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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 73/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वसुक्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-७३
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    य॒दा वज्रं॒ हिर॑ण्य॒मिदथा॒ रथं॒ हरी॒ यम॑स्य॒ वह॑तो॒ वि सू॒रिभिः॑। आ ति॑ष्ठति म॒घवा॒ सन॑श्रुत॒ इन्द्रो॒ वाज॑स्य दी॒र्घश्र॑वस॒स्पतिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒दा । वज्र॑म् । हिर॑ण्यम् । इत् ।अथ॑ । रथ॑म् । हरी॒ इ॒ति । यम् । अ॒स्य॒ । वह॑त: । वि । सू॒रिऽभि॑: ॥ आ । ति॒ष्ठ॒ति॒ । म॒घऽवा॑ । सन॑ऽश्रुत: । इन्द्र॑: । वाज॑स्य । दी॒र्घऽश्र॑वस: । पति॑: ॥७३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदा वज्रं हिरण्यमिदथा रथं हरी यमस्य वहतो वि सूरिभिः। आ तिष्ठति मघवा सनश्रुत इन्द्रो वाजस्य दीर्घश्रवसस्पतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदा । वज्रम् । हिरण्यम् । इत् ।अथ । रथम् । हरी इति । यम् । अस्य । वहत: । वि । सूरिऽभि: ॥ आ । तिष्ठति । मघऽवा । सनऽश्रुत: । इन्द्र: । वाजस्य । दीर्घऽश्रवस: । पति: ॥७३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 73; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सेनापति के लक्षण का उपदेश।

    पदार्थ

    (यदा) जब (अस्य) इस [सेनापति] के (यम्) जिस (हिरण्यम्) तेजोमय (वज्रम्) वज्र [दण्ड] (अथ) और (रथम्) रथ [राज्यव्यवहार] को (हरी) दो घोड़े [के समान बल और पराक्रम] (सूरिभिः) प्रेरक विद्वानों के साथ (इत्) ही (वि) विविध प्रकार (वहतः) ले चलते हैं। [तब उस पर] (मघवा) महाधनी, (सनश्रुतः) दान के लिये प्रसिद्ध, (दीर्घश्रवसः) बहुत यशवाले (वाजस्य) पराक्रम का (पतिः) स्वामी (इन्द्रः) इन्द्र [महाप्रतापी सेनापति] (आ तिष्ठति) ऊँचा बैठता है ॥४॥

    भावार्थ

    जब राजा विद्वानों से मिलकर धर्मयुक्त नीति के साथ राज्य को चलाता है, वह प्रजापालक महाधनी होकर बड़ी कीर्ति पाता है ॥४॥

    टिप्पणी

    मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-१०।२३।३- ॥ ४−(यदा) यस्मिन् काले (वज्रम्) दण्डम् (हिरण्यम्) तेजोमयम् (इत्) एव (अथ) अनन्तरम् (रथम्) रथमिव रमणीयं राज्यव्यवहारम् (हरी) अश्वाविव बलपराक्रमौ (यम्) वज्रं रथं वा (अस्य) सेनापतेः (वहतः) नयतः (वि) विविधम् (सूरिभिः) अ० २०।३४।१७। प्रेरकैर्विद्वद्भिः (आ तिष्ठति) आरोहति। उपरि वर्तते (मघवा) महाधनी (सनश्रुतः) षणु दाने-अच्। दानाय प्रसिद्धः (इन्द्रः) महाप्रतापी सेनापतिः (वाजस्य) पराक्रमस्य (दीर्घश्रवसः) बहुकीर्तियुक्तस्य (पतिः) स्वामी ॥

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    विषय

    'हिरण्य-वज्र'

    पदार्थ

    १. (यदा) = जब (वज्रम्) = [वज् गतौ] हमारी क्रिया (हिरण्यम्) = हित-रमणीय [स्वर्णीय] होती है, अथवा जब हमारी सब क्रियाएँ स्वर्णीय मध्य से होती हैं, अर्थात् जब हम जागने व खाने पीने आदि सारी क्रियाओं में मध्यमार्ग का अवलम्बन करते हैं, (अथा) = तब (इत्) = निश्चय से (रथम्) = हमारे शरीर-रथ को (हरी) = इन्द्रियाश्व (यमस्य वहतः) = उस नियन्ता प्रभु की ओर ले-चलते हैं। २. उस समय (मघवा) = ऐश्वयों व यज्ञोंवाला होकर (सनश्रुतः) = सनातन वेदज्ञानवाला होता हुआ (विसूरिभिः) = विशिष्ट ज्ञानियों के साथ आतिष्ठति सर्वथा स्थित होता है। यही व्यक्ति (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय बनता है और (वाजस्य) = बल का तथा (दीर्घश्रवस:) = तामस् व राजस् वासनाओं के विदारक ज्ञान का (पति:) = स्वामी होता है।

    भावार्थ

    प्रभुभक्त हितरमणीय क्रियाओंबाला होता है। बल व ज्ञान का पति बनता है। जितेन्द्रिय होता है।

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    भाषार्थ

    (यदा) जब (यमस्य) यमनियमों का पालन करनेवाले उपासक के (हरी) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियरूपी अश्व, (वि सूरिभिः) विशिष्टस्तोताओं की प्रेरणाओं के अनुसार, (रथं वहतः) उपासक के शरीर-रथ का वहन करने लगते हैं, (अथ) तदनन्तर (इत्) ही यह शरीर-रथ (वज्रं हिरण्यम्) हीरों और सुवर्ण के सदृश हो जाता है, अर्थात् बहुमूल्य हो जाता है। तब (मघवा) ऐश्वर्यों का स्वामी, (सनश्रुतः) सदाविश्रुत, (वाजस्य) शक्तियों और (दीर्घश्रवसः) दीर्घकाल से चली आई महाकीर्त्ति का (पतिः) पति (इन्द्रः) परमेश्वर, (आ तिष्ठति) उपासक के शरीर-रथ में आ स्थित होता है। [दीर्घ=अनादिकाल।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    In dr a Devata

    Meaning

    When Indra, glorious lord ruler of the world rides his golden chariot of state which complementary forces draw on the course with the energy of solar rays in nature and the light and loyalty of leading citizens in society, then he is celebrated as universal master of the common wealth and the ruler and protector of lasting power, prosperity and honour of the world.3. When Indra, glorious lord ruler of the world rides his golden chariot of state which complementary forces draw on the course with the energy of solar rays in nature and the light and loyalty of leading citizens in society, then he is celebrated as universal master of the common wealth and the ruler and protector of lasting power, prosperity and honour of the world.

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    Translation

    The Almighty God who is master of riches, who is always known and who is the Lord of the power of heigh fame pervades and controls the year (Vajra) which is splendid and the chariot of this time which the sun and moon with the moving night, days and months carry on.

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    Translation

    The Almighty God who is master of riches, who is always known and who is the Lord of the power of heigh fame pervades and controls the year (Vajra) which is splendid and the chariot of this time which the sun and moon with the moving night, days and months carry on.

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    Translation

    When the two horses in the form of acts and knowledge enable the state of perfect Bliss His (i.e., God) to be attained by the learned devotees and He reveals His Brilliant Thunderbolt (to destroy all evil propensities of the soul), the Mighty Lord of Fortunes, the master of High Glory and Grandeur, of knowledge, power and riches, of ancient Renown and Fame, the Fortunate One, instals Himself fully in the hearts of the devotees

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    मन्त्र ४-६ ऋग्वेद में हैं-१०।२३।३- ॥ ४−(यदा) यस्मिन् काले (वज्रम्) दण्डम् (हिरण्यम्) तेजोमयम् (इत्) एव (अथ) अनन्तरम् (रथम्) रथमिव रमणीयं राज्यव्यवहारम् (हरी) अश्वाविव बलपराक्रमौ (यम्) वज्रं रथं वा (अस्य) सेनापतेः (वहतः) नयतः (वि) विविधम् (सूरिभिः) अ० २०।३४।१७। प्रेरकैर्विद्वद्भिः (आ तिष्ठति) आरोहति। उपरि वर्तते (मघवा) महाधनी (सनश्रुतः) षणु दाने-अच्। दानाय प्रसिद्धः (इन्द्रः) महाप्रतापी सेनापतिः (वाजस्य) पराक्रमस्य (दीर्घश्रवसः) बहुकीर्तियुक्तस्य (पतिः) स्वामी ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সেনাপতিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যদা) যখন (অস্য) এঁর/এই [সেনাপতির] (যম্) যে (হিরণ্যম্) তেজোময় (বজ্রম্) বজ্র [দণ্ড] (অথ) এবং (রথম্) রথকে [রাজ্যব্যবহার] (হরী) দুই অশ্ব [বল ও পরাক্রম] (সূরিভিঃ) প্রেরক বিদ্বানদের সাথে (ইৎ) নিশ্চিতরূপে (বি) বিবিধ প্রকারে (বহতঃ) বহন করে। [তখন সেই রথের উপরে] (মঘবা) মহাধনী, (সনশ্রুতঃ) দানের জন্য প্রসিদ্ধ, (দীর্ঘশ্রবসঃ) বহু যশযুক্ত (বাজস্য) পরাক্রমের (পতিঃ) স্বামী (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহাপ্রতাপী সেনাপতি] (আ তিষ্ঠতি) উঠে বসেন ॥৪॥

    भावार्थ

    যখন রাজা বিদ্বানের সাথে মিলে ধর্মযুক্ত নীতি প্রবর্তন করে রাজ্য পরিচালনা করেন, তখন রাজা প্রজাপালক মহাধনী হয়ে কীর্তি প্রাপ্ত হন ॥৪॥ মন্ত্র ৪-৬ ঋগ্বেদে আছে-১০।২৩।৩-৫ ॥

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    भाषार्थ

    (যদা) যখন (যমস্য) যমনিয়মের পালনকারী উপাসকের (হরী) জ্ঞানেন্দ্রিয় এবং কর্মেন্দ্রিয়রূপী অশ্ব, (বি সূরিভিঃ) বিশিষ্টস্তোতাদের প্রেরণার অনুসারে, (রথং বহতঃ) উপাসকের শরীর-রথের বহন করতে থাকে, (অথ) তদনন্তর (ইৎ) ই এই শরীর-রথ (বজ্রং হিরণ্যম্) হীরক এবং সুবর্ণের সদৃশ হয়ে যায়, অর্থাৎ বহুমূল্য হয়ে যায়। তখন (মঘবা) ঐশ্বর্যের স্বামী, (সনশ্রুতঃ) সদাবিশ্রুত, (বাজস্য) শক্তি এবং (দীর্ঘশ্রবসঃ) দীর্ঘকাল থেকে চলমান মহাকীর্ত্তির (পতিঃ) পতি (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর, (আ তিষ্ঠতি) উপাসকের শরীর-রথে এসে স্থিত হয়। [দীর্ঘ=অনাদিকাল।]

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