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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मृगारः देवता - द्यावापृथिवी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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    प्र॑ति॒ष्ठे ह्यभ॑वतं॒ वसू॑नां॒ प्रवृ॑द्धे देवी सुभगे उरूची। द्यावा॑पृथिवी॒ भव॑तं मे स्यो॒ने ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ति॒स्थे इति॑ प्र॒ति॒ऽस्थे । हि । अभ॑वतम् । वसू॑नाम् । प्रवृ॑ध्दे इति॒ प्रऽवृ॑ध्दे । दे॒वी॒ इति॑ । सु॒भगे॒ इति॑ सुऽभगे । उ॒रू॒ची॒ इति॑ । द्यावा॑पृथिवी॒ इति॑ । भव॑तम् । मे॒ । स्यो॒ने इति॑ ।ते इति॑ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतिष्ठे ह्यभवतं वसूनां प्रवृद्धे देवी सुभगे उरूची। द्यावापृथिवी भवतं मे स्योने ते नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतिस्थे इति प्रतिऽस्थे । हि । अभवतम् । वसूनाम् । प्रवृध्दे इति प्रऽवृध्दे । देवी इति । सुभगे इति सुऽभगे । उरूची इति । द्यावापृथिवी इति । भवतम् । मे । स्योने इति ।ते इति । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रवृद्धे) हे बड़ी वृद्धिवाली, (देवी) दिव्यस्वरूप (सुभगे) बड़े ऐश्वर्यवाली, (उरूची) बहुत पदार्थ प्राप्त करानेवाली तुम दोनों (हि) ही (वसूनाम्) धनों की (प्रतिष्ठे) आधार (अभवतम्) हुई हो। (द्यावापृथिवी) हे सूर्य और पृथिवी ! तुम दोनों (मे) मेरे लिये (स्योने) सुखवती (भवतम्) होओ। (ते) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य सूर्य और पृथिवी के विज्ञान से अनेक ऐश्वर्य प्राप्त करके सुखी रहें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(प्रतिष्ठे) म० १। आधारभूते (हि) अवश्यम् (अभवतम्) (वसूनाम्) धनानाम् (प्रवृद्धे) हे प्रकर्षेण वृद्धियुक्ते (देवी) हे देव्यौ दिव्यस्वरूपे (सुभगे) हे शोभनैश्वर्ये (उरूची) अ० ३।३।१। उरवो बहवः पदार्था अञ्चन्ति गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति याभ्यां सकाशात् ते उरूच्यौ। बहुपदार्थप्रापिके (द्यावापृथिवी) हे सूर्यभूलोकौ ! भवतम् (मे) मह्यम् (स्योने) अ० १।३३।१। सुखवत्यौ। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    'प्रवृद्धे-सुभगे' द्यावापृथिवी

    पदार्थ

    हे (द्यावापृथिवी) = धुलोक व पृथिवीलोक! आप (हि) = निश्चय से (वसूनाम्) = निवास के लिए आवश्यक तत्वों के (प्रतिष्ठे अभवतम्) = आधार हो। आप दोनों (प्रवृद्धे) = बड़े विशाल, (सुभगे) = उत्तम ऐश्वयों से युक्त देवी-प्रकाश आदि दिव्य गुणों से युक्त (उरूची) = बड़े विस्तारवाले (भवतम्) = हो। आप दोनों (मे) = मेरे लिए (स्बोने भवतम्) = सुख देनेवाले होओ और (ते) = आप दोनों (न:) = हमें (अंहसः मुञ्चतम्) = पाप से मुक्त करो।

    भावार्थ

    ये द्यावापृथिवी सब वसुओं के आधार हैं। ये प्रकाश व सौभाग्य प्राप्त करानेवाले हैं। ये विशाल द्यावापृथिवी हमें पाप से बचाएँ।

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    भाषार्थ

    (हि) निश्चय से (वसूनाम्) संपत्तियों के (प्रतिष्ठे) प्रकर्षरूप में स्थिति-स्थान, (प्रवृद्धे) परिमाणों में बहुत बढ़ी हुई, (देवी) दान देनेवाली [वसुओं का दान], (सुभगे) सौभाग्यप्रद, (उरूची) सदा विस्तारवाली (अभवतम्) तुम दोनों हुई (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी, (मे) मेरे लिए (स्योने) सुखस्वरूप (भवतम्) होवें, (तौ) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।

    टिप्पणी

    [देवी= देवो दानाद्वा, द्वीपनाद्वा, द्योतनाद्वा, द्युस्थानो भवतीति वा (निरुक्त ७।४।१५)। स्योनम् सुखनाम (निघं० ३।६)।]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे सूर्य पृथिवी के तुल्य पितृशक्ति और मातृशक्ति ! तुम दोनों (वसूनां प्रतिष्ठे हि अभवतम्) वास करने वाले लोकों और प्राणियों के आश्रय स्थान हो। तुम दोनों (प्रवृद्धे) बहुमात्रा में संसार में हो, (सुभगे) उत्तम ऐश्वर्य देने वाले हो, तथा सर्वत्र विद्यमान हो। (उरूची) हे (द्यावापृथिवी) पितृशक्ति और मातृशक्ति ! तुम दोनों मेरे लिये (स्योने) सुखकारी (भवतं) हो और (ते) वे दोनों (नः) हमें (अंहसः मुञ्चतम्) पाप से मुक्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मृगार ऋषिः। तृतीयं मृगारसूक्तम्। १ पुरोष्टिजगती। शक्वरगर्भातिमध्येज्योतिः । २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom fom Sin

    Meaning

    Both heaven and earth are indeed the mainstay of the Vasus, abodes of life sustainers. They are ancient and exalted, divinely generous, blissful givers of good fortune and expansive beyond all measure. May both heaven and earth be gracious to me and save us from evil and affliction.

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    Translation

    You two have become permanent seat of goodly treasures. You two are very ancient, divine, full of glory and far- extended. O heaven and earth, may you two be gracious to me. As such, may both of you free us from sin.

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    Translation

    These two are the sheltering abode of all the creatures desiring locality to live, they are expansive, wonderous, full of fortunes and far extending. Let these heaven and earth be auspicious to me. Let these twain become the sources of releasing us from grief and troubles.

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    Translation

    Indeed, Ye are the supports of all living beings, grown strong, divine, blessed, and far-extending. To me, O divine powers of Control and Love, be Ye auspicious. May Ye twain, deliver us from sin

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(प्रतिष्ठे) म० १। आधारभूते (हि) अवश्यम् (अभवतम्) (वसूनाम्) धनानाम् (प्रवृद्धे) हे प्रकर्षेण वृद्धियुक्ते (देवी) हे देव्यौ दिव्यस्वरूपे (सुभगे) हे शोभनैश्वर्ये (उरूची) अ० ३।३।१। उरवो बहवः पदार्था अञ्चन्ति गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति याभ्यां सकाशात् ते उरूच्यौ। बहुपदार्थप्रापिके (द्यावापृथिवी) हे सूर्यभूलोकौ ! भवतम् (मे) मह्यम् (स्योने) अ० १।३३।१। सुखवत्यौ। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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