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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजः देवता - पितरः सौम्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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    द्यावा॑पृथिवी॒ अनु॒ मा दी॑धीथां॒ विश्वे॑ देवासो॒ अनु॒ मा र॑भध्वम्। अङ्गि॑रसः॒ पित॑रः॒ सोम्या॑सः पा॒पमार्छ॑त्वपका॒मस्य॑ क॒र्ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यावा॑पृथिवी॒ इति॑ । अनु॑ । मा॒ । आ । दी॒धी॒था॒म् । विश्वे॑ । दे॒वा॒स॒: । अनु॑ । मा॒ । आ । र॒भ॒ध्व॒म् । अङ्गि॑रस: । पित॑र: । सोम्या॑स: । पा॒पम् । आ । ऋ॒च्छ॒तु॒ । अ॒प॒ऽका॒मस्य॑ । क॒र्ता ॥१२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यावापृथिवी अनु मा दीधीथां विश्वे देवासो अनु मा रभध्वम्। अङ्गिरसः पितरः सोम्यासः पापमार्छत्वपकामस्य कर्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्यावापृथिवी इति । अनु । मा । आ । दीधीथाम् । विश्वे । देवास: । अनु । मा । आ । रभध्वम् । अङ्गिरस: । पितर: । सोम्यास: । पापम् । आ । ऋच्छतु । अपऽकामस्य । कर्ता ॥१२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सबकी रक्षा के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (द्यावापृथिवी=०–व्यौ) हे सूर्य और पृथिवी ! (मा) मुझ पर (अनु=अनुलक्ष्य) अनुग्रह करके (आ) भले प्रकार (दीधीथाम्) दोनों प्रकाशित हों, (विश्वे) हे सब (देवासः=०–वाः) उत्तम गुणवाले महात्माओं ! (मा) मुझ पर (अनु) अनुग्रह करके (आ) भले प्रकार (रभध्वम्) उत्साही बनो। (अङ्गिरसः) हे ज्ञानी पुरुषों ! (पितरः) हे रक्षक पिताओ ! (सोम्यासः=०–म्याः) हे सौम्य, मनोहर गुणवाले विद्वानो ! (अपकामस्य) अनिष्ट का (कर्त्ता) कर्त्ता (पापम्) दुःख (आ+ऋच्छतु) प्राप्त करे ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिये कि सूर्य और पृथिवी अर्थात् संसार के सब पदार्थ अनुकूल रहें और बड़े-बड़े उपकारी विद्वानों के सत्सङ्ग से डाकू उचक्के आदि को यथोचित दण्ड देकर और वश में करके शान्ति रक्खे ॥५॥

    टिप्पणी

    ५–द्यावापृथिवी। मा० १। हे सूर्यभूमी। सर्वे पदार्थाः। अनु। अनुर्लक्षणे। पा० १।४।८४। इति अनोः कर्मप्रवचनीयता। कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया। पा० २।३।८। इति मा इत्यस्य द्वितीया। अनुलक्ष्य। मा। माम्। दीधीथाम्। दीधीङ् दीप्तिदेवनयोः–लोट्, अदादित्वात् शपो लुक्। दीप्येताम्। विश्वे। सर्वे। देवासः। जसि असुगागमः। हे देवाः। महात्मानः। आ+रभध्वम्। रभ राभस्ये=उत्सुकीभावे–लोट्। उत्सुका भवत। उद्युक्ता भवत–इति सायणाचार्यः। अङ्गिरसः। म० ४। हे ज्ञानिनः। महर्षयः। पितरः। म० ४। हे पालकाः। पितृवत् सत्करणीयाः। सोम्यासः। तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति यत्। आज्जसेरसुक्। पा० ७।१।५। इति असुक्। हे सोम्याः। सोमाय ऐश्वर्याय हिताः। मनोहराः। प्रियदर्शनाः। पापम्। पानीविषिभ्यः पः। उ० ३।२३। इति पा रक्षणे–प प्रत्ययः। पाति रक्षति अस्मादात्मानमिति। अधर्मम्। पातकम्। दुःखम्। आ+ऋच्छतु। आर्च्छतु। ऋच्छ गतौ। उपसर्गादृति धातौ। पा० ६।१।९३। इति गुणापवादे वृद्धिः। प्राप्नोतु। अपकामस्य। अप नञर्थे+कम इच्छायाम्–घञ्। अनिष्टस्य। अपकारस्य। अत्याचारस्य। कर्ता। कृञ्–तृच्। कारकः। प्रयोजकः ॥

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    विषय

    दीप्ति व शक्ति

    पदार्थ

    १. (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (मा अनुदीधीथाम्) = मेरे अनुकूल होकर दीप्त हों। मेरे शरीर में मस्तिष्करूप झुलोक ज्ञान के सूर्य से चमके और पृथिवीरूप शरीर तेजस्विता से दीस बने । २. (विश्वेदेवास:) = सब देव (मा अनुरभध्वम्) = मेरे अनुकूल होकर कार्य करनेवाले हों। दिशाएँ मेरे श्रोत्रों को उपश्रुति [श्रवण शक्ति] दें, सूर्य आँखों में दृष्टिशक्ति दे, वायु प्राणशक्ति का वर्धन करे और अग्नि वाणी की शक्ति को दीस करे। इसीप्रकार अन्यान्य देवता भिन्न-भिन्न अङ्गों को सशक्त बनानेवाले हों। ३. (अङ्गिरस:) = अङ्गिरस (पितरः) = पितर व (सोम्यास:) = सौम्य ये सब भी मेरे अनुकूल होकर कार्य करनेवाले हों। अङ्गिरस मेरे अङ्गों को रसमय बनाएँ, पितर मेरा रक्षण करें व सौम्य मुझे विनीत बनाएँ। ४. इसप्रकार मेरे जीवन में सदा शुभ इच्छाएँ बनी रहें। (अपकामस्य कर्ता) = अशुभ इच्छाएँ करनेवाला व्यक्ति सदा (पापम् आर्छन्तु) = पाप को प्राप्त करे। अशुभ इच्छाओं का परिणाम 'अशुभ कर्म' तो होगा ही।

    भावार्थ

    मेरी इच्छाएँ सदा शुभ बनी रहें, जिससे शुभ को करता हुआ मैं चमकूँ और शक्तिशाली बनें।

     

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    भाषार्थ

    (द्यावापृथिवी) हे द्यूलोक तथा पृथिवीलोक (मा अनु) मेरे अनुकूल (दीघीथाम्) तुम दोनों प्रदीप्त होओ, (विश्वे देवास) हे सब देवो ! (मा अनु) मेरे अनुकूल (रभध्वम्) निज कार्यों का आरम्भ करो। (सोम्यासः) है सौम्य स्वभावोंवाले (अङ्गिरसः पितरः) अथर्वाङ्गिस वेद के ज्ञाता पितरो! (अपकामस्य कर्ता) बुरी कामना का करनेवाला (पापम् आ ऋच्छतु) पाप को प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [मा अनु= मयि तप्यमाने तप्यन्ताम् (मन्त्र १) की भावनानुसारी भावना मन्त्र ५ में प्रकट की गई है। वह भावना है "आमुं ददे हरसा दैव्येन" (मन्त्र ४) की भावना। विश्वे देवास:= द्यावापृथिवी के सदृश दीप्यमान सूर्य, चन्द्र आदि अन्य देव। अपकामस्य कर्ता= पापी होता है; बुरी कामनाएँ पापरूप होती हैं, और सुकामनाएं पुण्यरूप होती हैं, यह अभिप्राय है। मन्त्र में यह भी निर्देश है कि अथर्ववेद में किसी के प्रति कोई अपकामना नहीं अपितु सुकामनाएँ हैं, पापियों को सन्मार्ग पर लाने के लिये।]

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    विषय

    तपस्या की साधना

    भावार्थ

    उक्त तपस्या का फल कहते हैं। (द्यावापृथिवी) हे द्यौ और पृथिवी ! माता और पिता ! राजा और प्रजा ! ( मा ) मेरे (अनु) अनुकूल, मेरे पीछे २ (दीघीथां) यशस्वी होओ । ( विश्वेदेवासः ) हे समस्त विद्वान्गण ! ( मा अनु ) मेरी आज्ञा और इच्छा के अनुसार ही (रभध्वम्) कार्य आरम्भ करो। हे (अङ्गिरसः ) रुद्र आदि ब्रह्मचारियो ! अंगों में प्राणों के समान बल संचार करने वाले ज्ञानी पुरुषो !. (सोम्यासः) शान्त और शुभ गुणों से युक्त, उत्तम कार्यों के प्रव्रर्त्तक ( पितरः ) पितरो ! (अपकामस्य ) निन्दनीय इच्छा का ( कर्त्ता ) करने द्वारा पुरुष (पापम्) पाप के फल को (आ ऋच्छतु) अवश्य प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजप्रव्रस्कं सूक्तम्। भरद्वाज ऋषिः। नाना देवताः। प्रथमया द्यावापृथिव्योः उरूगा यस्यान्तरिक्षस्य च स्तुतिः। द्वितीयया देवस्तुतिः। तृतीयया इन्द्रस्तुतिः। चतुर्थ्या आदित्यवस्वंगिरः पितॄणाम् सौम्यानां। पञ्चम्या, ब्रह्मविराट्तमोऽघ्न्यानां, पष्ठ्या मरुताम् सप्तम्या यमसदनात् ब्रह्मस्तुतिः। अष्टम्या अग्निस्तुतिः। २ जगती । १, ३-६ त्रिष्टुभः । ७, ८ अनुष्टुभौ। अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self Protection and Development

    Meaning

    O heaven and earth, shine for me to enlighten me. 0 Vishvedevas, divinities of nature and leading lights of humanity, work on to inspire me. O Angirasas, vibrant scholars, parents and seniors, protectors and promoters of youth, creative spirits of life, let the evil doer meet the evil consequences of his sinful deeds.

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    Subject

    Somyah, Pitra

    Translation

    May the heaven and earth be inflamed when I am inflamed. May all the enlightened ones be mobilized in my support, and so be the elders, luminous and enjoyers of devotional bliss. Let the doer of detestable deeds be doomed to death.

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    Translation

    May the Sun and earth favorably shine for our benefit, and may all the learned persons encourage us in our venture. O’ Ye men of physical science, men of medical knowledge and men of guard and guidance; let the doer of evils attain the consequence of his fault.

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    Translation

    O Heaven and Earth, bestow favor on me. O, all forces of nature stand on my side and help me. O learned persons, O doers of noble deeds, O aged persons, the doer of a misdeed must suffer.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५–द्यावापृथिवी। मा० १। हे सूर्यभूमी। सर्वे पदार्थाः। अनु। अनुर्लक्षणे। पा० १।४।८४। इति अनोः कर्मप्रवचनीयता। कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया। पा० २।३।८। इति मा इत्यस्य द्वितीया। अनुलक्ष्य। मा। माम्। दीधीथाम्। दीधीङ् दीप्तिदेवनयोः–लोट्, अदादित्वात् शपो लुक्। दीप्येताम्। विश्वे। सर्वे। देवासः। जसि असुगागमः। हे देवाः। महात्मानः। आ+रभध्वम्। रभ राभस्ये=उत्सुकीभावे–लोट्। उत्सुका भवत। उद्युक्ता भवत–इति सायणाचार्यः। अङ्गिरसः। म० ४। हे ज्ञानिनः। महर्षयः। पितरः। म० ४। हे पालकाः। पितृवत् सत्करणीयाः। सोम्यासः। तस्मै हितम्। पा० ५।१।५। इति यत्। आज्जसेरसुक्। पा० ७।१।५। इति असुक्। हे सोम्याः। सोमाय ऐश्वर्याय हिताः। मनोहराः। प्रियदर्शनाः। पापम्। पानीविषिभ्यः पः। उ० ३।२३। इति पा रक्षणे–प प्रत्ययः। पाति रक्षति अस्मादात्मानमिति। अधर्मम्। पातकम्। दुःखम्। आ+ऋच्छतु। आर्च्छतु। ऋच्छ गतौ। उपसर्गादृति धातौ। पा० ६।१।९३। इति गुणापवादे वृद्धिः। प्राप्नोतु। अपकामस्य। अप नञर्थे+कम इच्छायाम्–घञ्। अनिष्टस्य। अपकारस्य। अत्याचारस्य। कर्ता। कृञ्–तृच्। कारकः। प्रयोजकः ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (দ্যাবাপৃথিবী) হে দ্যুলোক এবং পৃথিবীলোক (মা অনু) আমার অনুকূল (দীধীথাম্) তোমরা উভয়ই প্রদীপ্ত হও, (বিশ্বে দেবাস) হে সমস্ত দেবগণ! (মা অনু) আমার অনুকূল (রভধ্বম্) নিজ কার্য আরম্ভ করো। (সোম্যাসঃ) হে সৌম্য স্বভাবযুক্ত (অঙ্গিরসঃ পিতরঃ) অথর্বাঙ্গিরস বেদের জ্ঞাতা পিতরগণ! (অপকামস্য কর্তা) কুকামনাকারী (পাপম্ আ ঋচ্ছতু) পাপকে প্রাপ্ত হোক।

    टिप्पणी

    [মা অনু=ময়ি তপ্যমানে তপ্যন্তাম্ (মন্ত্র ১) এর ভাবনানুসারী ভাবনা মন্ত্র ৫ এ প্রকট করা হয়েছে। সেই ভাবনা হলো “আমু দদে হরসা দৈব্যেন" (মন্ত্র ৪) এর ভাবনা। বিশ্বে দেবাস=দ্যাবাপৃথিবীর সদৃশ। দীপ্যমান চন্দ্র আদি অন্য দেব। অপকামস্য কর্তা=পাপী হয়; কুকামনা পাপরূপ হয়, এবং সুকামনা পুণ্যরূপ হয়, এটাই অভিপ্রায়। মন্ত্রে এটাও নির্দেশিত রয়েছে যে, অথর্ববেদে কারোর প্রতি কোনো অপকামনা নেই, বরং সুকামনা রয়েছে, পাপীদের সন্মার্গে নিয়ে আসার জন্য।]

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    मन्त्र विषय

    সর্বরক্ষোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (দ্যাবাপৃথিবী=০–ব্যৌ) হে সূর্য ও পৃথিবী ! (মা) আমার প্রতি (অনু=অনুলক্ষ্য) অনুগ্রহ করে (আ) উত্তমরূপে (দীধীথাম্) তোমরা প্রকাশিত হও, (বিশ্বে) হে সকল (দেবাসঃ=০–বাঃ) উত্তম গুণী মহাত্মাগণ ! (মা) আমার ওপর/প্রতি (অনু) অনুগ্রহ করে (আ) উত্তমরূপে (রভধ্বম্) উৎসাহী হও। (অঙ্গিরসঃ) হে জ্ঞানী পুরুষগণ ! (পিতরঃ) হে রক্ষক পিতরগণ ! (সোম্যাসঃ=০–ম্যাঃ) হে সৌম্য, মনোহর গুণী বিদ্বানগণ ! (অপকামস্য) অনিষ্টের (কর্ত্তা) কর্ত্তা (পাপম্) দুঃখ (আ+ঋচ্ছতু) প্রাপ্ত করুক ॥৫॥

    भावार्थ

    মনুষ্যদের চেষ্টা করা উচিত, যাতে সূর্য ও পৃথিবী অর্থাৎ সংসারের সব পদার্থ অনুকূল থাকে এবং উত্তম-মহান উপকারী বিদ্বানদের সৎসঙ্গ দ্বারা ডাকাত আদিকে যথোচিত শাস্তি প্রদান করে এবং বশবর্তী করে শান্তি স্থাপন করুক ॥৫॥

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