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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 74 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 74/ मन्त्र 6
    ऋषिः - शुनःशेपः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-७४
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    पता॑ति कुण्डृ॒णाच्या॑ दू॒रं वातो॒ वना॒दधि॑। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पता॑ति । कु॒ण्डृ॒णाच्या॑ । दू॒रम् । वात॑: । वना॑त् । अधि॑ । आ । तु । न॒: । इ॒न्द्र॒ । शं॒स॒य॒ । गोषु॑ । अश्वे॑षु । शु॒भ्रिषु॑ । स॒हस्रे॑षु । तु॒वि॒ऽम॒घ॒ ॥७४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पताति कुण्डृणाच्या दूरं वातो वनादधि। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पताति । कुण्डृणाच्या । दूरम् । वात: । वनात् । अधि । आ । तु । न: । इन्द्र । शंसय । गोषु । अश्वेषु । शुभ्रिषु । सहस्रेषु । तुविऽमघ ॥७४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 74; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (कुण्डृणाच्या) रक्षा पहुँचानेवाली क्रिया के साथ (दूरम्) दूर तक (वनात् अधि) वन [उपवन वाटिका आदि] के ऊपर होता हुआ (वातः) पवन (पताति) चला करे। (तुविमघ) हे महाधनी (इन्द्र) इन्द्र ..... [मन्त्र १] ॥६॥

    भावार्थ

    राजा वन, उपवन, वाटिका आदि से प्रजा का स्वास्थ्य बढ़ावे ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(पताति) लेटि आडागमः। गच्छेत्। वहेत् (कुण्डृणाच्या) दिवेर्ऋ। उ० २।९९। कुडि दाहे वैकल्ये रक्षणे च-ऋप्रत्ययः। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१। कुण्डृ+णक्ष गतौ-अण् ङीप्, क्षकारस्य चकारः। रक्षाप्रापिकया क्रियया (दूरम्) विप्रकृष्टदेशम् (वातः) वायुः (वनात्) वृक्षसमूहात् (अधि) उपरि गच्छन्। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    'कुटिलता, क्रूरता व क्रोध' से दूर

    पदार्थ

    १. (कुण्डृणाच्या) = [कुडि दाहे, ऋण गती, अञ्च गतौ] दहनात्मक कुटिल गति से चलनेवाली वात: वायु वनात् अधिदरम्-वन से अधिक दूर होकर पताति-चलती है, अर्थात् हमारे जीवन से यह कोसों दूर रहती है। हमारे मस्तिष्कों में ऐसी हवा नहीं भर जाती जिसमें दहनात्मकता है-'कुटिलता, क्रूरता व क्रोध' है। हमारी वाणी आँधी की भांति औरों का हिंसन करनेवाली नहीं होती। २. हे इन्द्र-सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आप तु-तो न: हमें शुभिषु-शुद्ध व सहस्त्रेषु-संप्रसादवाली गोषु अश्वेषु-ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों में आशंसय-सब प्रकार से प्रशस्त जीवनवाला बनाइए। तुवीमघ हे महान् ऐश्वर्यवाले प्रभो! मैं भी इन्द्रियों को प्रशस्त बनकर अध्यात्म ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाला बनूं।

    भावार्थ

    कुटिल गति से चलनेवाली दहनात्मक हवा हमसे दूर रहे। हम 'कुटिल-क्रूर व क्रोधी' न बनें।

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    भाषार्थ

    (कुण्डृणाच्याः) परदाहक व्यवहारोंवाले व्यक्ति को परमेश्वर (पताति) गिरा देता है, जैसे कि (वनात् अधि) जलते हुए वन से आती हुई (वातः) जलती-वायु (दूरम्) दूरस्थ पदार्थों को जला कर (पताति) गिरा देती है। (आ तू नः০) पूर्ववत् (मन्त्र २०.७४.१)

    टिप्पणी

    [कुण्डृणाची=कुडि दाहे+अञ्च् (गति, व्यवहार)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    In dr a Devata

    Meaning

    The wind blows over the forest and clusters of lotus, over and across the world and soars high with the rays of light in waves up and down. Indra, lord of light and winds, commanding the wealth of the worlds, inspire and establish us in a splendid state of thousand beauties, generosities of the cow and mother earth and the speed of winds.

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    Translation

    Let the man vomiting flames at each step be far away from us like the fire-provoking circling tempest is kept far distant from the forest. Do......in thousands.

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    Translation

    Let the man vomiting flames at each step be far away from us like the fire-provoking circling tempest is kept far distant from the forest. Do...... in thousands.

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    Translation

    Better it is, if the fire-enkindling wind keeps away from the forest, similarly it is better that the strong and powerful agitator, enkindling the fire of enmity and hatred by crooked means is kept away from the people. 2nd part, the same.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(पताति) लेटि आडागमः। गच्छेत्। वहेत् (कुण्डृणाच्या) दिवेर्ऋ। उ० २।९९। कुडि दाहे वैकल्ये रक्षणे च-ऋप्रत्ययः। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१। कुण्डृ+णक्ष गतौ-अण् ङीप्, क्षकारस्य चकारः। रक्षाप्रापिकया क्रियया (दूरम्) विप्रकृष्टदेशम् (वातः) वायुः (वनात्) वृक्षसमूहात् (अधि) उपरि गच्छन्। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাধর্মোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (কুণ্ডৃণাচ্যা) সুরক্ষা প্রদায়ী ক্রিয়ার সহিত (দূরম্) দূর পর্যন্ত (বনাৎ অধি) বনের [উপবন বাটিকা আদি] ওপর দিয়ে (বাতঃ) পবন (পতাতি) প্রবাহিত হোক। (তুবিমঘ) হে মহাধনী (ইন্দ্র) ইন্দ্র !....[মন্ত্র ১]।।৬।।

    भावार्थ

    রাজা বন, উপবন, বাটিকা আদি দ্বারা প্রজাদের সুস্বাস্থ্য সুনিশ্চিত করুক ॥৬॥

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    भाषार्थ

    (কুণ্ডৃণাচ্যাঃ) পরদাহক ব্যবহারযুক্ত ব্যক্তিকে পরমেশ্বর (পতাতি) পতিত করেন, যেমন (বনাৎ অধি) দগ্ধ বন থেকে আগত (বাতঃ) জলন্ত-বায়ু (দূরম্) দূরস্থ পদার্থ-সমূহকে জ্বালিয়ে (পতাতি) পতিত করে। (আ তূ নঃ॰) পূর্ববৎ (মন্ত্র ২০.৭৪.১)

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