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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 73/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिपदा विराडनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-७३
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    नू चि॒न्नु ते॒ मन्य॑मानस्य द॒स्मोद॑श्नुवन्ति महि॒मान॑मुग्र। न वी॒र्यमिन्द्र ते॒ न राधः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । चि॒त् । नु । ते॒ । मन्य॑मानस्य । द॒स्म॒ । उत् । अ॒श्नु॒व॒न्ति॒ । म॒हि॒मान॑म् । उ॒ग्र॒ । न । वी॒र्य॑म् । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । न । राध॑: ॥७३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू चिन्नु ते मन्यमानस्य दस्मोदश्नुवन्ति महिमानमुग्र। न वीर्यमिन्द्र ते न राधः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु । चित् । नु । ते । मन्यमानस्य । दस्म । उत् । अश्नुवन्ति । महिमानम् । उग्र । न । वीर्यम् । इन्द्र । ते । न । राध: ॥७३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 73; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सेनापति के लक्षण का उपदेश।

    पदार्थ

    (दस्म) हे दर्शनीय ! (उग्र) हे तेजस्वी (इन्द्र) इन्द्र ! [राजन्] (मन्यमानस्य ते) तुझ महाज्ञानी की (न) न तो (महिमानम्) महिमा को और (न)(ते) तेरे (वीर्यम्) पराक्रम और (राधः) धन को वे [अन्य पुरुषों] (नु चित्) कभी भी (नु) किसी प्रकार (उत्) अधिकता से (अश्नुवन्ति) पहुँचते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य महिमा और विद्या आदि शुभ गुणों, पराक्रम और धन में अधिक होवे, वह सभापति राजा होवे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(नु चित्) कदापि (नु) निश्चयेन (ते) तव (मन्यमानस्य) मन ज्ञाने-शानच्। विदुषः पुरुषस्य (दस्म) अ० २०।१७।२। हे दर्शनीय (उत) आधिक्ये (अश्नुवन्ति) प्राप्नुवन्ति (महिमानम्) महत्त्वम् (उग्र) तेजस्विन् (न) निषेधे (वीर्यम्) पराक्रमम् (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त राजन् (ते) तव (न) निषेधे (राधः) धनम् ॥

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    विषय

    अनन्त 'महिमा-पराक्रम व ऐश्वर्य'

    पदार्थ

    १. हे (उग्र) = तेजस्विन् (दस्म) = दर्शनीय प्रभो। (मन्यमानस्य) = सब-कुछ जानते हुए (ते) = आपकी (महिमानम्) = महिमा को (नू चित् नु) = न ही कोई (उत् अश्नुवन्ति) = व्याप्त करने में समर्थ होते हैं। आपकी अनन्त महिमा को यह सारा ब्रह्माण्ड भी व्याप्त नहीं कर पाता। यह तो आपके एक देश में ही है 'एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः'। २. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो। (न) = नहीं (ते) = आपके (वीर्यम्) = पराक्रम को और (न राधा) = न ही ऐश्वर्य को कोई नाप सकता है। आपका पराक्रम व ऐश्वर्य अनन्त है, वह मापा नहीं जा सकता।

    भावार्थ

    प्रभु की 'महिमा, पराक्रम व ऐश्वर्य' अनन्त हैं।

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    भाषार्थ

    (दस्म) हे पापक्षयकारी! (उग्र) हे संसार के नियन्त्रण और कर्मव्यवस्था में उग्ररूप! (मन्यमानस्य) मनन और निदिध्यासन के विषयीभूत (ते) आपकी (महिमानम्) महिमा को, (नूचित् नु) पुराण और नवीन मनुष्य, (न) नहीं (उदश्नुवन्ति) व्याप सकते हैं। (इन्द्र) हे परमेश्वर! (न)(ते) आपके (वीर्यम्) सामर्थ्य को, और (न)(राधः) ऐश्वर्य और सम्पत्ति को ही व्याप सकते हैं।

    टिप्पणी

    [नूचिन्नु=नूचिदिति निपातः पुराणनवयोः, नूचेति (निरु০ ४.३.१७)। (दस्म=दस् उपक्षये। पुराण, नव=पुराकल्पों में और नये कल्पों में, और अतीत सृष्टियों तथा नवीन सृष्टियों में।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    In dr a Devata

    Meaning

    Indra, lord of blazing splendour, destroyer of suffering and darkness, adored by the world, the people of the world acknowledge your grandeur but they comprehend it not, much less equal and surpass. Nor can they surpass, equal or even comprehend your power and potential or your munificence.

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    Translation

    O Almighty vigorous Divinity, you are wondrous. Never do men attain the greatness of you, the praise worthy one. They can neither attain your heroic power nor your bounty.

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    Translation

    O Almighty vigorous Divinity, you are wondrous. Never do men attain the greatness of you, the praise worthy one. They can neither attain your heroic power nor your bounty.

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    Translation

    O Graceful and Highly Powerful Lord, is there any one who can ever surpass Thy Greatness, worthy of respect and honour by all? O Mighty God, there is none who can excel thy Power or Glory and Wealth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(नु चित्) कदापि (नु) निश्चयेन (ते) तव (मन्यमानस्य) मन ज्ञाने-शानच्। विदुषः पुरुषस्य (दस्म) अ० २०।१७।२। हे दर्शनीय (उत) आधिक्ये (अश्नुवन्ति) प्राप्नुवन्ति (महिमानम्) महत्त्वम् (उग्र) तेजस्विन् (न) निषेधे (वीर्यम्) पराक्रमम् (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त राजन् (ते) तव (न) निषेधे (राधः) धनम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সেনাপতিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (দস্ম) হে দর্শনীয় ! (উগ্র) হে তেজস্বী (ইন্দ্র) ইন্দ্র ! [রাজন্] (মন্যমানস্য তে) মহাজ্ঞানী তোমার (ন) না তো (মহিমানম্) মহিমাকে আর (ন) না (তে) তোমার (বীর্যম্) পরাক্রম ও (রাধঃ) ধনকে তাঁরা [অন্য পুরুষেরা] (নু চিৎ) কখনো (নু) কোনো প্রকারে (উৎ) অধিকতা (অশ্নুবন্তি) প্রাপ্ত হয় ॥২॥

    भावार्थ

    যে মনুষ্য মহিমা এবং বিদ্যা আদি শুভ গুণ, পরাক্রম ও ধনে অধিকতা প্রাপ্ত হয়, তিনি সভাপতি, রাজা হন ॥২॥

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    भाषार्थ

    (দস্ম) হে পাপক্ষয়কারী! (উগ্র) হে সংসারের নিয়ন্ত্রণ এবং কর্মব্যবস্থায় উগ্ররূপ! (মন্যমানস্য) মনন এবং নিদিধ্যাসনের বিষয়ীভূত (তে) আপনার (মহিমানম্) মহিমাকে, (নূচিৎ নু) পুরাণ এবং নবীন মনুষ্য, (ন) না (উদশ্নুবন্তি) প্রাপ্ত হয়। (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (ন) না (তে) আপনার (বীর্যম্) সামর্থ্যকে, এবং (ন) না (রাধঃ) ঐশ্বর্য ও সম্পত্তিকে প্রাপ্ত হয়।

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