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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 135/ मन्त्र 10
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
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    देवा॑ दद॒त्वासु॑रं॒ तद्वो॑ अस्तु॒ सुचे॑तनम्। युष्माँ॑ अस्तु॒ दिवे॑दिवे प्र॒त्येव॑ गृभायत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    देवा॑: । दद॒तु । आसु॑र॒म् । तत् । व॑: । अस्तु॒ । सुचे॑तनम् ॥ युष्मा॑न् । अस्तु॒ । दिवे॑दिवे । प्र॒ति । एव॑ । गृभायत ॥१३५.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवा ददत्वासुरं तद्वो अस्तु सुचेतनम्। युष्माँ अस्तु दिवेदिवे प्रत्येव गृभायत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवा: । ददतु । आसुरम् । तत् । व: । अस्तु । सुचेतनम् ॥ युष्मान् । अस्तु । दिवेदिवे । प्रति । एव । गृभायत ॥१३५.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्यो !] (देवाः) विद्वान् लोग (आसुरम्) बुद्धिमत्ता (ददतु) देवें, (तत्) वह (वः) तुम्हारे लिये (सुचेतनम्) सुन्दर ज्ञान (अस्तु) होवे। (युष्मान्) तुमको वह (दिवेदिवे) दिन-दिन (अस्तु) होवे, [उस को] (प्रति) प्रत्यक्ष रूप से (एव) ही (गृभायत) तुम ग्रहण करो ॥१०॥

    भावार्थ

    सब मनुष्य विद्वानों से शिक्षा लेकर सदा आनन्द पावें ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(देवाः) विद्वांसः (ददतु) प्रयच्छन्तु (आसुरम्) असुर-अण् भावे। असुरत्वं प्रज्ञावत्त्वं ज्ञानवत्त्वं वापि वासुरिति प्रज्ञानामास्यत्यनर्थानस्ताश्चास्यामर्थाः-निरु० १०।३४। बुद्धिमत्त्वम् (तत्) आसुरम् (वः) युष्मभ्यम् (अस्तु) (सुचेतनम्) प्रशस्तं ज्ञानम् (युष्मान्) युष्मभ्यम् (अस्तु) (दिवेदिवे) दिने-दिने (प्रति) प्रत्यक्षेण (एव) निश्चयेन (गृभायत) अ० ८।४।१८। गृह्णीत ॥

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    विषय

    आसुरं+सुचेतनम्

    पदार्थ

    १. 'मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव' इन उपनिषद् वाक्यों के अनुसार माता, पिता व आचार्य' देव हैं। ये (देवा:) = माता, पिता व आचार्यरूप देव (आसुरम्) = [Divine, spiritual]-दिव्य बल (ददतु)-दें। ये तुम्हारे लिए दिव्य बल को प्राप्त करानेवाले हों। (तत्) = वह दिव्य बल (व:) = तुम्हारे लिए (सुचेतनम् अस्तु) = उत्तम चेतना व ज्ञान देनेवाला हो। २. यह उत्तम चेतना का साधनभूत दिव्य बल (दिवेदिवे) = दिन-प्रति-दिन (युष्मान् अस्तु) = तुम्हें प्रास हो, तुम प्रतिगृभायत (एव) = इसे प्रतिदिन ग्रहण करो ही।

    भावार्थ

    हम उत्तम माता, पिता व आचार्य को प्राप्त करके दिव्य बल व ज्ञान को प्राप्त करें। यह दिव्य बल व ज्ञान हमें सदा प्राप्त हो।

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    भाषार्थ

    (देवाः) अध्यात्मगुरुदेव (आसुरम्) प्राणविद्या-सम्बन्धी तथा योगज प्रज्ञा-सम्बन्धी प्रशिक्षण (ददतु) देवें, (तद्) वह प्रशिक्षण, हे शिष्यो! (वः) तुम्हें योगमार्ग में (सुचेतनम्) सुचेत करनेवाला (अस्तु) हो। वह प्रशिक्षण (दिवे-दिवे) दिन-दिन अर्थात् प्रतिदिन (युष्मान्) तुम्हें (अस्तु) मिलता रहे। (प्रति गृभायत एव) उस प्रशिक्षण का ग्रहण तुम अवश्य करते रहो।

    टिप्पणी

    [आसुरम्=असु=(प्राण); असु=(प्रज्ञा; निघं০ ३.९)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    O teachers and pupils, may the divinities of nature and brilliant sages and scholars give you that inspiring knowledge of life and pranic energy. May that knowledge be your enlightenment for advancement of mind and soul. May it be yours, higher and greater day by day, and may you continue to receive and advance it in response.

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    Translation

    O men, let the learned men give you the vitality concerned with vital breaths, let there be active consciousness you grasp it and may it be useful for you every day.

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    Translation

    O men, let the learned men give you the vitality concerned with vital breaths, let there be active consciousness you grasp it and may it be useful for you every day.

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    Translation

    Let the generous-minded persons give away gifts, worthy of acceptance by the learned people. That wealth may enhance your learning and knowledge. Let it be so daily. Let you accept it, O learned persons.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(देवाः) विद्वांसः (ददतु) प्रयच्छन्तु (आसुरम्) असुर-अण् भावे। असुरत्वं प्रज्ञावत्त्वं ज्ञानवत्त्वं वापि वासुरिति प्रज्ञानामास्यत्यनर्थानस्ताश्चास्यामर्थाः-निरु० १०।३४। बुद्धिमत्त्वम् (तत्) आसुरम् (वः) युष्मभ्यम् (अस्तु) (सुचेतनम्) प्रशस्तं ज्ञानम् (युष्मान्) युष्मभ्यम् (अस्तु) (दिवेदिवे) दिने-दिने (प्रति) प्रत्यक्षेण (एव) निश्चयेन (गृभायत) अ० ८।४।१८। गृह्णीत ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে মনুষ্য!] (দেবাঃ) বিদ্বান ব্যক্তি (আসুরম্) বুদ্ধিমত্তা (দদতু) দান করুক, (তৎ) তা (বঃ) তোমার জন্য (সুচেতনম্) সুন্দর জ্ঞান (অস্তু) হোক। (যুষ্মান্) তা তোমার (দিবেদিবে) দিন-দিন (অস্তু) প্রাপ্ত হোক, [তা] (প্রতি) প্রত্যক্ষ রূপে (এব) কেবল (গৃভায়ত) তুমি গ্রহণ করো ॥১০॥

    भावार्थ

    সকল মনুষ্য বিদ্বানদের থেকে শিক্ষা নিয়ে সর্বদা আনন্দ লাভ করুক ॥১০॥

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    भाषार्थ

    (দেবাঃ) অধ্যাত্মগুরুদেব (আসুরম্) প্রাণবিদ্যা-সম্বন্ধী তথা যোগজ প্রজ্ঞা-সম্বন্ধী প্রশিক্ষণ (দদতু) প্রদান করুক, (তদ্) সেই প্রশিক্ষণ, হে শিষ্যগণ! (বঃ) তোমাদের যোগমার্গে (সুচেতনম্) সুচেতনকারী/চেতনযুক্তকারী (অস্তু) হোক। সেই প্রশিক্ষণ (দিবে-দিবে) দিন-দিন অর্থাৎ প্রতিদিন (যুষ্মান্) তোমাদের (অস্তু) প্রাপ্ত হোক। (প্রতি গৃভায়ত এব) সেই প্রশিক্ষণের গ্রহণ তোমরা অবশ্যই করতে থাকো।

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