अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 4
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - शाला, वास्तोष्पतिः
छन्दः - शक्वरीगर्भा जगती
सूक्तम् - शालनिर्माण सूक्त
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इ॒मां शालां॑ सवि॒ता वा॒युरिन्द्रो॒ बृह॒स्पति॒र्नि मि॑नोतु प्रजा॒नन्। उ॒क्षन्तू॒द्ना म॒रुतो॑ घृ॒तेन॒ भगो॑ नो॒ राजा॒ नि कृ॒षिं त॑नोतु ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माम् । शाला॑म् । स॒वि॒ता । वा॒यु: । इन्द्र॑: । बृह॒स्पति॑: । नि । मि॒नो॒तु॒ । प्र॒ऽजा॒नन् । उ॒क्षन्तु॑ । उ॒द्ना । म॒रुत॑: । घृ॒तेन॑ । भग॑: । न॒: । राजा॑ । नि । कृ॒षिम् । त॒नो॒तु॒ ॥१२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इमां शालां सविता वायुरिन्द्रो बृहस्पतिर्नि मिनोतु प्रजानन्। उक्षन्तूद्ना मरुतो घृतेन भगो नो राजा नि कृषिं तनोतु ॥
स्वर रहित पद पाठइमाम् । शालाम् । सविता । वायु: । इन्द्र: । बृहस्पति: । नि । मिनोतु । प्रऽजानन् । उक्षन्तु । उद्ना । मरुत: । घृतेन । भग: । न: । राजा । नि । कृषिम् । तनोतु ॥१२.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
नवीनशाला का निर्माण और प्रवेश।
पदार्थ
(इमाम् शालाम्) इस शाला को (सविता) सबका चलानेवाला पुरुष [वा सूर्य,] (वायुः) वेगवान् पुरुष [वा पवन] (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् पुरुष [वा मेघ] और (प्रजानन्) ज्ञानवान् (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े कामों का रक्षक पुरुष [प्रत्येक] (नि मिनोतु) जमाकर बनावे। (मरुतः) शूर देवता [विद्वान् लोग] (उद्ना) जल से और (घृतेन) घी से (उक्षन्तु) सींचें और (भगः) भाग्यवान् (राजा) राजा [प्रधान पुरुष] (नः) हमारेलिये (कृषिम्) खेती को (नि) सदैव (तनोतु) बढ़ावे ॥४॥
भावार्थ
शाला निर्माण में प्रधान और सब कार्यकर्ता कर्म-कुशल हों, घाम, वायु और मेघ, तथा जल, घी आदि सामग्री के लिये यथावत् अवकाश रहे। और निर्वाह के लिए खेतीविद्या का सत्कार करें ॥४॥
टिप्पणी
४−(इमाम्)। रच्यमानाम्। (शालाम्)। गृहम् (सविता)। सर्वस्य प्रेरकः पुरुषः सूर्यो वा। (वायुः)। वेगवान् पुरुषः पवनो वा। (इन्द्रः)। ऐश्वर्यवान् पुरुषो मेघो वा। (बृहस्पतिः)। अ० १।८।२। बृहतां कर्मणां रक्षकः पुरुषः। (निमिनोतु)। डुमिञ् प्रक्षेपणे। स्थापयतु। दृढां करोतु। (प्रजानन्)। शालानिर्माणप्रकारं प्रकर्षेण जानन्। (उक्षन्तु)। सिञ्चन्तु। (उद्ना)। पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३। इति उदकशब्दस्य उदन्। भसंज्ञायाम् अकारलोपः। उदकेन। (मरुतः)। अ० १।२०।१। शत्रूणां मारणशीलाः। शूराः। (घृतेन)। घृ सेके दीप्तौ-क्त। आज्येन। (भगः)। अ० १।२६।२। भजनीयः। भाग्यवान्। (नः)। अस्मभ्यम्। (राजा)। प्रतापी। प्रधानः। (कृषिम्)। इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। इति कृष विलेखने-इन्। स च कित्। भूमिकर्षणविद्याम्। (नि)। नितराम्। (तनोतु)। विस्तारयतु ॥
विषय
सविता, वायुः, इन्द्रः बृहस्पतिः
पदार्थ
१. (इमां शालाम्) = इस घर को (सविता) = निर्माण की वृत्तिवाला, (वायु:) = क्रियाशील, (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय,( बृहस्पतिः) = ज्ञानी पुरुष (प्रजानन्) = सम्यक् जानता हुआ (निमिनोतु) = स्तम्भ आदि गाड़ने के द्वारा स्थिर बनाएँ। इस शाला में सूर्य-किरणों, सविता व वायु का प्रवेश ठीक से हो तथा इसमें रहनेवाले जितेन्द्रिय [इन्द्र] व ज्ञानी [बृहस्पति] हों। २. (मरुतः) = वृष्टि लानेवाली वायुएँ इन घरों को (उद्ना) = उदक से और परिणामतः (घृतेन) = घृत से (उक्षन्तु) = सिक्त करें। वृष्टि होकर घास आदि के प्राचुर्य से पशुओं का चारा ठीक मिलता है और फिर दूध-घी की कमी नहीं रहती। ३. इस राष्ट्र में (भग:) = ऐश्वर्य की वृद्धि करनेवाला राजा-प्रशासक (न:) = हमारे लिए (कृषिम्) = कृषि को (निमिनोतु) = निश्चय से विस्तृत करे, कृषि द्वारा प्रभूत अन्न उपजाने की व्यवस्था करे।
भावार्थ
घर में सूर्य की किरणे व वायु का प्रवेश ठीक हों। इसमें जितेन्द्रिय व ज्ञानी पुरुषों का वास हो। वायुएँ वृष्टि को लानेवाली हों। राजा भी कृषि के विस्तार का ध्यान करे।
भाषार्थ
(इमाम् शालाम्) इस शाला को (सविता) सविता, (वायुः) वायु, (इन्द्रः) प्रकाशैश्वर्यवाला आदित्य [सुरक्षित करे], (प्रजानन्) शाला निर्माण को जाननेवाला (बृहस्पतिः) बृहती वेदवाक् का पति (निमिनोतु) निर्माण करे या निर्माण करनेवाली वस्तुओं का इसमें प्रक्षेपण करे (मरुतः) मानसून वायुएँ (उद्ना) जल द्वारा, (घृतेन) तथा घृत द्वारा (उक्षन्तु) सिंचन करें, (न:) हमारा (भगः) भाग्यवान् (राजा) राष्ट्रपति (कृषिम्) कृषि का (नितनोतु) नितरां विस्तार करे।
टिप्पणी
[वायु, उदित आदित्य और "सविता अर्थात् उदीयमान आदित्य"=ये हमारी रक्षा करते हैं। अग्नि आदि की व्याख्या देखो (अथर्व० ३।११।४)। घृतेन=वर्षा द्वारा चारा मिलने पर गौओं से प्राप्त घृत। अथवा "घृ रक्षणे" क्षरित हुए जल द्वारा।]
विषय
बड़े २ भवन बनाने का उपदेश ।
भावार्थ
(इमां शालां) इस शाला को (सविता) सूर्य (इन्द्रः) विद्युत्, (वायुः) वायु, (बृहस्पतिः) और वेदप्रवक्ता विद्वान् ये सब (प्रजानन्) उत्कृष्ट रूप में प्रकट होकर (नि भिनोतु) इसको उत्तम रूप से बनावें । (मरुतः) वायुएं और वायुविद्या को जानने हारे शिल्पी एवं सम्पन्न व्यापारीगण और प्रजाएं भी (घृतेन) सेचनसमर्थ (उद्ना) जल से (उक्षन्तु) उसका सेचन करें और (नः) हमारा (भगः) ऐश्वर्यवान् (राजा) शोभा सम्पादन करने हारे शिल्पी (कृषिं) नाना प्रकार के विलेखन आदि चित्रकार्यों को (नि तनोतु) करें । अथवा भाविनी संज्ञा को ध्यान में रख कर कहा है कि हमारा (भगः राजा) भाग्यवान् राजा, मुख्य पुरुष ही (कृषिं नि तनोतु) शाला बनवाने के लिये नींव आदि खुदवावे, या खेती करे, या करावे ।
टिप्पणी
(प्र०, द्वि०) ‘वायुरग्निस्त्वष्टा होता नि०’ (च०) ‘भगो नः सोमो’, ‘उक्षन्तून्ना’ इति पैप्प० सं० । (तृ०) ‘उक्षन्तूद्गा’ इति शं० पा० । ‘उक्षन्तु उत्त्वा’ इति क्वचित् । ‘उक्षन्तून्ना’ इत्यपि बहुत्र ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः । वास्तोष्पतीयम् शालासूक्तम् । वास्तोष्पतिः शाला च देवते । १,४,५ त्रिष्टुभः । २ विराड् जगती । ३ बृहती । ६ शक्वरीगर्भा जगती । ७ आर्षी अनुष्टुप् । ८ भुरिग् । ९ अनुष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Architecture
Meaning
Let Savita, specialist of sun light, Vayu, specialist of air and circulation, winds and wind directions, Indra, specialist of energy and electricity, and Brhaspati, specialist of light and space, each one knowing his subject and specialisation, design and build this house. Let the maruts, vibrant engineers, sprinkle it with ghrta and water. And let the ruler and the lord of prosperity, Bhaga, expand our farming, storage and distribution.
Translation
May the impeller Lord, the omnipresent Lord, the resplendent Lord, the Lord supreme, knowing well bless us in the construction of this house. May the cloud-bearing winds sprinkle it with water and clarified butter. May the sovereign Lord of all round prosperity make our cultivation flourish.
Translation
May the Sun, air, electricity, and skilful expert man make this house stable. May the priests of Yajna sprinkle it with water and ghee. May the Lord of fortunes make our peasantry fruitful.
Translation
May the Sun, Air, Cloud and an intelligent, skilled artisan build this house. May tradersfill it with water and wealth. May fortunate king makeour ploughing fruitful.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(इमाम्)। रच्यमानाम्। (शालाम्)। गृहम् (सविता)। सर्वस्य प्रेरकः पुरुषः सूर्यो वा। (वायुः)। वेगवान् पुरुषः पवनो वा। (इन्द्रः)। ऐश्वर्यवान् पुरुषो मेघो वा। (बृहस्पतिः)। अ० १।८।२। बृहतां कर्मणां रक्षकः पुरुषः। (निमिनोतु)। डुमिञ् प्रक्षेपणे। स्थापयतु। दृढां करोतु। (प्रजानन्)। शालानिर्माणप्रकारं प्रकर्षेण जानन्। (उक्षन्तु)। सिञ्चन्तु। (उद्ना)। पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३। इति उदकशब्दस्य उदन्। भसंज्ञायाम् अकारलोपः। उदकेन। (मरुतः)। अ० १।२०।१। शत्रूणां मारणशीलाः। शूराः। (घृतेन)। घृ सेके दीप्तौ-क्त। आज्येन। (भगः)। अ० १।२६।२। भजनीयः। भाग्यवान्। (नः)। अस्मभ्यम्। (राजा)। प्रतापी। प्रधानः। (कृषिम्)। इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। इति कृष विलेखने-इन्। स च कित्। भूमिकर्षणविद्याम्। (नि)। नितराम्। (तनोतु)। विस्तारयतु ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(ইমাম্ শালাম্) এই শালা/বাসভবনকে (সবিতা) সবিতা, (বায়ুঃ) বায়ু, (ইন্দ্রঃ) প্রকাশৈশ্বর্যসম্পন্ন আদিত্য [সুরক্ষিত করুক], (প্রজানন্) আবাস নির্মাণ সম্পর্কে জ্ঞাত (বৃহস্পতিঃ) বৃহতী বেদবাণীর পতি (নিমিনোতু) নির্মাণ করুক বা নির্মাণে সহায়ক বস্তুগুলোকে এর মধ্যে প্রক্ষেপণ করুক। (মরুতঃ) বায়ু (উদ্না) জল দ্বারা, (ঘৃতেন্) এবং ঘৃত দ্বারা (উক্ষন্তু) সিঞ্চন করুক, (নঃ) আমাদের (ভগঃ) ভাগ্যবান্ (রাজা) রাষ্ট্রপতি (কৃষিম্) কৃষির (নিতনোতু) নিত্য বিস্তার করুক।
टिप्पणी
[বায়ু, উদিত আদিত্য, এবং "সবিতা অর্থাৎ উদীয়মান আদিত্য"= এরা আমাদের রক্ষা করে। অগ্নি আদির ব্যাখ্যা দেখো (অথর্ব০ ৩।১১।৪)। ঘৃতেন =বর্ষা দ্বারা তৃণ পাওয়ার পর গরুদের থেকে প্রাপ্ত ঘৃত। অথবা “ঘৃ রক্ষণে" ক্ষরিত হওয়া জল দ্বারা।]
मन्त्र विषय
নবশালানির্মাণং প্রবেশশ্চঃ
भाषार्थ
(ইমাম্ শালাম্) এই শালাকে/গৃহকে (সবিতা) সর্বপ্রেরক পুরুষ [বা সূর্য] (বায়ুঃ) বেগবান্ পুরুষ [বা পবন] (ইন্দ্রঃ) ঐশ্বর্যবান্ পুরুষ [বা মেঘ] এবং (প্রজানন্) জ্ঞানবান (বৃহস্পতিঃ) বৃহৎ-বৃহৎ কার্যের রক্ষক পুরুষ [প্রত্যেকে] (নি মিনোতু) দৃঢ়ভাবে স্থাপিত করুক। (মরুতঃ) বীর দেবগণ [বিদ্বানগণ] (উদ্না) জল দ্বারা এবং (ঘৃতেন) ঘৃত দ্বারা (উক্ষন্তু) সিঞ্চণ করুক এবং (ভগঃ) ভাগ্যবান্ (রাজা) রাজা [প্রধান পুরুষ] (নঃ) আমাদের জন্য (কৃষিম্) কৃষিকে (নি) সদৈব (তনোতু) বৃদ্ধি/বর্ধিত করুক॥৪॥
भावार्थ
শালা/গৃহ নির্মাণে প্রধান এবং সকল কার্যকর্তা কর্ম-কুশল হোক, রোদ, বায়ু ও মেঘ, এবং জল, ঘী আদি সামগ্রীর জন্য যথাবৎ অবকাশ/সুযোগ থাকুক। এবং নির্বাহের জন্য কৃষিবিদ্যার সৎকার করুক ॥৪॥
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