अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 4
यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जन्ति॑ । ब्र॒ध्नम् । अ॒रु॒षम् । चर॑न्तम् । परि॑ । त॒स्थुष॑: । रोच॑न्ते । रो॒च॒ना । दि॒वि ॥२६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि ॥
स्वर रहित पद पाठयुञ्जन्ति । ब्रध्नम् । अरुषम् । चरन्तम् । परि । तस्थुष: । रोचन्ते । रोचना । दिवि ॥२६.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
४-६ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(तस्थुषः) मनुष्यादि प्राणियों और लोकों में (परि) सब ओर से (चरन्तम्) व्यापे हुए, (ब्रध्नम्) महान् (अरुषम्) हिंसारहित [परमात्मा] को (रोचना) प्रकाशमान पदार्थ (दिवि) व्यवहार के बीच (युञ्जन्ति) ध्यान में रखते और (रोचन्ते) प्रकाशित होते हैं ॥४॥
भावार्थ
परमाणुओं से लेकर सूर्य आदि लोक और सब प्राणी सर्वव्यापक, सर्वनियन्ता परमात्मा की आज्ञा को मानते हैं, उसीकी उपासना से मनुष्य पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके आत्मा की उन्नति करें ॥४॥
टिप्पणी
मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में है-१।६।१-३, सामवेद में-उ० ६।३। तृच १४ और आगे हैं-अ० २०।४७।१०-१२ तथा ६९।९-११। मन्त्र ४, यजुर्वेद में है-२३।, ६ और मन्त्र ४ महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका उपासनाविषय में व्याख्यात है ॥ ४−(युञ्जन्ति) युज समाधौ। ध्यायन्ति (ब्रध्नम्) अ० ७।२२।२। महान्तम्-निघ० ३।३। (अरुषम्) रुष हिंसायाम्-अप्रत्ययः। अहिंसकम् (चरन्तम्) व्याप्नुवन्तम् (परि) सर्वतः (तस्थुषः) तिष्ठतेः क्वसुः शसि रूपम्। तस्थुष इति मनुष्यनाम-निघ० २।३। मनुष्यादिप्राणिनो लोकांश्च (रोचन्ते) प्रकाशन्ते (रोचना) रुच दीप्तावभिप्रीतौ च-युच्, शेर्लोपः। रोचनानि। प्रकाशमानानि वस्तूनि (दिवि) व्यवहारे ॥
विषय
गृह प्राप्त्यर्थ क्या करें?
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार उस ब्रह्मलोक में पहुँचने की कामनावाले लोग (ब्रध्नम्) = [असौ वा आदित्यो बध्नः। -तैबा० ३.९.४.१.२] आदित्य को (युञ्जन्ति) = अपने साथ जोड़ते हैं, आदित्य की भाँति अपने को प्रकाशमय बनाने का प्रयत्न करते हैं। (अरुषम) = [अग्निर्वा अरुषः] अग्नि को अपने साथ जोड़ते हैं, अर्थात् अग्नि ही बनने का प्रयत्न करते हैं-निरन्तर आगे बढ़ने के लिए यत्नशील होते हैं। (चरन्तम्) = [वायुर्वे चरन्]-वायु को अपने साथ जोड़ते हैं-वायु की भाँति निरन्तर गतिशील होते हैं। (परितस्थुषः) [इमे वै लोका: परितस्थुषः] इन सब लोकों को अपने साथ जोड़ते हैं-विश्वबन्धुत्व की भावना को अपने अन्दर जगाते हैं। २. ऐसा करने पर दिवि (रोचना) = आकाश में चमकते हुए नक्षत्र [नक्षत्राणि वै (रोचना) = दिवि] (रोचन्ते) = इनके लिए रुचिकर होते हैं। ये उन नक्षत्रों में ही जन्म लेते हैं और अन्ततः ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं अथवा (दिवि) = अपने मस्तिष्करूप धुलोक में (रोचना) = विज्ञान के नक्षत्रों को ये (रोचन्ते) = [रोचयन्ति]-दीप्त करते हैं। ऐसा करके ही तो वे ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकेंगे।
भावार्थ
ब्रह्मलोक की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम सूर्य की भाँति अपने को दीप्स करें। अग्नि की भाँति अग्रणी बनें, वायु की भाँति क्रियाशील हों, विश्वबन्धु की भावना को धारण करें और अपने मस्तिष्करूप ह्युलोक को विज्ञान के नक्षत्रों से चमकाएँ।
भाषार्थ
(ब्रध्नम्) महान् (अरुषम्) रोष-क्रोध से रहित अर्थात् शान्तस्वरूप, (परिचरन्तम्) तथा सर्वगत परमेश्वर को, (तस्थुषः) ध्यानावस्थित योगिजन (युञ्जन्ति) योगविधि द्वारा अपने साथ युक्त कर लेते हैं। इसी परमेश्वर के प्रकाश से (दिवि) द्युलोक में (रोचना) चमकते नक्षत्र-तारागण (रोचन्ते) चमक रहे हैं। तथा इसी परमेश्वर की रुचिकर दीप्तियाँ मस्तिष्क में चमकने लगती हैं।
टिप्पणी
[ब्रध्न=महान् (निघं০ ३.३)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Self-integration
Meaning
Pious souls in meditation commune with the great and gracious lord of existence immanent in the steady universe and transcendent beyond. Brilliant are they with the lord of light and they shine in the heaven of bliss.
Translation
The people co-operate the great, brilliant king administering the subject and land concerned with his territory. Like stars shining in the sky they shine with splendour.
Translation
The people co-operate the great, brilliant king administering the subject and land concerned with his territory. Like stars shining in the sky they shine with splendor.
Translation
They (the divine forces) unite the moving, refulgent assemblage of beams of light all round the core, which is comparatively stationary, (in the formation of the Sun). Thus formed, the constellations shine in the heavens.
Footnote
The verse refers to the formation of the sun and constellations, shining in the heavens above.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में है-१।६।१-३, सामवेद में-उ० ६।३। तृच १४ और आगे हैं-अ० २०।४७।१०-१२ तथा ६९।९-११। मन्त्र ४, यजुर्वेद में है-२३।, ६ और मन्त्र ४ महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका उपासनाविषय में व्याख्यात है ॥ ४−(युञ्जन्ति) युज समाधौ। ध्यायन्ति (ब्रध्नम्) अ० ७।२२।२। महान्तम्-निघ० ३।३। (अरुषम्) रुष हिंसायाम्-अप्रत्ययः। अहिंसकम् (चरन्तम्) व्याप्नुवन्तम् (परि) सर्वतः (तस्थुषः) तिष्ठतेः क्वसुः शसि रूपम्। तस्थुष इति मनुष्यनाम-निघ० २।३। मनुष्यादिप्राणिनो लोकांश्च (रोचन्ते) प्रकाशन्ते (रोचना) रुच दीप्तावभिप्रीतौ च-युच्, शेर्लोपः। रोचनानि। प्रकाशमानानि वस्तूनि (दिवि) व्यवहारे ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
৪-৬ পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(তস্থুষঃ) মনুষ্যাদি প্রাণীদের মধ্যে এবং লোকসমূহে (পরি) সকল দিক হতে (চরন্তম্) ব্যাপ্ত, (ব্রধ্নম্) মহান (অরুষম্) হিংসারহিত [পরমাত্মাকে] (রোচনা) প্রকাশমান পদার্থ (দিবি) ব্যবহারের মধ্যে (যুঞ্জন্তি) স্মরণ রাখে এবং (রোচন্তে) প্রকাশিত হয় ॥৪॥
भावार्थ
পরমাণু থেকে শুরু করে সূর্যাদি লোক ও সকল প্রাণী সর্বব্যাপক, সর্বনিয়ন্তা পরমাত্মার আজ্ঞা মান্য করে, এবং পরমাত্মার উপাসনা দ্বারা মনুষ্যগণ পদার্থের জ্ঞান প্রাপ্ত করে আত্মার উন্নতি করে/করুক ॥৪॥ মন্ত্র ৪-৬ ঋগ্বেদে আছে-১।৬।১-৩, সামবেদে-উ০ ৬।৩। তৃচ ১৪ এবং আছে-অ০ ২০।৪৭।১০-১২ তথা ৬৯।৯-১১। মন্ত্র ৪, যজুর্বেদে আছে-২৩।, ৬ এবং মন্ত্র ৪ মহর্ষিদয়ানন্দকৃত ঋগ্বেদাদিভাষ্যভূমিকা উপাসনাবিষয়ে ব্যাখ্যাত রয়েছে ॥
भाषार्थ
(ব্রধ্নম্) মহান্ (অরুষম্) রোষ-ক্রোধ রহিত অর্থাৎ শান্তস্বরূপ, (পরিচরন্তম্) তথা সর্বগত পরমেশ্বরকে, (তস্থুষঃ) ধ্যানাবস্থিত যোগীগণ (যুঞ্জন্তি) যোগবিধি দ্বারা নিজের সাথে যুক্ত করে। এই পরমেশ্বরের প্রকাশ দ্বারা (দিবি) দ্যুলোকে (রোচনা) জাজ্বল্যমান নক্ষত্র-তারাগণ (রোচন্তে) চমকিত/প্রদীপ্ত হচ্ছে। তথা এই পরমেশ্বরের রুচিকর দীপ্তি মস্তিষ্কে প্রদীপ্ত হয়।
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