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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मृगारः देवता - द्यावापृथिवी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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    ये की॒लाले॑न त॒र्पय॑थो॒ ये घृ॒तेन॒ याभ्या॑मृ॒ते न किं च॒न श॑क्नु॒वन्ति॑। द्यावा॑पृथिवी॒ भव॑तं मे स्यो॒ने ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये इति॑ । की॒लाले॑न । त॒र्पय॑थ: । ये इति॑ । घृ॒तेन॑ । याभ्या॑म्‌ । ऋ॒ते । न । किम् । च॒न । श॒क्नुवन्ति॑ । द्यावा॑पृथिवी॒ इति॑ । भव॑तम् । मे॒ । स्यो॒ने इति॑ । ते इति॑ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये कीलालेन तर्पयथो ये घृतेन याभ्यामृते न किं चन शक्नुवन्ति। द्यावापृथिवी भवतं मे स्योने ते नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये इति । कीलालेन । तर्पयथ: । ये इति । घृतेन । याभ्याम्‌ । ऋते । न । किम् । चन । शक्नुवन्ति । द्यावापृथिवी इति । भवतम् । मे । स्योने इति । ते इति । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 26; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो तुम दोनों (कीलालेन) जाठराग्नि के निवारण करनेवाले अन्न से, और (ये) जो तुम दोनों (घृतेन) जल से (तर्पयथः) तृप्त करती हो, (याभ्याम् ऋते) जिन तुम दोनों के बिना [सब प्राणी] (किम् चन) कुछ भी (न) नहीं (शक्नुवन्ति) शक्ति रखते हैं। (द्यावापृथिवी) हे सूर्य और पृथिवी ! (मे) मेरे लिये (स्योने) सुखवती (भवतम्) हो। (ते) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥६॥

    भावार्थ

    सूर्य और पृथिवी के प्रभाव से अन्न और जल आदि पदार्थ उत्पन्न होकर जगत् का उपकार करते हैं। उनके विज्ञान से सब मनुष्य सुखी रहें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(ये) युवाम् (कीलालेन) कील-अलेन। कील बन्धने खण्डने च घञ् क वा। अल निवारणे-अण्। कीलं जाठराग्नेर्ज्वालामलति वारयतीति। कीलालम् अन्नम्-निघ० २।७। अन्नेन (तर्पपथः) (घृतेन) उदकेन निघ० १।१२। (याभ्याम्) अन्यारादितरर्ते०। पा० २।३।२९। इति पञ्चमी (ऋते) विना (न) निषेधे (किञ्चन) यथातथा। किमपि (शक्नुवन्ति) शक्ता भवन्ति सर्वे जनाः। अन्यत् पूर्ववत्। म० २ ॥

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    विषय

    अन्न व जल

    पदार्थ

    १. हे (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलाको! (ये) = जो आप (कीलालेन) = [कीलालम् अत्रम् नि० २.७] अन्न के द्वारा (तर्पयथ:) = प्राणियों को तृप्त करते हो, (ये) = जो आप (घृतेन) = मलों के क्षरण करनेवाले व स्वास्थ्य की दीसि को प्राप्त करानेवाले 'जल' से प्राणियों को तृप्त करते हो, (याभ्याम् ऋते) = जिन अन्न व जल को प्राप्त करानेवाले द्यावापृथिवी के बिना (किं चन न शक्नुवन्ति) = कुछ भी कार्य नहीं कर पाते, २. वे द्यावापृथिवी (मे) = मेरे लिए (स्योने) = सुखद (भवतम्) = हों, (ते) = वे (न:) = हमें (अहंसः) = पाप से (मुञ्चतम्) = मुक्त करें।

    भावार्थ

    ये द्यावापृथिवी हमारे पोषण के लिए 'अन्न व जल' प्राप्त कराके हमें सब कार्यों को करने के लिए सशक्त बनाते हैं। ये द्यावापृथिवी हमें सुख दें और पाप-मुक्त करें।

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    भाषार्थ

    (ये) जो तुम दो (कीलालेन) अन्न द्वारा (तर्पयथः) तृप्त करते हो, (ये) जो (घृतेन) घृत द्वारा तृप्त करते हो, (याभ्याम्, ऋते) जिन दो के बिना (किम् चन) कुछ भी (न शक्नुवन्ति) नहीं कर सकते, वे (द्यावापृथिवी) द्यौः और पृथिवी (मे) मेरे लिए (स्योने भवतम्) सुखप्रद होवें। (ते) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।

    टिप्पणी

    [कीलालम् अन्ननाम (निघं० २।७)। कील बन्धने (भ्वादिः)+ अलम् पर्याप्तम् (भ्वादिः), जो शरीर और शरीरावयवों को जीवात्मा के साथ बाँधे रखने में पर्याप्त हो, वह अन्न। घृतम्= जल भी; "घृतम् उदकनाम" (निघं० १।१२)।]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे पितृशक्ति और मातृशक्ति ! तुम (ये) जो दोनों (कीलालेन) अन्न से समस्त संसार को (तर्पयथः) तृप्त करती हो, (ये घृतेन) और जो तुम दोनों घृत=तेज, ज्ञान तथा जल और खाद्य पदार्थों द्वारा समस्त विश्व को पूरित करती हो, (याभ्याम् ऋते) जिनके बिना (किंचन) कुछ भी (न शक्नुवन्ति) नहीं कर सकते, (मे स्योने भवतं) वे तुम दोनों मुझे सुखकारी होओ, (ते नः अंहसः मुखतम्) वे तुम दोनों हमें पाप से मुक्त करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मृगार ऋषिः। तृतीयं मृगारसूक्तम्। १ पुरोष्टिजगती। शक्वरगर्भातिमध्येज्योतिः । २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom fom Sin

    Meaning

    You, O heaven and earth, who replete the world with food and drink and gratify living beings, without whom no one can possibly do anything, pray be kind and gracious to me and save us from sin and frustration.

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    Translation

    You two, who gratify with delicious drink, and with clarified butter; without whom, you two, one cannot do anything whatsoever; O heaven and earth, may you two be gracious to me. As such, may both of you free us from sin.

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    Translation

    These two are such twain which satisfy the world with water and grain, which fulfill the world with light and without them all the creatures are good for nothing. Let these heaven and earth be auspicious to me. Let these become the sources of releasing us from grief and troubles.

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    Translation

    Ye who supply food, knowledge and water to the world, Ye without whom men have no strength or power, to me, O Divine powers, be Ye auspicious. May Ye twain, deliver us from sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(ये) युवाम् (कीलालेन) कील-अलेन। कील बन्धने खण्डने च घञ् क वा। अल निवारणे-अण्। कीलं जाठराग्नेर्ज्वालामलति वारयतीति। कीलालम् अन्नम्-निघ० २।७। अन्नेन (तर्पपथः) (घृतेन) उदकेन निघ० १।१२। (याभ्याम्) अन्यारादितरर्ते०। पा० २।३।२९। इति पञ्चमी (ऋते) विना (न) निषेधे (किञ्चन) यथातथा। किमपि (शक्नुवन्ति) शक्ता भवन्ति सर्वे जनाः। अन्यत् पूर्ववत्। म० २ ॥

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