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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 69/ मन्त्र 8
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-६९
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    मा नो॒ मर्ता॑ अ॒भि द्रु॑हन्त॒नूना॑मिन्द्र गिर्वणः। ईशा॑नो यवया व॒धम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । न॒: । मर्ता: । अ॒भि । द्रु॒ह॒न् । त॒नूना॑म् । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒ण॒: ॥ ईशा॑न: । य॒व॒य॒ । व॒धम् ॥६९.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो मर्ता अभि द्रुहन्तनूनामिन्द्र गिर्वणः। ईशानो यवया वधम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । न: । मर्ता: । अभि । द्रुहन् । तनूनाम् । इन्द्र । गिर्वण: ॥ ईशान: । यवय । वधम् ॥६९.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 69; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    १-८ पराक्रमी मनुष्य के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (गिर्वणः) हे स्तुतियों से सेवनीय (इन्द्र) इन्द्र ! [महाप्रतापी मनुष्य] (मर्ताः) मनुष्य (नः) हमारी (तनूनाम्) उपकार क्रियाओं का (मा अभि द्रुहन्) कभी द्रोह न करें। तू (ईशानः) स्वामी होकर (वधम्) उनके वध [हनन व्यवहार] को (यवय) हटा ॥८॥

    भावार्थ

    बुद्धिमान् प्रतापी मनुष्य ऐसा प्रयत्न करें कि सब लोग वैर छोड़कर परस्पर उपकारी होकर सुखी होवें ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (मर्ताः) मनुष्याः (अभि) सर्वतः (द्रुहन्) द्रुह जिघांसायाम्-लुङ्, अडभावः, छान्दसः शविकरणः। द्रोहं कुर्वन्तु (तनूनाम्) कृषिचमितनि०। उ० १।८०। तनु विस्तारे श्रद्धोपकरणयोश्च-ऊप्रत्ययः। उपकारक्रियाणाम् (इन्द्र) महाप्रतापिन् मनुष्य (गिर्वणः) म० । स्तुतिभिः सेवनीय (ईशानः) समर्थः (यवय) प्रातिपदिकाद्धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्च। इति वार्तिकेन यवशब्दाद् धात्वर्थे-णिच्, टिलोपः। पृथक् कुरु (वधम्) हन हिंसागत्योः-अप्। हननव्यवहारम् ॥

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    विषय

    न द्रोह, न वध

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (न: तनूनाम्) = हमारे शरीरों का-हमसे दिये गये इन शरीरों का (मार्ता) = विषयों के पीछे मरनेवाले मनुष्य (मा अभिद्रुहन्) = द्रोह न करें-वे इन शरीरों को मारने की कामनावाले न हों। विषयासक्ति शरीर-ध्वंस का कारण बनती है। २.हे (गिर्वण:) = ज्ञान की वाणियों का संभजन करनेवाले जीव। (ईशान:) = इन्द्रियों का ईश होता हुआ तू (वधम् यवय) = वध को अपने से पृथक् कर। अपने शरीर का वध न होने दे।

    भावार्थ

    हम विषयासक्ति से ऊपर उठकर शरीरों से द्रोह न करें। जितेन्द्रिय बनकर वध को अपने से दूर रखें।

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    भाषार्थ

    (गिर्वणः) वेदवाणियों द्वारा भजनीय (इन्द्र) हे परमेश्वर! (मर्ताः) मरणधर्मा मनुष्यों में रहनेवाले राग-द्वेष आदि, आपकी कृपा से (नः) हमारी (मा अभिद्रुहन्) हत्या न करें। (तनूनाम्) अब आप हमारे शरीरों के (ईशानः) अधीश्वर हो गये हैं। इसलिए (वधम्) राग-द्वेष आदि से होनेवाले वधों को (यवय) हमसे पृथक् रखें।

    टिप्पणी

    [मर्ताः=अर्शाद्यच्। मर्त+अच् (वाले), अर्थात् मरण धर्मवाले मनुष्यों में रहनेवाले।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Indra, lord adorable in sacred song, let no mortal hate or injure our body and mind from anywhere. Keep off hate, violence and murder far away from us. You are the ruler, ordainer and dispenser of justice and punishment.

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    Translation

    O Almighty Divinity, may not mortal being bear malignancy against our bodies. O adorable God, keep slaughter away from us as you are capable to do so.

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    Translation

    O Almighty Divinity, may not mortal being bear malignancy against our bodies. O adorable God, keep slaughter away from us as you are capable to do so.

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    Translation

    O Great Lord of Destruction, Worthy of our praise-songs, let not men injure our bodies, but being the Ruler of all, keep away any murderous attack on us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (मर्ताः) मनुष्याः (अभि) सर्वतः (द्रुहन्) द्रुह जिघांसायाम्-लुङ्, अडभावः, छान्दसः शविकरणः। द्रोहं कुर्वन्तु (तनूनाम्) कृषिचमितनि०। उ० १।८०। तनु विस्तारे श्रद्धोपकरणयोश्च-ऊप्रत्ययः। उपकारक्रियाणाम् (इन्द्र) महाप्रतापिन् मनुष्य (गिर्वणः) म० । स्तुतिभिः सेवनीय (ईशानः) समर्थः (यवय) प्रातिपदिकाद्धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्च। इति वार्तिकेन यवशब्दाद् धात्वर्थे-णिच्, टिलोपः। पृथक् कुरु (वधम्) हन हिंसागत्योः-अप्। हननव्यवहारम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ১-৮ পরাক্রমিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (গির্বণঃ) হে স্তুতি দ্বারা সেবনীয় (ইন্দ্র) ইন্দ্র ! [মহাপ্রতাপী মনুষ্য] (মর্তাঃ) মনুষ্য যেন (নঃ) আমাদের (তনূনাম্) হিতকর কার্যের (মা অভি দ্রুহন্) কখনও দ্রোহ না করে। তুমি (ঈশানঃ) স্বামী হয়ে (বধম্) তাঁদের বধ [নিকৃষ্ট ব্যবহার] (যবয়) দূর করো ॥৮॥

    भावार्थ

    বুদ্ধিমান্ প্রতাপী মনুষ্য এমন প্রচেষ্টা করুক, যাতে সকল মনুষ্য বৈরীভাব ত্যাগ করে পরস্পর পরস্পরের হিতকারী হয়ে সুখী হয় ॥৮॥

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    भाषार्थ

    (গির্বণঃ) বেদবাণীর দ্বারা ভজনীয় (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (মর্তাঃ) মরণধর্মা মনুষ্যদের মধ্যে থাকা রাগ-দ্বেষ আদি, আপনার কৃপায় (নঃ) আমাদের (মা অভিদ্রুহন্) হত্যা না করুক। (তনূনাম্) এখন আপনি আমাদের শরীরের (ঈশানঃ) অধীশ্বর হয়েছেন। এইজন্য (বধম্) রাগ-দ্বেষাদি দ্বারা হওয়া বধ-সমূহকে (যবয়) আমাদের থেকে পৃথক্ রাখুন।

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