्गः। ऋषभः। शातऽवारः। अयम्। मणिः। दुःऽनाम्नः। सर्वान्। तृड्ढ्वा। अव। रक्षांसि। अक्रमीत् ॥३६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 36; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रोगों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (हिरण्यशृङ्गः) सोने के समान सींग [अगले भाग] वाला, (ऋषभः) ऋषभ [औषध विशेष के समान] (अयम्) इस (मणिः) प्रशंसनीय (शातवारः) शतवार ने (सर्वान्) सब (दुर्णाम्नः) दुर्नामों [बुरे नामवाले बवासीर आदि] को (तृड्ढ्वा) मार कर (रक्षांसि) राक्षसों [रोगजन्तुओं] को (अव अक्रमीत्) खूँद डाला है ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे ऋषभ औषध बहुत बलकारी और अनेक रोगनाशक है, वैसे ही यह शतवार औषध है –॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(हिरण्यशृङ्गः) सुवर्णसमानशृङ्गमग्रभागो यस्य सः (ऋषभः) ऋषभौषधितुल्यः (पुष्टिकरः) (शातवारः) स्वार्थे-अण्। शतवारः-म०१। (अयम्) (मणिः) प्रशस्तः (दुर्णाम्नः) अर्शआदिरोगान् (सर्वान्) (तृड्ढ्वा) तृह हिंसायाम्-क्त्वा। हिंसित्वा (रक्षांसि) राक्षसान्। रोगजन्तून् (अव अक्रमीत्) पादेन यथा विक्षिप्तवान् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (हिरण्यशृङ्गः) सुवर्ण के वर्ण वाले शृङ्गों अर्थात् अग्रभागों वाली, (शातवारः) शतवार-जाति की (अयम्) यह (मणिः) रत्नसमान बहुमूल्य (ऋषभः) ऋषभ-औषध, (दुर्णाम्नः) दुष्परिणामी (सर्वान्) सब रोगों या यक्ष्मों की (तृड्ढ्वा) हिंसा अर्थात् विनाश करके (रक्षांसि) रोग-कीटाणुओं पर (अव अक्रमीत्) आक्रमण करता, और उन्हें परास्त करता है।

    टिप्पणी

    [ऋषभः= वृषशृङ्गवत्। ऋषभो वृषभो धीरो विषाणी द्राक्ष इत्यति। जीवकर्षभकौ बल्यौ शीतौ शुक्रकफप्रदौ॥ मधुरो पित्तदाहास्रकार्श्यवातक्षयापहौ॥ (भावप्रकाश निघण्टु) इस प्रमाण में ऋषभ को वृषभशृङ्गी तथा विषाणी कहा है। तथा जीवक और ऋषभ औषधों को “क्षयापहौ” अर्थात् क्षयरोग-विनाशक भी कहा है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    हिरण्यशृङ्क:

    पदार्थ

    १. (अयम्) = यह शतवार: मणि:-सैकड़ों रोगों का निवारण करनेवाली मणि हिरण्यशंग: हितरमणीय व स्वर्णवत देदीप्यमान अग्नभागवाली है। इन्हीं शंगों से तो यह सब राक्षसों को दूर भगाती है। वीर्य के सुरक्षित होने पर राक्षसीभाव स्वत: नष्ट हो जाते हैं। यह (ऋषभ:) = सब राक्षसीभावों का संहार करनेवाली है [ऋष् to kill]| २. सर्वान् दुर्णाम्नः-सब दुष्ट नामवाले अर्शस् आदि रोगों को तड्दवा-हिंसित करके यह रक्षांसि अवक्रमीत्-रोगकृमियों को दूर भगा देती है।

    भावार्थ

    शरीर में सुरक्षित वीर्य 'दीप्त शृंगोवाले ऋषभ' के समान है-ये इन शृंगों से सब रोगों को दूर भगा देता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Shatavara Mani

    Meaning

    Of golden curative thrust is this jewel herb, Rshabha of the Shatavara family. It destroys all notorious diseases and attacks and destroys all the killer causes of these diseases.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    This Satavira blessing is just a golden-horned bull. Having smitten all the ill-named maladies, it attacks the injurious germs.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    This Shatavara makes hundred (patients) Vira, the active ones after restoring the health, this shakes up hundred consumptions and this killing all the germs shakes the pains.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    This topmost medicinal herb has thorns of superfine qualities, is showerer of blessings on the patients, wards off various ailments. It puts down all the germs, after effacing all the persistent skin diseases.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(हिरण्यशृङ्गः) सुवर्णसमानशृङ्गमग्रभागो यस्य सः (ऋषभः) ऋषभौषधितुल्यः (पुष्टिकरः) (शातवारः) स्वार्थे-अण्। शतवारः-म०१। (अयम्) (मणिः) प्रशस्तः (दुर्णाम्नः) अर्शआदिरोगान् (सर्वान्) (तृड्ढ्वा) तृह हिंसायाम्-क्त्वा। हिंसित्वा (रक्षांसि) राक्षसान्। रोगजन्तून् (अव अक्रमीत्) पादेन यथा विक्षिप्तवान् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top