अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
ऋषिः - भरद्वाजः
देवता - मरुद्गणः, ब्रह्मद्विट्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
0
अती॑व॒ यो म॑रुतो॒ मन्य॑ते नो॒ ब्रह्म॑ वा॒ यो निन्दि॑षत्क्रि॒यमा॑णम्। तपूं॑षि॒ तस्मै॑ वृजि॒नानि॑ सन्तु ब्रह्म॒द्विषं॒ द्यौर॑भि॒संत॑पाति ॥
स्वर सहित पद पाठअति॑ऽइव । य: । म॒रु॒त॒: । मन्य॑ते । न॒: । ब्रह्म॑ । वा॒ । य: । निन्दि॑षत् । क्रि॒यमा॑णम् । तपूं॑षि । तस्मै॑ । वृ॒जि॒नानि॑ । स॒न्तु॒ । ब्र॒ह्म॒ऽद्विष॑म् । द्यौ : । अ॒भि॒ऽसंत॑पाति ॥१२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अतीव यो मरुतो मन्यते नो ब्रह्म वा यो निन्दिषत्क्रियमाणम्। तपूंषि तस्मै वृजिनानि सन्तु ब्रह्मद्विषं द्यौरभिसंतपाति ॥
स्वर रहित पद पाठअतिऽइव । य: । मरुत: । मन्यते । न: । ब्रह्म । वा । य: । निन्दिषत् । क्रियमाणम् । तपूंषि । तस्मै । वृजिनानि । सन्तु । ब्रह्मऽद्विषम् । द्यौ : । अभिऽसंतपाति ॥१२.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सबकी रक्षा के लिये उपदेश।
पदार्थ
(मरुतः) हे शत्रुओं को मारनेवाले शूरो ! (यः) जो [दुष्ट पुरुष] (नः) हम पर (अतीव=अतीत्य एव) हाथ बढ़ाकर (मन्यते=मानयते) मान करे, (वा) अथवा (यः) जो (क्रियमाणम्) उपयुक्त किये हुए (ब्रह्म) [हमारे] वेदविज्ञान वा धन की (निन्दिषेत्) निन्दा करे। (वृजिनानि) [उसके] पाप कर्म (तस्मै) उसकेलिये (तपूंषि) तापकारी [तुपकरूप] (सन्तु) हों। (द्यौः) दीप्यमान परमेश्वर (ब्रह्मद्विषम्) वेदविरोधी जन को (अभिसंतपाति) सब प्रकार से सन्ताप दे ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य वेदों की सर्वोपकारी आज्ञाओं का उल्लङ्घन करे, उसे शूरवीर पुरुष योग्य दण्ड देवें, वह दुराचारी परमेश्वर की न्यायव्यवस्था से भी कष्ट भोगता है ॥६॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद ६।५२।२ है ॥
टिप्पणी
६–अतीव। अतिरतिक्रमणे च। पा० १।४।९५। इव अवधारणे, प्रादिसमासः। अत्येव। अतिशयेन अतिक्रम्य तिरस्कृत्य। यः। विरोधी जनः। मरुतः। अ० १।२०।१। मृङ् प्राणत्यागे अन्तर्भावितण्यर्थः–इति। हे शत्रुनाशकाः। शूराः। मन्यते। मन गर्वे चुरादिः, छन्दसि दिवादिः। मानयते। गर्वयते। नः। अस्मान्। ब्रह्म। अ० १।८।४। वेदविज्ञानम्। धनम्। निन्दिषत्। णिदि कुत्सायाम्, इदित्त्वान्नुम्। लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इत्यडागमः। सिब् बहुलं लेटि। ३।१।३४। इति सिप्। निन्देत्। दूषयेत्। क्रियमाणम्। कृञ् करणे–कर्मणि शानच्, मुक् च। अनुष्ठीयमानम्। विधीयमानम्। तपूंषि। अर्त्तिपॄवपियजितनिधनितपिभ्यो नित्। उ० २।११६। इति तप दाहे–उसि, नित्त्वाद् आद्युदात्तः। तापकानि तेजांसि आयुधानि वा–इति सायणः। वृजिनानि। वृजेः किच्च। उ० २।४७। इति वृजी वर्जने–इनच्। धर्मवर्जकानि पापकर्माणि। ब्रह्मद्विषम्। ब्रह्म+द्विष अप्रीतौ–क्विप्। वेदविरोधिनम्। द्यौः। गमेर्डोः। उ० २।६७। इति द्युत दीप्तौ–डो। गोतो णित्। पा० ७।१।९०। इति वृद्धिः। द्योतमानः परमेश्वरः। अभि–सम्–तपाति। तप दाहे–लेट्। आडागमः। सर्वतः संदहेत् ॥
विषय
ब्रह्मद्विट् पुरुषों का निरोध
पदार्थ
१. हे (मरुत:) = प्राणो! (य:) = जो काम-क्रोधादि (न:) = हमारा शत्रु अतीव (मन्यते) = अपने को बहुत ही प्रबल मानता है और हमपर आक्रमण करता है (वा) = तथा (यः) = जो (ब्रह्म) = मन्त्रों द्वारा (क्रियमाणम्) = की जाती हुई स्तुतियों को (निन्दिषत) = निन्दित करता है, (तस्मै) = उसके लिए (तंपुषी) = तप व तापक अस्त्र (वृजिनानि) = बाधक हों। तप के द्वारा काम आदि शत्रुओं को हम दूर कर पाएँ और राजा तापक अस्त्रों द्वारा स्तुति आदि कार्यों की निन्दा व विघात करनेवालों को राष्ट्र में से दूर करे। २. (ब्रह्मद्विषम्) = ज्ञान व प्रभुस्तवन में प्रीति न रखनेवाले को (द्यौः) = ज्ञान का प्रकाश (अभिसन्तपति) = पीड़ित करता है। जैसे उल्लू के लिए सूर्य का प्रकाश सुख देनेवाला नहीं होता, इसीप्रकार ब्रह्मद्विट के लिए ज्ञान का प्रकाश सुखद नहीं होता। ये ब्रह्माहिट लोग ब्रह्म-प्राप्ति में तत्पर अन्य लोगों को भी निरुत्साहित करने का प्रयत्न करते हैं। राजा को चाहिए कि इन लोगों को दण्डित करे । उचित दण्ड के द्वारा इन्हें ज्ञान व स्तुति की निन्दा के कार्य से रोके। इसीप्रकार तप हमारे जीवन पर आक्रमण करनेवाले काम आदि शत्रुओं को रोकनेवाला हो।
भावार्थ
तप काम-क्रोधादि को रोके और राजा के तापक अस्त्र ब्रह्मविद लोगों को नियंत्रित करनेवाले हों।
भाषार्थ
(मरुतः) हे मनुष्यो ! अथवा हे ऋत्विजो ! (यः) जो (न:) हमें (अति इव) अतिक्रान्त हुए के सदृश (मन्यते) अपने को मानता है, (वा) या (न) हमारे (क्रियमाणम् ब्रह्म) किये जानेवाले वैदिक कर्म को (निन्दिषत्) निन्दा करता है। (तस्मै) उसके लिये (तपूंषि) ताप-सन्ताप (वृजिनानि) इस निन्दा कार्य से वर्जित करनेवाले (सन्तु) हों, (ब्रह्मद्विषम्) ब्रह्मद्वेषी को (द्यो:) द्यौ (अभिसंतपाति) साक्षात् संतप्त करे।
टिप्पणी
[मरुतः= म्रियते इति मनुष्यजाति: (उणा० १।९४; दयानन्द)। मरुतः ऋत्विङ्नाम (निघं० ३।१८)। (क्रियमाणम् ब्रह्म) "किये जानेवाले मन्त्रसाध्य कर्म को" (सायण)। निन्दिषत् =सिप्; सिब् बहुलं लेटि (सायण)। ऐसे व्यक्ति को द्युलोक स्वयम् संसप्त करे। संतपाति= लेट् लकार, आडागम।]
विषय
तपस्या की साधना
भावार्थ
हे ( मरुतः ) विद्वान्गण ! वायुओं के समान राष्ट्र में बल धारण करने हारे देवगण, नेता पुरुषो ! ( यः ) जो अपने को (अतीव) बहुत अधिक ( मन्यते ) मानता है अर्थात् अभिमानी या अहंकारी है और ( यः वा ) जो (नः) हमारे (क्रियमाणं) किये गये ( ब्रह्म ) वेदानुकूल ज्ञान, ब्रह्मचर्य और ब्रह्मज्ञान धन आदि को (निन्दिषत्) निन्दा करता है, हमारे (तपूंषि) तप या तपाने हारे आयुध (तस्मै) उसके ( वृजिनानि ) वर्जन करने हारे ( सन्तु ) हों। ( ब्रह्मद्विषं ) वेद और वेदज्ञों का द्वेष करने हारे पुरुष को यह ( द्यौः ) सूर्य के समान प्रकाश भी (अभि सं तपाति) पीड़ित करता है । अथवा (तस्मै वृजिनामि तपूंषि सन्तु) उसके त्याज्य, निन्दनीय पापकर्म ही उसको सन्तापकारी हों, बल्कि (ब्रह्मद्विषं द्यौः अभि संतपाति) वेदज्ञान के शत्रु को तो सूर्य और सूर्य के समान ज्ञान और ज्ञानी पुरुष भी पीड़ा देता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजप्रव्रस्कं सूक्तम्। भरद्वाज ऋषिः। नाना देवताः। प्रथमया द्यावापृथिव्योः उरूगा यस्यान्तरिक्षस्य च स्तुतिः। द्वितीयया देवस्तुतिः। तृतीयया इन्द्रस्तुतिः। चतुर्थ्या आदित्यवस्वंगिरः पितॄणाम् सौम्यानां। पञ्चम्या, ब्रह्मविराट्तमोऽघ्न्यानां, पष्ठ्या मरुताम् सप्तम्या यमसदनात् ब्रह्मस्तुतिः। अष्टम्या अग्निस्तुतिः। २ जगती । १, ३-६ त्रिष्टुभः । ७, ८ अनुष्टुभौ। अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Self Protection and Development
Meaning
O Maruts, vibrant winds and dynamic leaders of humanity, whoever, too proud, despises us or whoever despises our Vedic learning or holy works in progress, let his crooked works and ways and words be his own self-torment. The lord of refulgent omniscience subjects the negationst of divinity and divine knowledge to the crucibles of self-punishment.
Subject
Maruta
Translation
O vital breaths, whosoever arrógates himself too muçh, and who reviles us or reviles our prayer that we make for him, may his mis-deeds be hot and scorching. May heaven turn its fury on the person-who hates the virtuous.
Translation
O' ye priest of Yajna; the evils done be tormenting to whoever in his arrogance scorn us and whoever blames the performance of righteousness. God of refulgence and knowledge Himself award dire punishment to him who is the enemy of reason and righteousness.
Translation
Whoever assumes the airs of superiority and scorns us, or blames the vedic knowledge on which we act; let his own wicked deeds be fires to burn him, let God consume the man who is the enemy of knowledge.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६–अतीव। अतिरतिक्रमणे च। पा० १।४।९५। इव अवधारणे, प्रादिसमासः। अत्येव। अतिशयेन अतिक्रम्य तिरस्कृत्य। यः। विरोधी जनः। मरुतः। अ० १।२०।१। मृङ् प्राणत्यागे अन्तर्भावितण्यर्थः–इति। हे शत्रुनाशकाः। शूराः। मन्यते। मन गर्वे चुरादिः, छन्दसि दिवादिः। मानयते। गर्वयते। नः। अस्मान्। ब्रह्म। अ० १।८।४। वेदविज्ञानम्। धनम्। निन्दिषत्। णिदि कुत्सायाम्, इदित्त्वान्नुम्। लेटोऽडाटौ। पा० ३।४।९४। इत्यडागमः। सिब् बहुलं लेटि। ३।१।३४। इति सिप्। निन्देत्। दूषयेत्। क्रियमाणम्। कृञ् करणे–कर्मणि शानच्, मुक् च। अनुष्ठीयमानम्। विधीयमानम्। तपूंषि। अर्त्तिपॄवपियजितनिधनितपिभ्यो नित्। उ० २।११६। इति तप दाहे–उसि, नित्त्वाद् आद्युदात्तः। तापकानि तेजांसि आयुधानि वा–इति सायणः। वृजिनानि। वृजेः किच्च। उ० २।४७। इति वृजी वर्जने–इनच्। धर्मवर्जकानि पापकर्माणि। ब्रह्मद्विषम्। ब्रह्म+द्विष अप्रीतौ–क्विप्। वेदविरोधिनम्। द्यौः। गमेर्डोः। उ० २।६७। इति द्युत दीप्तौ–डो। गोतो णित्। पा० ७।१।९०। इति वृद्धिः। द्योतमानः परमेश्वरः। अभि–सम्–तपाति। तप दाहे–लेट्। आडागमः। सर्वतः संदहेत् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(মরুতঃ) হে মনুষ্যগণ!, অথবা হে ঋত্বিজগণ ! (যঃ) যে (নঃ) আমাদের থেকে (অতি ইব) অতিক্রান্ত-এর সদৃশ (মন্যতে) নিজেকে মনে করে, (বা) অথবা (নঃ) আমাদের (ক্রিয়মাণম্ ব্রহ্ম) ক্রিয়মাণ বৈদিক কর্মের (নিন্দিষৎ) নিন্দা করে। (তস্মৈ) তাঁর জন্য (তপূংষি) তাপ-সন্তাপ (বৃজিনানি) এই নিন্দা কার্যের থেকে বর্জিতকারী (সন্তু) হোক, (ব্রহ্মদ্বিষম্) ব্রহ্মদ্বেষীকে (দ্যৌঃ) দ্যৌ (অভিসংতপাতি) সাক্ষাৎ সন্তপ্ত করে/করুক।
टिप्पणी
[মরুতঃ=ম্রিয়তে ইতি মনুষ্যজাতিঃ (উণা০ ১।৯৪; দয়ানন্দ)। মরুতঃ ঋত্বিঙ্নাম (নিঘং০ ৩।১৮)। (ক্রিয়মাণম্ ব্রহ্ম) "ক্রিয়মাণ মন্ত্রসাধ্য কর্মকে" (সায়ণ)। নিন্দিষৎ = সিপ্; সিব্ বহুলং লেটি (সায়ণ)। এমন ব্যক্তিকে দ্যুলোক স্বয়ম্ সন্তপ্ত করে/করুক। সন্তপাতি=লেট্ লকার, আডাগম।]
मन्त्र विषय
সর্বরক্ষোপদেশঃ
भाषार्थ
(মরুতঃ) হে শত্রুদের বিনাশক বীরগণ ! (যঃ) যে [দুষ্ট পুরুষ] (নঃ) আমাদের প্রতি (অতীব=অতীত্য এব) হাত বাড়িয়ে (মন্যতে=মানয়তে) অবমাননা করে, (বা) অথবা (যঃ) যে (ক্রিয়মাণম্) উপযুক্ত কৃত (ব্রহ্ম) [আমাদের] বেদবিজ্ঞান বা ধন-সম্পদের (নিন্দিষেৎ) নিন্দা করে। (বৃজিনানি) [তাঁর] পাপ কর্ম (তস্মৈ) তাঁর জন্য (তপূংষি) সন্তাপকারী (সন্তু) হোক। (দ্যৌঃ) দীপ্যমান পরমেশ্বর (ব্রহ্মদ্বিষম্) বেদবিরোধীদের (অভিসংতপাতি) সব প্রকারে সন্তাপ প্রদান করুক ॥৬॥
भावार्थ
যে মনুষ্য বেদের সর্বোপকারী আজ্ঞার উল্লঙ্ঘন করে, তাঁকে বীর পুরুষ উপযুক্ত শাস্তি প্রদান করুক, সেই দুরাচারী পরমেশ্বরের ন্যায়ব্যবস্থা দ্বারাও কষ্ট ভোগ করে ॥৬॥ এই মন্ত্র কিছুটা আলাদাভাবে ঋগ্বেদ ৬।৫২।২ আছে ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal