अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 69/ मन्त्र 10
यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑। शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जन्ति॑ । अ॒स्य॒ । काम्या॑ । हरी॒ इति॑ । विऽप॑क्षसा । रथे॑ । शोणा॑ । धृ॒ष्णू इति॑ । नृ॒ऽवाह॑सा ॥६९.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णू नृवाहसा ॥
स्वर रहित पद पाठयुञ्जन्ति । अस्य । काम्या । हरी इति । विऽपक्षसा । रथे । शोणा । धृष्णू इति । नृऽवाहसा ॥६९.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
९-११ परमेश्वर के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(अस्य) इस [परमात्मा-म० ९] के (काम्या) चाहने योग्य, (विपक्षसा) विविध प्रकार ग्रहण करनेवाले, (शेणा) व्यापक, (धृष्णू) निर्भय, (नृवाहसा) नेताओं [दूसरों के चलानेवाले सूर्य आदि लोकों] के चलानेवाले (हरी) दोनों धारण-आकर्षण गुणों को (रथे) रमणीय जगत् के बीच (युञ्जन्ति) वे [प्रकाशमान पदार्थ-म० ९] ध्यान में रखते हैं ॥१०॥
भावार्थ
जिस परमात्मा के धारण आकर्षण-सामर्थ्य में सूर्य आदि पिण्ड अन्य लोकों और प्राणियों को चलाते हैं, मनुष्य उन सब पदार्थों से उपकार लेकर उस ईश्वर को धन्यवाद दें ॥१०॥
टिप्पणी
९-११−एते मन्त्रा आगताः-अ० २०।२६।४-६ तथा ४७।१०-१२ ॥
विषय
देखो व्याख्या, अथर्व० २०.२६.४-६॥
भाषार्थ
(काम्या) योगसाधना के लिए चाही गई, (हरी) चित्त को अन्तर्मुख कर देनेवाली, (विपक्षसा) सुषुम्णा के दो पक्षों में अलग-अलग लगी हुई, (शोणा) तमः प्रधान तथा रजःप्रधान, (धृष्णू) मजबूत, (नृवाहसा) योगसाधना में नेतृरूप उपासकों को उनके उद्देश्य की ओर ले जानेवाली इड़ा और पिंगला नाड़ियों को, (अस्य) इस परमेश्वर के (रथे) रमणीय स्वरूप में (युञ्जन्ति) योगिजन, योगविधि द्वारा युक्त करते हैं, सम्बद्ध करते हैं। अथवा (अस्य) इस परमेश्वर द्वारा (काम्या) चाही गई, तथा (रथे) शरीर-रथ में (विपक्षसा) दोनों पार्श्वों में लगी हुई, (हरी) प्रत्याहार-योगसाधना द्वारा वशीकृत ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को, योगिजन, परमेश्वरीय इच्छा की पूर्ति के निमित्त (युञ्जन्ति) प्रयुक्त करते हैं। तब ये दोनों प्रकार की इन्द्रियाँ (शोणा) विशेष-प्रगति से सम्पन्न होती हैं, (धृष्णू) पापधर्षक तथा (नृवाहसा) शरीर-रथ में शरीर-रथ के नेता जीवात्मा का वहन करने लगती हैं।
टिप्पणी
[इड़ा, पिंगला, सुषुम्णा=सुषुम्णा नाड़ी गुदा के निकट से मेरुदण्ड के भीतर होती हुई मस्तिष्क के ऊपर तक चली गई है। गुदा के स्थान के निकट से ही सुषुम्णा के वामभाग से इडा, और दक्षिण भाग से पिङ्गला, नासिका के मूलपर्यन्त चली गई है। भ्रूमध्य में ये तीनों नाड़ियाँ मिल जाती हैं। इडा को चन्द्र, तथा पिङ्गला को सूर्य भी कहते हैं। “पिङ्गला” नाड़ी दिन में सक्रिय रहती है, इसलिए यह रजःप्रधान नाड़ी है; और रात के समय “इडा” नाड़ी सक्रिय रहती है, इसलिए यह तम प्रधान है (देखो—पातञ्जल योगप्रदीप, रचयिता स्वामी ओमानन्द, आर्य साहित्य मण्डल, अजमेर)। शोणा=इडा का वर्ण शुभ्र, तथा पिङ्गला का वर्ण पीतिमा लिए होता है, शौणृ वर्णे।] अथवा [विपक्षसा=शरीर के दोनों पार्श्वों में इन्द्रियाँ लगी हुई हैं, श्रोत्र दोनों ओर हैं, चक्षु दोनों ओर हैं, नासाछिद्र दोनों ओर हैं, जिह्वा बोलने और स्वाद लेने की दृष्टि से दो कार्य करती है—ज्ञानेन्द्रिय का भी और कर्मेन्द्रिय का भी। हाथ दोनों ओर हैं—इत्यादि। शोणा=शोणे गतौ।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Scholars of science dedicated to Indra study and meditate on the lord’s omnipotence of light, fire and wind, and harness the energy like two horses to a chariot, both beautiful, equal and complementary as positive¬ negative currents, fiery red, powerful and carriers of people.
Translation
People yoke in this chariot of him the two horses which are dear to him bold, brownish yellow remaining on two sides and carrying the man on their backs.
Translation
People yoke in this chariot of him the two horses which are dear to him bold, brownish-yellow remaining on two sides and carrying the man on their backs.
Translation
See 20.24.5.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९-११−एते मन्त्रा आगताः-अ० २०।२६।४-६ तथा ४७।१०-१२ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মন্ত্রাঃ ৯-১১ পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(অস্য) এই [পরমাত্মার-ম০ ৯] (কাম্যা) কামনাযোগ্য, (বিপক্ষসা) বিবিধ প্রকার গ্রহণকারী, (শোণা) ব্যাপক, (ধৃষ্ণূ) নির্ভয়, (নৃবাহসা) নেতাগণ [সঞ্চালক সেই সূর্যাদি লোককে] চালনাকারী (হরী) দুই ধারণ আকর্ষণ গুণসমূহকে (রথে) রমণীয় জগতেরমধ্যে (যুঞ্জন্তি) সেই [প্রকাশমান পদার্থ-ম০৯] স্মরণে রাখে ॥১০॥
भावार्थ
যে পরমাত্মার ধারণ আকর্ষণ সামর্থ্যে সূর্যাদি স্থিত হয়ে অন্য লোকসমূহ এবং প্রাণীদের চালনা করে, মনুষ্য সেই সকল পদার্থসমূহ থেকে উপকার গ্রহণ করে সেই ঈশ্বরকে ধন্যবাদ প্রদান করে/করুক ॥১০॥
भाषार्थ
(কাম্যা) যোগসাধনার জন্য কাম্য, (হরী) চিত্তকে অন্তর্মুখ করা, (বিপক্ষসা) সুষুম্ণার দুই পক্ষে/পাশে আলাদা-আলাদাভাবে উপস্থিত/বর্তমান, (শোণা) তমঃ প্রধান তথা রজঃপ্রধান, (ধৃষ্ণূ) দৃঢ়, (নৃবাহসা) যোগসাধনায় নেতৃরূপ উপাসকদের তাঁদের উদ্দেশ্যের দিকে নিয়ে যাওয়া ইড়া এবং পিঙ্গলা নাড়িকে, (অস্য) এই পরমেশ্বরের (রথে) রমণীয় স্বরূপে (যুঞ্জন্তি) যোগীগণ, যোগবিধি দ্বারা যুক্ত করে, সংবদ্ধ করে। অথবা (অস্য) এই পরমেশ্বর দ্বারা (কাম্যা) কাম্য, তথা (রথে) শরীর-রথে (বিপক্ষসা) দুই পাশে বিদ্যমান, (হরী) প্রত্যাহার-যোগসাধনা দ্বারা বশীকৃত জ্ঞানেন্দ্রিয় এবং কর্মেন্দ্রিয়কে, যোগীগণ, পরমেশ্বরীয় ইচ্ছার পূর্তির জন্য (যুঞ্জন্তি) প্রযুক্ত করে। তখন এই দুই প্রকারের ইন্দ্রিয়-সমূহ (শোণা) বিশেষ-প্রগতিতে সম্পন্ন হয়, (ধৃষ্ণূ) পাপধর্ষক/পাপবিনাশক তথা (নৃবাহসা) শরীর-রথে শরীর-রথের নেতা জীবাত্মার বহন করে।
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