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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शुनःशेपः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२६
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    अनु॑ प्र॒त्नस्यौक॑सो हु॒वे तु॑विप्र॒तिं नर॑म्। यं ते॒ पूर्वं॑ पि॒ता हु॒वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । प्र॒त्नस्य॑ । ओक॑स: । हु॒वे । तु॒वि॒ऽप्र॒तिम् । नर॑म् ॥ यम् । ते॒ । पूर्व॑म् । पि॒ता । हु॒वे ॥२६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु प्रत्नस्यौकसो हुवे तुविप्रतिं नरम्। यं ते पूर्वं पिता हुवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । प्रत्नस्य । ओकस: । हुवे । तुविऽप्रतिम् । नरम् ॥ यम् । ते । पूर्वम् । पिता । हुवे ॥२६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 26; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    १-३ सेनाध्यक्ष के लक्षण का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (प्रत्नस्य) पुराने (ओकसः) घर के [उत्पन्न हुए] (तुविप्रतिम्) बहुत पदार्थों के प्रत्यक्ष पहुँचानेवाले (नरम्) पुरुष को (अनु हुवे) मैं पुकारता हूँ, (यम्) जिस [पुरुष] को (पूर्वम्) पहिले काल में (ते) तेरा (पिता) पिता (हुए) बुलाता था ॥३॥

    भावार्थ

    जो कोई प्रतिष्ठित घराने का पुरुष अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाकर उपकार करे, उसको लोग आदर करके बुलावें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अनु) निरन्तरम् (प्रत्नस्य) अ० २०।२४।९। प्राचीनस्य (ओकसः) गृहस्य (हुवे) ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च-लटि छान्दसं रूपम्। अहं ह्वये। आह्वयामि (तुविप्रतिम्) विनाऽपि प्रत्ययेन पूर्वोत्तरपदयोर्विभाषा लोपो वक्तव्यः। वा० पा० ।३।८३। इति गमयितृशब्दस्य लोपः। तुवीनां बहूनां पदार्थानां प्रतिगमयितारं प्रत्यक्षेण प्रापकम् (नरम्) नेतारम् (यम्) सभाध्यक्षम् (ते) तव (पूर्वम्) पूर्वकाले (पिता) जनकः (हुवे) ह्वेञ्-लिटि छान्दसं रूपम्। जुहुवे। आहूतवान् ॥

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    विषय

    प्रत्न ओकस् [सनातन गृह]

    पदार्थ

    १. प्रत्नस्य (ओकसः अनु) = उस सनातन घर का-ब्रह्मलोकरूप अपने मूल गृह का लक्ष्य करके (तुविप्रतिम्) = शक्तिशालियों के [तुवि-Strong] प्रतिनिधिभूत (नरम्) = उन्नति-पथ पर ले चलनेवाले प्रभु को (हुवे) = पुकारता हूँ। प्रभु की आराधना से ही मैं शत्रुओं पर विजय पाता हुआ ब्रह्मलोकरूप गृह को प्राप्त करूँगा। २. (यं ते) = [त्वाम्] जिन आपको (पूर्वम्) = पहले पिता-मेरे पिता (हुवे) = पुकारते थे। एक घर में पिता को प्रभु की आराधना करते हुए देखकर सन्तानों में भी प्रभु की आराधना की वृत्ति उत्पन्न होती है।

    भावार्थ

    हम ब्रह्मलोकरूप अपने सनातन गृह को प्राप्त करने के उद्देश्य से प्रभु को पकारें जैसे हमारे पिता पुकारते थे। प्रभु हमें शक्ति देंगे और हम शत्रुओं से न रोके जाकर आगे बढ़ते हुए लक्ष्यस्थान पर पहुँच पाएंगे।

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    भाषार्थ

    (तुविप्रतिम्) सब शक्तियों के प्रतिनिधिरूप, तथा (नरम्) जगत् के नेता परमेश्वर को (प्रत्नस्य) पुराकाल से माने हुए (ओकसः) हृदय-गृह से (अनु) निरन्तर अर्थात् सदा, हे पुत्र! मैं तेरा पिता, (हुवे) तेरी सहायता के लिए बुलाता हूँ। (यम्) जिस परमेश्वर का कि (ते पिता) तेरे पिता मैंने (पूर्वम्) पहले अपने जीवन में (हुवे) आह्वान कर लिया है, प्रत्यक्ष कर लिया है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में पिता अपने पुत्र को आश्वासन देता है कि तू जिस योगमार्ग पर आरूढ़ हुआ है, तेरी सफलता के लिए मैं परमेश्वर की सहायता की प्रार्थना करता हूँ। निश्चय जान कि तुझे परमेश्वर की सहायता मिलेगी। क्योंकि मैंने अपने जीवन में इसका अनुभव कर लिया है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    I invoke and call upon the Primeval Man, eternal father, who creates this multitudinous existence from the eternal womb of nature, the same whom our original forefathers invoked and worshipped.

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    Translation

    O ruler, I call you who is the leader of our ancient place and is able to encounter enemies and whom my father has called before.

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    Translation

    O ruler, I call you who is the leader of our ancient place and is able to encounter enemies and whom my father has called before.

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    Translation

    I call the leader of the old country, capable of facing the enemy, just as my father has been calling him before this.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अनु) निरन्तरम् (प्रत्नस्य) अ० २०।२४।९। प्राचीनस्य (ओकसः) गृहस्य (हुवे) ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च-लटि छान्दसं रूपम्। अहं ह्वये। आह्वयामि (तुविप्रतिम्) विनाऽपि प्रत्ययेन पूर्वोत्तरपदयोर्विभाषा लोपो वक्तव्यः। वा० पा० ।३।८३। इति गमयितृशब्दस्य लोपः। तुवीनां बहूनां पदार्थानां प्रतिगमयितारं प्रत्यक्षेण प्रापकम् (नरम्) नेतारम् (यम्) सभाध्यक्षम् (ते) तव (पूर्वम्) पूर्वकाले (पिता) जनकः (हुवे) ह्वेञ्-लिटि छान्दसं रूपम्। जुहुवे। आहूतवान् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ১-৩ সেনাধ্যক্ষলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে মনুষ্য!] (প্রত্নস্য) প্রাচীন (ওকসঃ) ঘরের [উৎপন্ন] (তুবি প্রতিম্) বহু পদার্থসমূহ প্রত্যক্ষরূপে প্রেরণকারী/প্রদানকারী/দাতা সেই (নরম্) পুরুষকে (অনু হুবে) আমি আহ্বান করি, (যম্) যে [পুরুষ] কে (পূর্বম্) পূর্বকালে (তে) তোমার (পিতা) পিতা (হুএ) আহ্বান করতেন॥৩॥

    भावार्थ

    যে কোনো প্রতিষ্ঠিত ঘরের পুরুষ নিজের প্রতিষ্ঠা বৃদ্ধি করে উপকার করে, তাঁকে লোক সমাদর করে আহ্বান করে॥৩॥

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    भाषार्थ

    (তুবিপ্রতিম্) সকল শক্তির প্রতিনিধিরূপ, তথা (নরম্) জগতের নেতা পরমেশ্বরকে (প্রত্নস্য) পুরাকাল থেকে মান্য (ওকসঃ) হৃদয়-গৃহ থেকে (অনু) নিরন্তর অর্থাৎ সদা, হে পুত্র! আমি তোমার পিতা, (হুবে) তোমার সহায়তার জন্য আহ্বান করি। (যম্) যে পরমেশ্বরকে (তে পিতা) তোমার পিতা আমি (পূর্বম্) প্রথমে নিজের জীবনে (হুবে) আহ্বান করেছি, প্রত্যক্ষ করেছি।

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