अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - शाला, वास्तोष्पतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शालनिर्माण सूक्त
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ऋ॒तेन॒ स्थूणा॒मधि॑ रोह वंशो॒ग्रो वि॒राज॒न्नप॑ वृङ्क्ष्व॒ शत्रू॑न्। मा ते॑ रिषन्नुपस॒त्तारो॑ गृ॒हाणां॑ शाले श॒तं जी॑वेम श॒रदः॒ सर्व॑वीराः ॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तेन॑ । स्थूणा॑म् । अधि॑ । रो॒ह॒ । वं॒श॒ । उ॒ग्र: । वि॒ऽराज॑न् । अप॑ । वृ॒ङ्क्ष्व॒ । शत्रू॑न् । मा । ते॒ । रि॒ष॒न् । उ॒प॒ऽस॒त्तार॑: । गृ॒हाणा॑म् । शा॒ले॒ । श॒तम् । जी॒वे॒म॒ । श॒रद॑: । सर्व॑ऽवीरा: ॥१२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतेन स्थूणामधि रोह वंशोग्रो विराजन्नप वृङ्क्ष्व शत्रून्। मा ते रिषन्नुपसत्तारो गृहाणां शाले शतं जीवेम शरदः सर्ववीराः ॥
स्वर रहित पद पाठऋतेन । स्थूणाम् । अधि । रोह । वंश । उग्र: । विऽराजन् । अप । वृङ्क्ष्व । शत्रून् । मा । ते । रिषन् । उपऽसत्तार: । गृहाणाम् । शाले । शतम् । जीवेम । शरद: । सर्वऽवीरा: ॥१२.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
नवीनशाला का निर्माण और प्रवेश।
पदार्थ
(वंश) हे बाँस तू (ऋतेन) अपने सत्य से (स्थूणाम्) थूनी [टेक वा खूँटी] पर (अधि रोह) चढ़ जा और (उग्रः) दृढ़ वा प्रचण्ड होकर (विराजन्) विशेषरूप से प्रकाशित होता हुआ तू (शत्रून्) शत्रुओं को (अप वृङ्क्ष्व) दूर हटा दे। (शाले) हे शाला ! (ते) तेरे (गृहाणाम्) घरों के (उपसत्तारः) रहनेवाले पुरुष (मा रिषन्) दुःखी न होवें। (सर्ववीराः) सब वीरों को रखते हुए हम लोग (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतुओं तक (जीवेम) जीते रहें ॥६॥
भावार्थ
मनुष्य अपने घर ऊँचे, दृढ़ और प्रकाशयुक्त बनावें जिससे चोर-डाकू सिंहादि हिंसक और रोग न सता सकें तथा सब लोग स्वस्थ होकर वीर रहें ॥६॥
टिप्पणी
६−(ऋतेन)। सत्यधर्मेण। दृढभावेन। (स्थूणाम्)। रास्नासास्नास्थूणावीणाः। उ० ३।१५। इति ष्ठा-न प्रत्ययः, आकारस्य ऊकारः। गृहस्तम्भम्। (अधि रोह)। अधितिष्ठ। (वंश)। वन सेवनशब्दयोः-श प्रत्ययः। यद्वा। वश कान्तौ-अच् घञ् वा, नुम् च। हे वेणुस्तम्भ। (उग्रः)। प्रचण्डः। सुदृढः। (विराजन्)। विशेषेण दीप्यमानः सन्। (अप वृङ्क्ष्व)। वृजी वर्जने, रुधादिः। अपवर्जय। (शत्रून्)। हिंसकान् सिंहादीन् रोगान् वा। (ते)। तव। (मा रिषन्)। रिष हिंसायाम्। हिंसिता मा भूवन्। (उपसत्तारः)। षद्लृ गतिविषादयोः-तृच्। उपसदनशीलाः। निवासिनः। (गृहाणाम्)। सदनानाम्। (शाले)। हे भवन। (शतम्)। (शरदः)। (जीवेम)। प्राणान् धरेम। (सर्ववीराः)। सर्ववीरपुरुषसमेताः ॥
विषय
शतं जीव शरदः सर्ववीरा:
पदार्थ
१. हे (वंश) = बाँस! तू (ऋतेन) = अपने ऋत से [Right]-सीधेपन से (स्थूणाम्) = स्तम्भ पर (अधिरोह) = आरोहण करनेवाला हो। खम्भों पर सीधे बाँस रक्खे जाएँ। (उन:) = खूब (तेजस्वी) = दृढ़ (विराजन्) = विशिष्ट रूप से दीप्त होता हुआ तू (शत्रून्) = हमारे शत्रुरूप शीतोष्ण आदि द्वन्द्वों को (अपवृङ्क्ष्व) = काटनेवाला हो-सरदी-गरमी आदि से तू बचानेवाला हो। २. हे (शाले) = भवन! (ते गृहाणाम्) = तेरे कमरों में (उपसत्तार:) = निवास करनेवाले (मा रिषन्) = हिंसित न हों। हम (सर्ववीरा:) = घर में रहनेवाले सब वीर बनकर (शतं शरदः) = सौ वर्ष तक जीवेम-जीएँ।
भावार्थ
घर हमें सरदी-गरमी आदि से रक्षित करनेवाला हो। इसमें रहनेवाले सभी जन वीर व दीर्घजीवी हों।
भाषार्थ
(वंश१) हे वंश! (ऋतेन) विधान द्वारा (स्थूणाम्) खम्भे पर अधिरोह आरोहण कर, (उग्र:) उग्र अर्थात् न टूटता-फूटता तू (विराजन्) विराजता हुआ (शत्रून२) शत्रुओं को (अप वृङ्क्ष्व) हटाकर वर्जित कर। (शाले) हे विशाल कोठी! (ते) तेरे (गृहाणाम्) घरों को (उप=उपेत्य) प्राप्त कर (सत्तारः) बैठने अर्थात् रहनेवाले (मा रिषन्) दुःखी या हिंसित न हों, (सर्ववीराः) सब वीर हुए (शतं शरदः) सौ शरद ऋतुओं तक (जीवेम) हम जीवित हों।
टिप्पणी
[मन्त्र ५ में तो सम्भवत: झोंपड़ी का वर्णन हुआ है, और मन्त्र ६ में विशाल कोठी का। तभी शाला में "गृहाणाम्" द्वारा नाना गृहों या कमरों का कथन हुआ है। वंश का अर्थ है बांस। प्रत्येक गृह की छत्त में सुदृढ़ बाँस को, कड़ी रूप में स्थापित करना कहा है।] [१. वंश=बांस, "वने शेते" इति। २. शाला में निवास करने से अपने शरीर तथा सन्तानों और सम्पत्ति की रक्षा हो जाती है। शत्रु उसका विनाश नहीं कर पाते। अतः शाला को शत्रुओं से वर्जित करनेवाली कहा है।]
विषय
बड़े २ भवन बनाने का उपदेश ।
भावार्थ
वंश को ध्वजा के समान उन्नत रखने का उपदेश करते हैं । (वंश) ध्वजादण्ड के समान हे वंश ! जिस प्रकार ध्वजादण्ड अपने बल से विशाल शाला के स्थूल स्तम्भ के आगे चढ़ाया जाता है, उसी प्रकार (उग्रः) तू बलवान् होकर (ऋतेन) सत्य के बल से (स्थूणाम्) दृढ़ आधारस्तम्भ पर (अधि रोह) खड़ा रह और (विराजन्) विशेष प्रकार से शोभा देकर (शत्रून्) अत्रुओं को (वृङ्क्ष्व) निवारण कर। हे शाले ! (ते) तेरे भीतर (गृहाणाम् उपसत्तारः) गृहों को बसाने वाले या गृहों, कमरों में बैठने वाले (मा रिषन्) क्लेश को प्राप्त न हों और हम (सर्ववीराः) सब पुत्रों सहित (शतं जीवेम) सौ वर्षो तक जीवन व्यतीत करें ।
टिप्पणी
(प्र०) ‘स्थूणाऽधि’, (तृ० च०) सत्तारोत्र विराजां जीवाम् शरदश्शतानि’ इति पैप्प० सं० । ‘उपसत्तारः शाले-सुवीराः’ इति ह्विटनिकामितः पाठः । ‘मा ते ऋषन्’ इति सायणसम्मतः पाठ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । वास्तोष्पतीयम् शालासूक्तम् । वास्तोष्पतिः शाला च देवते । १,४,५ त्रिष्टुभः । २ विराड् जगती । ३ बृहती । ६ शक्वरीगर्भा जगती । ७ आर्षी अनुष्टुप् । ८ भुरिग् । ९ अनुष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Architecture
Meaning
O Vansha, centre pillar of the house, flag pole of the family, family of the ancestral line, by virtue of the truth and law of Divinity, rise on the firm foundation, shining bright and blazing with honour and lustre, ward off and uproot all enemies and negativities. Let the inmates of the quarters of the house never suffer any hurt or injury. O sweet home, we pray we may live a full hundred years, all blest with noble progeny.
Translation
O flag-pole, mount upon the central pillar with righteousness. Formidable and glorious, keep our enemies away. O house, may those, who live in you, never be harmed. May we live through a hundred autumns with all our sons (and grand sons).
Translation
Let the bamboo-pole bearing flag strong, and chining forth a far mount over the pillar and keep off our enemies. May not the men dwelling in the rooms of this house suffer, may we with our children enjoy the life of hundred years.
Translation
Thou Flag, in ordered fashion mount the pillar. Strong, shining forth afar, keep off our foemen. House, let not those who dwell in thy rooms suffer. May we live with all our sons, a hundred autumns.
Footnote
The Om flag should alwayshang in the house, and national flag should hang oncertain occasions.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(ऋतेन)। सत्यधर्मेण। दृढभावेन। (स्थूणाम्)। रास्नासास्नास्थूणावीणाः। उ० ३।१५। इति ष्ठा-न प्रत्ययः, आकारस्य ऊकारः। गृहस्तम्भम्। (अधि रोह)। अधितिष्ठ। (वंश)। वन सेवनशब्दयोः-श प्रत्ययः। यद्वा। वश कान्तौ-अच् घञ् वा, नुम् च। हे वेणुस्तम्भ। (उग्रः)। प्रचण्डः। सुदृढः। (विराजन्)। विशेषेण दीप्यमानः सन्। (अप वृङ्क्ष्व)। वृजी वर्जने, रुधादिः। अपवर्जय। (शत्रून्)। हिंसकान् सिंहादीन् रोगान् वा। (ते)। तव। (मा रिषन्)। रिष हिंसायाम्। हिंसिता मा भूवन्। (उपसत्तारः)। षद्लृ गतिविषादयोः-तृच्। उपसदनशीलाः। निवासिनः। (गृहाणाम्)। सदनानाम्। (शाले)। हे भवन। (शतम्)। (शरदः)। (जीवेम)। प्राणान् धरेम। (सर्ववीराः)। सर्ववीरपुरुषसमेताः ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(বংশ১) হে বংশ ! (ঋতেন) বিধান দ্বারা (স্থূণাম্) স্তম্ভে আরোহণ করো, (উগ্রঃ) উগ্র অর্থাৎ অজীর্ণ তুমি (বিরাজন্) অবস্থান করে/বিরাজমান হয়ে (শত্রূন্২) শত্রুদের (অপ বৃঙ্ক্ষ্ব) সরিয়ে/অপসারিত করে বর্জিত করো। (শালে) হে বিশাল ভবন ! (তে) তোমার (গৃহাণাম্) ঘরগুলোকে (উপ=উপেত্য) প্রাপ্ত করে (সত্তারঃ) নিবাসকারীগণ (মা রিষন্) দুঃখী বা হিংসিত না হোক, (সর্ববীরাঃ) সকলে বীর হয়ে (শতং শরদঃ) শত শরৎ-ঋতু পর্যন্ত (জীবেম) আমরা যেন জীবিত থাকি।
टिप्पणी
[মন্ত্র ৫ এ তো সম্ভবতঃ কুঁড়ে ঘরের বর্ণনা হয়েছে, এবং মন্ত্র ৬ এ বিশাল কুটিরের। তাই বাসভবনে "গৃহাণাম্" দ্বারা নানা গৃহ বা ঘরের কথন হয়েছে। বংশের অর্থ হল বাঁশ। প্রত্যেক গৃহের ছাদে সুদৃঢ় বাঁশকে, উত্তমরূপে স্থাপিত করতে বলা হয়েছে।] [১. বংশ=বাংস, "বনে শেতে" ইতি। ২. গৃহে নিবাস করলে নিজের শরীর ও সন্তানদের এবং সম্পত্তির রক্ষা হয়ে যায়। শত্রু তার বিনাশ করতে পারে না। অতঃপর গৃহকে শত্রুদের থেকে বর্জিতকারী বলা হয়েছে।]
मन्त्र विषय
নবশালানির্মাণং প্রবেশশ্চঃ
भाषार्थ
(বংশ) হে বাঁশ/বংশ তুমি (ঋতেন) নিজের সত্য দ্বারা (স্থূণাম্) গৃহস্তম্ভ [খুঁটি] তে (অধি রোহ) আরোহণ করো এবং (উগ্রঃ) দৃঢ় বা প্রচণ্ড হয়ে (বিরাজন্) বিশেষরূপে প্রকাশিত তুমি (শত্রূন্) শত্রুদের (অপ বৃঙ্ক্ষ্ব) দূরে সরিয়ে দাও/অপসারণ/অপসারিত করো। (শালে) হে শালা ! (তে) তোমার (গৃহাণাম্) গৃহে (উপসত্তারঃ) নিবাসকারী পুরুষ (মা রিষন্) দুঃখী না হোক। (সর্ববীরাঃ) সকল বীরগণের সাথে আমরা যেন (শতম্) শত (শরদঃ) শরদ্ ঋতু পর্যন্ত (জীবেম) বাঁচতে/জীবিত থাকি/জীবনধারণ করি॥৬॥
भावार्थ
মনুষ্য নিজের ঘর উঁচু, দৃঢ় ও আলোকময় তৈরি করুক যাতে চোর-ডাকাত সিংহাদি হিংসক এবং রোগ, শান্তিভঙ্গ না করতে পারে এবং সকলে সুস্থ হয়ে বীর থাকুক ॥৬॥
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