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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 135/ मन्त्र 8
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - भुरिग्गायत्री सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
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    उ॒त श्वेत॒ आशु॑पत्वा उ॒तो पद्या॑भि॒र्यवि॑ष्ठः। उ॒तेमाशु॒ मानं॑ पिपर्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । श्वेत॒: । आशु॑पत्वा: । उ॒तो । पद्या॑भि॒: । वसि॑ष्ठ: ॥ उ॒त । ईम् । आशु॒ । मान॑म् । पिपर्ति ॥१३५.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत श्वेत आशुपत्वा उतो पद्याभिर्यविष्ठः। उतेमाशु मानं पिपर्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । श्वेत: । आशुपत्वा: । उतो । पद्याभि: । वसिष्ठ: ॥ उत । ईम् । आशु । मानम् । पिपर्ति ॥१३५.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (आशुपत्वाः) हे शीघ्रगामी पुरुषो ! (श्वेतः) श्वेत वर्णवाला [सूर्य] (उत) भी (यविष्ठः) अत्यन्त बलवान् होकर (पद्याभिः) चलने योग्य गतियों से (उतो) निश्चय करके (उत) अवश्य (ईम्) प्राप्तियोग्य (मानम्) परिमाण को (आशु) शीघ्र (पिपर्ति) पूरा करता है ॥८॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य अपने मार्ग में चलकर संसार का उपकार करता है, वैसे ही मनुष्य वेदमार्ग पर चलकर शीघ्र उपकार करें ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(उत) अपि (श्वेतः) शुक्लवर्णः सूर्यः (आशुपत्वाः) अशूप्रुषिलटि०। उ० १।११। आशु+पत गतौ−क्वन्। हे शीघ्रगामिनः (उतो) निश्चयेन (पद्याभिः) पाद−यत्। पद्यत्यतदर्थे। पा० ६।३।३। इति पद्भावः। पादाय गमनाय हिताभिर्गतिभिः (यविष्ठः) अथ० १८।४।६१। युवन्−इष्ठन्। अतिशयेन बलवान् सन् (उत) अवश्यम् (ईम्) प्राप्तव्यम् (आशु) शीघ्रम् (मानम्) परिमाणम् (पिपर्ति) पूरयति ॥

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    विषय

    उत्तम जीवन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार 'दान, स्वाध्याय व यज्ञ' को अपनानेवाला व्यक्ति (उत) = निश्चय से (श्वेत:) = शुद्ध चरित्रवाला होता है-इसके जीवन से वासनारूप मल विनष्ट हो जाता है। यह (आशुपत्वा:) = शीघ्रगामी होता है-अपने कर्तव्यकर्मों को स्फूर्ति के साथ करनेवाला होता है। (उत उ) = और निश्चय से यह पद्याभिः कर्त्तव्यकर्मों में गतियों के द्वारा [पद् गतौ] (यविष्ठः) = बुराइयों को दूर करनेवाला व अच्छाइयों को अपने से मिलानेवाला होता है [यु मिश्रणामिश्रणयोः] २. (उत) = और (ईम्) = निश्चय से यह साधक (आशु) = शीघ्र ही (मानं पिपर्ति) = मान का पालन करता है। यह मर्यादा ही इसके जीवन को सुन्दर बनाती है।

    भावार्थ

    हमारा जीवन शुद्ध हो, हम शीघ्र गतिवाले हों, क्रियाशीलता द्वारा जीवन को बुराइयों से बचाए रक्खें। मर्यादा का हम कभी उल्लंघन न करें।

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    भाषार्थ

    (उत) तथा (श्वेतः) शुभ कर्मोंवाला और शुभ्र सात्विक वृत्तियोंवाला उपासक, (आशुपत्वा) शीघ्र योगमार्ग पर गति करता है, शीघ्र उन्नति करता है, (उत उ) और (पद्याभिः) पद्यमयी-ऋचाओं द्वारा, उनके श्रवण-मनन द्वारा (यविष्ठः) योगमार्ग में अति वेग प्राप्त कर लेता है। (उत) और (आशु) शीघ्र (ईम् मानम्) योगी होने के इस मान को, सत्कार को (पिपर्ति) पा लेता है।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    By the light of the day and by joint yajnic study, the spotless most youthful scholar of clear intelligence moving at flying speed, stage by stage of Vedic studies, achieves the desired distinction and progress at the earliest.

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    Translation

    O men, swift in action and understanding, the luminous and mighty sun with its courses and is alias attains place under its purview swiftly.

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    Translation

    O men, swift in action and understanding, the luminous and mighty sun with its courses and operations attains place under its purview swiftly.

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    Translation

    And this upright, brilliant learned person is expert in going .about his business quickly, speedy in his movements, and is readily satisfied by honor and respect, shown to him.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(उत) अपि (श्वेतः) शुक्लवर्णः सूर्यः (आशुपत्वाः) अशूप्रुषिलटि०। उ० १।११। आशु+पत गतौ−क्वन्। हे शीघ्रगामिनः (उतो) निश्चयेन (पद्याभिः) पाद−यत्। पद्यत्यतदर्थे। पा० ६।३।३। इति पद्भावः। पादाय गमनाय हिताभिर्गतिभिः (यविष्ठः) अथ० १८।४।६१। युवन्−इष्ठन्। अतिशयेन बलवान् सन् (उत) अवश्यम् (ईम्) प्राप्तव्यम् (आशु) शीघ्रम् (मानम्) परिमाणम् (पिपर्ति) पूरयति ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (আশুপত্বাঃ) হে শীঘ্রগামী পুরুষগণ! (শ্বেতঃ) শ্বেত বর্ণযুক্ত [সূর্য] (উত)(যবিষ্ঠঃ) অত্যন্ত বলবান হয়ে (পদ্যাভিঃ) চলার যোগ্য গতি দ্বারা (উতো) নিশ্চিতভাবে (উত) অবশ্য (ঈম্) প্রাপ্তিযোগ্য (মানম্) পরিমাণ (আশু) শীঘ্র (পিপর্তি) পূর্ণ করে॥৮॥

    भावार्थ

    যেভাবে সূর্য নিজের পথে চলে সংসারের/জগতের উপকার করে, তেমনই মনুষ্য বেদমার্গে চলে শীঘ্র উপকার করুক ॥৮॥

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    भाषार्थ

    (উত) তথা (শ্বেতঃ) শুভ কর্মসম্পন্ন এবং শুভ্র সাত্ত্বিক বৃত্তিসম্পন্ন উপাসক, (আশুপত্বা) শীঘ্র যোগমার্গে প্রগতি করে, শীঘ্র উন্নতি করে, (উত উ) এবং (পদ্যাভিঃ) পদ্যময়ী-ঋচা-সমূহ দ্বারা, সেগুলোর শ্রবণ-মনন দ্বারা (যবিষ্ঠঃ) যোগমার্গে অতি বেগ প্রাপ্ত করে নেয়। (উত) এবং (আশু) শীঘ্র (ঈম্ মানম্) যোগী হওয়ার এই মান, সৎকার (পিপর্তি) প্রাপ্ত করে।

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