अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - शाला, वास्तोष्पतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शालनिर्माण सूक्त
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इ॒हैव ध्रु॒वां नि मि॑नोमि॒ शालां॒ क्षेमे॑ तिष्ठाति घृ॒तमु॒क्षमा॑णा। तां त्वा॑ शाले॒ सर्व॑वीराः सु॒वीरा॒ अरि॑ष्टवीरा॒ उप॒ सं च॑रेम ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । ए॒व । ध्रु॒वाम् । नि । मि॒नो॒मि॒ । शाला॑म् । क्षेमे॑ । ति॒ष्ठा॒ति॒ । घृ॒तम् । उ॒क्षमा॑णा । ताम् । त्वा॒ । शा॒ले॒ । सर्व॑वीरा: । सु॒ऽवीरा॑: । अरि॑ष्टऽवीरा: । उप॑ । सम् । च॒रे॒म॒ ॥१२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इहैव ध्रुवां नि मिनोमि शालां क्षेमे तिष्ठाति घृतमुक्षमाणा। तां त्वा शाले सर्ववीराः सुवीरा अरिष्टवीरा उप सं चरेम ॥
स्वर रहित पद पाठइह । एव । ध्रुवाम् । नि । मिनोमि । शालाम् । क्षेमे । तिष्ठाति । घृतम् । उक्षमाणा । ताम् । त्वा । शाले । सर्ववीरा: । सुऽवीरा: । अरिष्टऽवीरा: । उप । सम् । चरेम ॥१२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
नवीनशाला का निर्माण और प्रवेश।
पदार्थ
(इह एव) यहाँ पर ही (ध्रुवाम्) ठहराऊँ (शालाम्) शाला को (नि मिनोमि) जमाकर बनाता हूँ। वह (घृतम्) घी (उक्षमाणा) सींचती हुई (क्षेमे) लब्ध वस्तु की रक्षा में (तिष्ठाति) ठहरी रहे। (शाले) हे शाला (ताम् त्वा) उस तुझमें (उप=उपेत्य) आकर (सर्ववीराः) सब वीर पुरुषोंवाले (सुवीराः) अच्छे-अच्छे पराक्रमी पुरुषोंवाले और (अरिष्टवीराः) नीरोग पुरुषोंवाले (संचरेम) हम चलते-फिरते रहें ॥१॥
भावार्थ
हम अपने घर दृढ़ और उचित विभागवाले बनावें जिससे वायु, घाम (धूप) आदि के यथावत् सेवन से सब गृहस्थ स्त्री-पुरुष सदा हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ रहें ॥१॥
टिप्पणी
१−(इह)। अस्मिन् विचारिते स्थाने। (एव)। अवधारणे। (ध्रुवाम्)। ध्रु स्थैर्ये गतौ च-क। स्थिराम्। निश्चिताम्। (नि मिनोमि)। डुमिञ् प्रक्षेपणे। नितरां प्रक्षिपामि स्थापयामि। (शालाम्)। तमिविशिविडि०। उ० १।११८। इति शो निशाने अल्पीकरणे-कालन्। अथवा, शाल कथने-अच्। टाप्। गृहम्। (क्षेमे)। लब्धवस्तुनो रक्षणे। कुशले। (तिष्ठाति)। लेटि आडागमः। तिष्ठेत्। (घृतम्)। आज्यम्। दीप्तिम्। (उक्षमाणा)। सिञ्चन्ती। प्रयच्छन्ती। (ताम्)। तादृशीम्। (त्वा)। (शाले)। (सर्ववीराः)। अनेकशूरोपेताः। (सुवीराः)। शुभगुणवीरैर्युक्ताः। (अरिष्टवीराः)। रिष हिंसायाम्-क्त। अहिंसितवीराः। स्वस्थशूरयुक्ताः। (उप)। उपेत्य। (संचरेम)। व्यवहरेम ॥
विषय
'धुवा-घृतमुक्षमाणा' शाला
पदार्थ
१. (इह एव) = यहाँ-निश्चित किये हुए स्थान पर ही (शालाम्) = गृह को (ध्रुवाम् निमिनोमि) = स्तम्भ गाड़ने आदि के द्वारा स्थिर करता हूँ। वह स्थिर किया हुआ गृह घर (घृतं उक्षमाणा) = घृत आदि आवश्यक पदार्थों से (सिक्त) = भरपूर होता हुआ (क्षेमे तिष्ठाति) = अग्न्यादि की बाधा के राहित्य से कल्याणपूर्वक स्थित हो। २. हे (शाले) = गृह! (तं त्वा) = उस तुझमें (सर्ववीरा:) = हम सब वीर (अरिष्टवीरा:) = अहिंसित व रोग आदि को कम्पित करके दूर करनेवाले (सुवीरा:) = उत्तम पराक्रमी बनकर (उप संचरेम) = गति करें।
भावार्थ
गृह को स्थिर, आवश्यक सामग्री से सम्पन्न व अग्नि आदि की बाधा के राहित्यवाला बनाया जाए। इसमें हम सब बीर, नौरोग व पराक्रमी होकर विचरें।
भाषार्थ
(इह एव) इस भूमिप्रदेश में ही (ध्रुवाम्) स्थिर (शालाम्) शाला को (निमिनोमि) में आधाररूप में स्थापित करता हूँ, (घृतम् उक्षमाणा) घृत का सेंचन करती हुई (क्षेमे) हमारे क्षेम या निवास के निमित्त (तिष्ठाति) यह स्थित है। (सर्ववीराः) सब वीर सन्तानोंवाले (सुवीराः) उत्तम सन्तानोंवाले, (अरिष्टवीराः) तथा अहिंसित सन्तानों वाले हम (ताम् त्वा) उस तेरे (उप) समीप (संचरेम) मिलकर विचरें।
टिप्पणी
[क्षेमे=सुरक्षा तथा प्रसन्नता के निमित्त (आप्टे) या हमारे निवास के निमित्त "क्षि निवासे (तुदादिः)। घृतम्=घी (मन्त्र २) में गोमती, घृतवती, पयस्वती के अनुसार। निमिनोमि= नि+इुमिञ् प्रक्षेपणे (स्वादिः), नींवरूप में रोड़ी आदि का प्रक्षेपण करता हूँ, अर्थात् नींव डालता हूँ। शाला, देखो (अथर्व० ९।३।१-३१)। क्षेम की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में दशपाद्युणादिवृत्ति में "क्षि निवासगत्योः" का भी उल्लेख किया है (७।२६), इसलिए निवासार्थ भी उपपन्न है।]
विषय
बड़े २ भवन बनाने का उपदेश ।
भावार्थ
निवास योग्य भवन, हवेली, शाला, गृह आदि बनाने का उपदेश करते हैं । (इह एव) इस उत्तम भूमि प्रदेश में ही (ध्रुवां शालां) ध्रुव, दृढ़ शाला को (नि मिनोमि) बनाता हूं । (क्षेमे) इस सुरक्षित प्रदेश में यह शाला, बनी हुई हवेली (घृतम्) सूर्य के प्रकाश को और शुद्ध जल वायु को (उक्षमाणा) अपने भीतर रहने वाले जनों को उत्तम रीति से देती हुई (तिष्ठाति) स्थिर रूप से खड़ी रहे । हे (शाले) हवेली ! (तां त्वा) उस तुझ में हम (सर्ववीराः) सब प्रकार के छोटे बड़े पुत्रों समेत, (सुवीराः) उत्तम बल वीर्य सम्पन्न होकर (अरिष्टवीराः) आरोग्यता युक्त सामर्थ्यवान् होकर (उप संचरेम) रहें, विचरें ।
टिप्पणी
(च०) ‘ अभि संचरेम’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । वास्तोष्पतीयम् शालासूक्तम् । वास्तोष्पतिः शाला च देवते । १,४,५ त्रिष्टुभः । २ विराड् जगती । ३ बृहती । ६ शक्वरीगर्भा जगती । ७ आर्षी अनुष्टुप् । ८ भुरिग् । ९ अनुष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Architecture
Meaning
Here itself I build the house, here it may stand firm, safe in peace, abundant in the beauty and bliss of light and air. Here, O blessed home, we may live together with noble children, all good and brave, unhurt and unassailed by any misfortune.
Subject
House-sata -Vastospatih
Translation
At this very place, I construct my permanent house. May this residence stand safe and secure overflowing with clarified butter. O house, may we dwell here with all our sons, with excellent sons and with sons never harmed (ever unharmed) (Virah=sons; also brave persons.)
Translation
Here at this very place I construct my firm dwelling. In this safe place Jet it stand in safety having the flood of suny light. May we live in this house with all our children with good children and with healthy children.
Translation
Here, even here I build my firm-set dwelling: flowing with prosperity may it stand in safety. May we approach thee, House with all our people,unharmed and goodly men, and dwell within thee.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(इह)। अस्मिन् विचारिते स्थाने। (एव)। अवधारणे। (ध्रुवाम्)। ध्रु स्थैर्ये गतौ च-क। स्थिराम्। निश्चिताम्। (नि मिनोमि)। डुमिञ् प्रक्षेपणे। नितरां प्रक्षिपामि स्थापयामि। (शालाम्)। तमिविशिविडि०। उ० १।११८। इति शो निशाने अल्पीकरणे-कालन्। अथवा, शाल कथने-अच्। टाप्। गृहम्। (क्षेमे)। लब्धवस्तुनो रक्षणे। कुशले। (तिष्ठाति)। लेटि आडागमः। तिष्ठेत्। (घृतम्)। आज्यम्। दीप्तिम्। (उक्षमाणा)। सिञ्चन्ती। प्रयच्छन्ती। (ताम्)। तादृशीम्। (त्वा)। (शाले)। (सर्ववीराः)। अनेकशूरोपेताः। (सुवीराः)। शुभगुणवीरैर्युक्ताः। (अरिष्टवीराः)। रिष हिंसायाम्-क्त। अहिंसितवीराः। स्वस्थशूरयुक्ताः। (उप)। उपेत्य। (संचरेम)। व्यवहरेम ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(ইহ এব) এই ভূমিপ্রদেশেই (ধ্রুবাম্) স্থির (শালাম্) গৃহকে/শালাকে (নিমিনোমি) আমি ভিত্তিরুপে স্থাপিত করছি, (ঘৃতম্ উক্ষমাণা) ঘৃতের সিঞ্চন করে (ক্ষেমে) আমাদের ক্ষেম বা নিবাসের নিমিত্ত/জন্য (তিষ্ঠাতি) ইহা স্থিত হোক। (সর্ববীরাঃ) সমস্ত বীর সন্তানসম্পন্ন (সুবীরাঃ) উত্তম সন্তানসম্পন্ন, (অরিষ্টবীরাঃ) এবং অহিংসিত সন্তানসম্পন্ন আমরা (শালে) হে শালা (তাম্ ত্বা) সেই তোমার (উপ) সমীপে (সংচরেম) একসাথে বিচরণ করি।
टिप्पणी
[ক্ষেমে= সুরক্ষা ও প্রসন্নতার জন্য (আপ্টে) বা আমাদের নিবাসের জন্য "ক্ষি নিবাসে" (তুদাদিঃ)। ঘৃতম্= ঘী(মন্ত্র ২) এ গোমতী, ঘৃতবতী, পয়স্বতীর অনুসারে। নিমিনোমি=নি+ডুমিঞ্ প্রক্ষেপণে (স্বাদিঃ), ভিত রূপে নুড়ি, কাঁকর প্রক্ষেপণ/নিক্ষেপ করছি, অর্থাৎ ভিত দিচ্ছি/ভিত্তি স্থাপন করছি। শালা, দেখো (অথর্ব০ ৯।৩।১-৩১)। ক্ষেম-এর ব্যুৎপত্তি সম্বন্ধে দশপাদ্যুণাদিবৃত্তি-এ "ক্ষি নিবাসগত্যোঃ" এরও উল্লেখ করা হয়েছে (৭।২৬), সেইজন্যে নিবাসার্থও উপপন্ন।]
मन्त्र विषय
নবশালানির্মাণং প্রবেশশ্চঃ
भाषार्थ
(ইহ এব) এখানেই (ধ্রুবাম্) স্থির/নিশ্চিত করি (শালাম্) শালা/গৃহ (নি মিনোমি) দৃঢ়ভাবে তৈরি/স্থাপিত করি। তা (ঘৃতম্) ঘৃত (উক্ষমাণা) সীঞ্চন করে (ক্ষেমে) লব্ধ বস্তুর রক্ষায় (তিষ্ঠাতি) স্থিত থাকুক। (শালে) হে শালা (তাম্ ত্বা) সেই তোমার মধ্যে (উপ=উপেত্য) এসে/উপনীত হয়ে (সর্ববীরাঃ) সকল বীর পুরুষযুক্ত (সুবীরাঃ) উত্তম-উত্তম পরাক্রমী পুরুষযুক্ত এবং (অরিষ্টবীরাঃ) নীরোগ পুরুষযুক্ত হয়ে (সংচরেম) আমরা যেন চলতে-ফিরতে থাকি/বিচরণ করি॥১॥
भावार्थ
আমরা যেন নিজেদের ঘর দৃঢ় ও সঠিক বিভাগে তৈরি করি যাতে বায়ু, ঘাম (রোদ) আদি এর যথাবৎ প্রাপ্তি দ্বারা সমস্ত গৃহস্থ স্ত্রী-পুরুষ সদা হৃষ্ট-পুষ্ট ও সুস্থ থাকে ॥১॥
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