अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 73/ मन्त्र 5
सो चि॒न्नु वृ॒ष्टिर्यू॒थ्या॒ स्वा सचाँ॒ इन्द्रः॒ श्मश्रू॑णि॒ हरि॑ता॒भि प्रु॑ष्णुते। अव॑ वेति सु॒क्षयं॑ सु॒ते मधूदिद्धू॑नोति॒ वातो॒ यथा॒ वन॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठसो इति॑ । चि॒त् । नु । वृ॒ष्टि: । यू॒थ्या॑ । स्वा । सचा॑ । इन्द्र॑: । श्मश्रू॑णि: । हरि॑ता । अ॒भि । प्रु॑ष्णु॒ते॒ ॥ अव॑ । वे॒ति॒ । सु॒ऽक्षय॑म् । सु॒ते । मधु॑ । उत् । इत् । धू॒नो॒ति॒ । वात॑: । यथा॑ । वन॑म् ॥७३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
सो चिन्नु वृष्टिर्यूथ्या स्वा सचाँ इन्द्रः श्मश्रूणि हरिताभि प्रुष्णुते। अव वेति सुक्षयं सुते मधूदिद्धूनोति वातो यथा वनम् ॥
स्वर रहित पद पाठसो इति । चित् । नु । वृष्टि: । यूथ्या । स्वा । सचा । इन्द्र: । श्मश्रूणि: । हरिता । अभि । प्रुष्णुते ॥ अव । वेति । सुऽक्षयम् । सुते । मधु । उत् । इत् । धूनोति । वात: । यथा । वनम् ॥७३.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सेनापति के लक्षण का उपदेश।
पदार्थ
(सो) वही (इन्द्रः) इन्द्र [बड़ा ऐश्वर्यवान् पुरुष] (वृष्टिः चित्) वृष्टि के समान (नु) निश्चय करके (सचा) नित्य मेल के साथ (स्वा) अपने (हरिता) स्वीकार करने योग्य (यूथ्या) समुदायों को (श्मश्रूणि) अपने शरीर में आश्रित अङ्गों [के समान] (अभि) सब प्रकार (प्रुष्णुते) सींचता है। और वह (सुते) उत्पन्न जगत् में (सुक्षयम्) बड़े ऐश्वर्यवाले (मधु) निश्चित ज्ञान [मधु विद्या] को (इत्) अवश्य (अव वेति) पा लेता है और [पापों को] (उत्) (धूनोति) उखाड़कर हिला देता है, (यथा) जैसे (वातः) पवन (वनम्) वन को ॥॥
भावार्थ
वृष्टि के समान जो मनुष्य शरीर के अङ्गों के तुल्य प्रिय अपने लोगों पर उपकार करता है, वह संसार में ऐश्वर्ययुक्त ज्ञान प्राप्त करके पापों को हटाकर आनन्द पाता है ॥॥
टिप्पणी
−(सो) स एव (चित्) उपमार्थे (नु) निश्चयेन (वृष्टिः) जलवर्षा (यूथ्या) स्वार्थे यत्। यूथानि। सजातीयसमुदायान् (स्वा) स्वकीयानि (सचा) समवायेन (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् मनुष्यः (श्मश्रूणि) अ० ।१९।१४। शीङ्, शयने-मनिन्, डित्+श्रिञ् सेवायाम्-डुन्। श्म शरीरम्.....श्मश्रु लोम श्मनि श्रितं भवति-निरु० ३।। शरीरे श्रितान्यङ्गानि यथा (हरिता) अ० २०।३०।३। स्वीकरणीयानि (अभि) सर्वतः (प्रुष्णुते) प्रुष स्नेहनसेचनपूरणेषु-लट्। सिञ्चति। वर्धयति (अव वेति) वी गत्यादिषु। अधिगच्छति। प्राप्नोति (सुक्षयम्) क्षि ऐश्वर्ये-अच्। बह्वैश्वर्ययुक्तम् (सुते) उत्पन्ने जगति (मधु) निश्चितं ज्ञानम्। मधुविद्याम् (उत्) उत्कृष्य (इत्) एव (धूनोति) कम्पयति पापानि (वातः) वायुः (यथा) (वनम्) वृक्षसमूहम् ॥
विषय
सुक्षयम् [उत्तम गृह]
पदार्थ
१. (स उ) = और वह (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष (चित् नु) = निश्चय से अब (वृष्टिः) = सबपर सुखों की वृष्टि करनेवाला होता है। प्रभुभक्त सर्वभूतहितेरत होता ही है। यह (स्वा यूथ्या) = अपने समूह में होनेवाले ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, प्राण व अन्त:करण के पञ्चों को (सचा) = उस प्रभु से मेलवाला करता है। २. (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (श्मश्रूणि) = शरीर में [श्म] आश्रित [श्रि]'इन्द्रियों, मन व बुद्धि'को (हरिता) = सब मलों का हरण करनेवाले सोमकणों से (अभिप्रुष्णुते) = सींचता है। यह सोम इन्द्रियों को सशक्त, मन को निर्मल व बुद्धि को तीव्र बनाता है। इसप्रकार यह (सुक्षयम्) = उत्तम शरीररूप गृह को (अववेति) = आभिमुख्येन प्राप्त होता है। (सुते) = सोम के उत्पन्न होने पर (मधु) = यह सारभूत सोम (इत्) = निश्चय से (उत् धूनोति) = सब मलों को इसप्रकार कम्पित कर देता है (यथा) = जैसे (वात: वनम्) = वायु वन को। वायु पत्रों को हिलाकर उनके मल को दूर कर देता है, इसी प्रकार सोम 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि'को निर्मल कर देता है।
भावार्थ
सोम शरीर में सुरक्षित होकर निर्मलता का साधक होता है।
भाषार्थ
(यूथ्या) उपासकवर्गसम्बन्धी (स उ चित्) वह प्रसिद्ध (वृष्टिः) आनन्दरसवर्षा, (नु) निश्चय से, (स्वा) परमेश्वर की निज सम्पत्ति है। (सचा) वह आनन्दरसवर्षा सदा उपासकों का साथ देती है। (इन्द्रः) परमेश्वर, (हरिता) हरा-भरा करनेवाली (श्मश्रूणि) सूर्य की किरणों को जब (अभि प्रुष्णुते) खूब तपाता है, तब वह प्राकृतिक वृष्टि होती है। इस प्रकार आध्यात्मिक और प्राकृतिक दोनों वृष्टियों का स्वामी परमेश्वर ही है। (सुते) भक्तिरस के निष्पन्न हो जाने पर वह परमेश्वर, (सुक्षयम्) पूर्णतया पापक्षयकारी (उत् मधु) उष्कृष्ट मधुर आनन्दरस की, (इत्) निश्चय से, (अववेति) वर्षा करता है। और भक्तिहीन पापियों को (धूनोति) ऐसे कम्पा देता है (यथा) जैसे कि (वातः) झंझावात (वनम्) समग्रवन को कम्पा देती है।
टिप्पणी
[श्मश्रूणि=हिरण्यश्मश्रुः “सूर्यः” (छा০ उप০ १.६.६)।]
इंग्लिश (4)
Subject
In dr a Devata
Meaning
The real shower is that when with his own essential lustre and with his complementary forces Indra sprinkles and fills the waving greenery on earth with life energy, when the divine presence pervades happy homes and weaves them into a happy web of life on earth with sweets of life, vibrates with power and shakes contradictory forces as the storm shakes the forest.4. The real shower is that when with his own essential lustre and with his complementary forces Indra sprinkles and fills the waving greenery on earth with life energy, when the divine presence pervades happy homes and weaves them into a happy web of life on earth with sweets of life, vibrates with power and shakes contradictory forces as the storm shakes the forest.
Translation
As a man gets his beard so the same Divinity like the rain moisten his wonderful groups of the worldly objects with the cooperation of cloud. He alone knows all the good localities of the universe and also knows whatever all this exist (Madhu) in this created world. He makes all this tremble as the gust of wind disturbs the wood.
Translation
As a man gets his beard so the same Divinity like the rain moisten his wonderful groups of the worldly objects with the cooperation of cloud. He alone knows all the good localities of the universe and also knows whatever all this exist (Madhu) in this created world. He makes all this tremble as the gust of wind disturbs the wood.
Translation
Just as rain irrigates the green vegetation all around, so does a learned person or a king saturates all those dependent hordes of people with faVours and fortunes, like his moustaches. He obtains a good shelter, sweet fruit of his labours and throws off all forces of evil or wickedness, like the strong wind felling the jungle trees.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(सो) स एव (चित्) उपमार्थे (नु) निश्चयेन (वृष्टिः) जलवर्षा (यूथ्या) स्वार्थे यत्। यूथानि। सजातीयसमुदायान् (स्वा) स्वकीयानि (सचा) समवायेन (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् मनुष्यः (श्मश्रूणि) अ० ।१९।१४। शीङ्, शयने-मनिन्, डित्+श्रिञ् सेवायाम्-डुन्। श्म शरीरम्.....श्मश्रु लोम श्मनि श्रितं भवति-निरु० ३।। शरीरे श्रितान्यङ्गानि यथा (हरिता) अ० २०।३०।३। स्वीकरणीयानि (अभि) सर्वतः (प्रुष्णुते) प्रुष स्नेहनसेचनपूरणेषु-लट्। सिञ्चति। वर्धयति (अव वेति) वी गत्यादिषु। अधिगच्छति। प्राप्नोति (सुक्षयम्) क्षि ऐश्वर्ये-अच्। बह्वैश्वर्ययुक्तम् (सुते) उत्पन्ने जगति (मधु) निश्चितं ज्ञानम्। मधुविद्याम् (उत्) उत्कृष्य (इत्) एव (धूनोति) कम्पयति पापानि (वातः) वायुः (यथा) (वनम्) वृक्षसमूहम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সেনাপতিলক্ষণোপদেশঃ
भाषार्थ
(সো) সেই/তিনি ই (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম ঐশ্বর্যবান্ পুরুষ] (বৃষ্টিঃ চিৎ) বৃষ্টির ন্যায় (নু) নিশ্চিতরূপে (সচা) নিত্য সমাগমের সহিত (স্বা) নিজের (হরিতা) স্বীকার যোগ্য (যূথ্যা) সমূহকে (শ্মশ্রূণি) নিজের শরীরে আশ্রিত অঙ্গ-সমূহের [সমান] (অভি) সর্বতোভাবে (প্রুষ্ণুতে) সিঞ্চন করেন, বর্ধন করেন । এবং তিনি (সুতে) উৎপন্ন জগতে (সুক্ষয়ম্) পরম ঐশ্বর্যযুক্ত (মধু) নিশ্চিত জ্ঞানকে [মধু বিদ্যাকে] (ইৎ) অবশ্য (অব বেতি) প্রাপ্ত হন তথা [পাপকে] (উৎ) (ধূনোতি) উৎপাটিত করে কাঁপিয়ে দেন (যথা) যেভাবে (বাতঃ) বায়ু (বনম্) বনের বৃক্ষাদিতে কম্পন সৃষ্টি করে ॥৫॥
भावार्थ
বৃষ্টির সমান যিনি মনুষ্য শরীরের অঙ্গ-সমূহের তুল্য প্রিয় নিজের লোকেদের উপকার করেন, তিনি সংসারে ঐশ্বর্যযুক্ত জ্ঞান প্রাপ্ত করে পাপকে দূর করে আনন্দ প্রাপ্ত হন॥৫॥
भाषार्थ
(যূথ্যা) উপাসকবর্গসম্বন্ধী (স উ চিৎ) সেই প্রসিদ্ধ (বৃষ্টিঃ) আনন্দরসবর্ষা, (নু) নিশ্চিতরূপে, (স্বা) পরমেশ্বরের নিজ সম্পত্তি। (সচা) সেই আনন্দরসবর্ষা সদা উপাসকদের সাথে সঙ্গ দেন। (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর, (হরিতা) হরিত বর্ণ রচনাকারী (শ্মশ্রূণি) সূর্যের কিরণকে যখন (অভি প্রুষ্ণুতে) খুব/প্রচন্ড তপ্ত করে, তখন প্রাকৃতিক বৃষ্টি হয়। এইভাবে আধ্যাত্মিক এবং প্রাকৃতিক উভয় বৃষ্টির স্বামীই পরমেশ্বর। (সুতে) ভক্তিরস নিষ্পন্ন হলে সেই পরমেশ্বর, (সুক্ষয়ম্) পূর্ণরূপে পাপক্ষয়কারী (উৎ মধু) উৎকৃষ্ট মধুর আনন্দরসের, (ইৎ) নিশ্চিতরূপে, (অববেতি) বর্ষণ করেন। এবং ভক্তিহীন পাপীদের (ধূনোতি) এমন কম্পিত করেন (যথা) যেমন (বাতঃ) ঝঞ্ঝাবাত (বনম্) সমগ্র বনকে কম্পিত করে দেয়।
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