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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२६
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    यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑। शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ञ्जन्ति॑ । अ॒स्य॒ । काम्या॑ । ह॒री इति॑ । विऽप॑क्षसा । रथे॑ ॥ शोणा॑ । धृ॒ष्णू इति॑ । नृ॒ऽवाह॑सा ॥२६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णू नृवाहसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युञ्जन्ति । अस्य । काम्या । हरी इति । विऽपक्षसा । रथे ॥ शोणा । धृष्णू इति । नृऽवाहसा ॥२६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ४-६ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्य) इस [परमात्मा-म० ४] के (काम्या) चाहने योग्य, (विपक्षसा) विविध प्रकार ग्रहण करनेवाले, (शोणा) व्यापक, (धृष्णू) निर्भय, (नृवाहसा) नेताओं [दूसरों के चलानेवाले सूर्य आदि लोकों] के चलानेवाले (हरी) दोनों धारण आकर्षण गुणों को (रथे) रमणीय जगत् के बीच (युञ्जन्ति) वे [प्रकाशमान पदार्थ-म० ४] ध्यान में रखते हैं ॥॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा के धारण आकर्षण सामर्थ्य में सूर्य आदि पिण्ड ठहर कर अन्य लोकों और प्राणियों को चलाते हैं, मनुष्य उन सब पदार्थों से उपकार लेकर उस ईश्वर को धन्यवाद दें ॥॥

    टिप्पणी

    −(युञ्जन्ति) समाधौ कुर्वन्ति तानि रोचनानि-म० ४ (अस्य) परमेश्वरस्य-म० ४ (काम्या) कमु कान्तौ-ण्यत्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इत्यत्र सर्वत्र विभक्तेराकारः। कमनीयौ (हरी) हरणशीलौ धारणाकर्षणगुणौ (विपक्षसा) पक्ष परिग्रहे-असुन्। विविधग्रहणशीलौ (रथे) रमणीये जगति (शोणा) शोणृ वर्णगत्योः-घञ्। व्यापकौ। (धृष्णू) ञिधृषा प्रागल्भ्ये-क्नु। धर्षकौ। निर्भयौ (नृवाहसा) वहिहाधाञ्भ्यश्छन्दसि। उ० ४।२२१। वह प्रापणे-असुन् णित्। नॄणां नेतॄणां सूर्यादिलोकानां गमयितारौ ॥

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    विषय

    उत्तम इन्द्रियाश्व

    पदार्थ

    १. उपासक लोग (रथे) = अपने शरीर-रथ में (अस्य) = इस प्रभु से दिये गये [प्रभु के] (हरी) = इन्द्रियाश्वों को (युञ्जन्ति) = युक्त करते हैं। उन इन्द्रियाश्वों से युक्त करते हैं, जो काम्या चाहने योग्य व सुन्दर हैं। (विपक्षसा) = विशिष्टरूप से अपने-अपने कार्यों का परिग्रह करनेवाले हैं। २. इस उपासक के ये इन्द्रियाश्व (शोणा) = तेजस्विता से चमकनेवाले व गतिशील [शोणति togo, to move], (कृष्णू) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले व (नृवाहसा) = मनुष्यों को लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाले हैं।

    भावार्थ

    उपासक उन इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करता है, जो कमनीय, विशिष्टरूप से अपने कार्यों को करनेवाले, तेजस्वी-शत्रुधर्षक व उसे लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाले होते हैं।

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    भाषार्थ

    (काम्या=काम्यौ) योग-साधना के लिए चाही गई, (हरी) चित्त को विषयों से हर लेनेवाली, (विपक्षसा) सुषुम्णा-नाड़ी के अलग-अलग दो पार्श्वों में लगी हुईं, (शोणा) भूरे और पीले से रंगों वाली, (धृष्णू) मजबूत, (नृवाहसा) योगिजनों को उनके उद्देश्य तक पहुँचानेवाली इडा और पिङ्गला नाड़ियों को (अस्य) इस परमेश्वर के (रथे) रमणीय स्वरूप में (युञ्जन्ति) योगिजन योगविधि द्वारा युक्त अर्थात् सम्बद्ध करते हैं।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Self-integration

    Meaning

    Scholars of science dedicated to Indra study and meditate on the lord’s omnipotence of light, fire and wind, and harness the energy like two horses to a chariot, both beautiful, equal and complementary as positive¬ negative currents, fiery red, powerful and carriers of people.

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    Translation

    People yoke in this chariot of him thè two horses which are dear to him, bold, brownish-yellow, remaining on two sides and carrying the man on their backs.

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    Translation

    People yoke in this chariot of him the two horses which are dear to him, bold, brownish-yellow, remaining on two sides and carrying the man on their backs,

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    Translation

    The same divine forces unite in its chariot, two kinds of radiant, magnetic energies of topmost speed, working all around it, capable of overcoming all resistance and carrying the leading planets along with it in their orbits.

    Footnote

    It is the forces of attraction of the sun that are described in the verse.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    −(युञ्जन्ति) समाधौ कुर्वन्ति तानि रोचनानि-म० ४ (अस्य) परमेश्वरस्य-म० ४ (काम्या) कमु कान्तौ-ण्यत्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इत्यत्र सर्वत्र विभक्तेराकारः। कमनीयौ (हरी) हरणशीलौ धारणाकर्षणगुणौ (विपक्षसा) पक्ष परिग्रहे-असुन्। विविधग्रहणशीलौ (रथे) रमणीये जगति (शोणा) शोणृ वर्णगत्योः-घञ्। व्यापकौ। (धृष्णू) ञिधृषा प्रागल्भ्ये-क्नु। धर्षकौ। निर्भयौ (नृवाहसा) वहिहाधाञ्भ्यश्छन्दसि। उ० ४।२२१। वह प्रापणे-असुन् णित्। नॄणां नेतॄणां सूर्यादिलोकानां गमयितारौ ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ৪-৬ পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অস্য) এই [পরমাত্মার-ম০ ৪] (কাম্যা) কামনাযোগ্য, (বিপক্ষসা) বিবিধ প্রকার গ্রহণকারী, (শোণা) ব্যাপক, (ধৃষ্ণূ) নির্ভয়, (নৃবাহসা) নেতাগণ [সঞ্চালক সেই সূর্যাদি লোককে] চালনাকারী (হরী) দুই ধারণ আকর্ষণ গুণসমূহকে (রথে) রমণীয় জগতেরমধ্যে (যুঞ্জন্তি) সেই [প্রকাশমান পদার্থ-ম০৪] স্মরণে রাখে ॥৫॥

    भावार्थ

    যে পরমাত্মার ধারণ আকর্ষণ সামর্থ্যে সূর্যাদি স্থিত হয়ে অন্য লোকসমূহ এবং প্রাণীদের চালনা করে, মনুষ্য সেই সকল পদার্থসমূহ থেকে উপকার গ্রহণ করে সেই ঈশ্বরকে ধন্যবাদ প্রদান করে/করুক ॥৫॥

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    भाषार्थ

    (কাম্যা=কাম্যৌ) যোগ-সাধনার জন্য কাম্য, (হরী) চিত্তকে বিষয়-সমূহ থেকে হরণকারী, (বিপক্ষসা) সুষুম্ণা-নাড়ী থেকে আলাদা-আলাদা দুই পার্শ্বে স্থিত, (শোণা) বাদামি এবং হলুদ বর্ণবিশিষ্ট, (ধৃষ্ণূ) মজবুত, (নৃবাহসা) যোগীদের তাঁদের উদ্দেশ্য পর্যন্ত প্রেরণকারী ইডা এবং পিঙ্গলা নাড়িকে (অস্য) এই পরমেশ্বরের (রথে) রমণীয় স্বরূপের মধ্যে (যুঞ্জন্তি) যোগীরা যোগবিধি দ্বারা যুক্ত করে।

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