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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मृगारः देवता - द्यावापृथिवी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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    ये उ॒स्रिया॑ बिभृ॒थो ये वन॒स्पती॒न्ययो॑र्वां॒ विश्वा॒ भुव॑नान्य॒न्तः। द्यावा॑पृथिवी॒ भव॑तं मे स्यो॒ने ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये इति॑ । उ॒स्रिया॑: । बि॒भृ॒थ: । ये इति॑ । वन॒स्पती॑न् । ययो॑: । वा॒म् । विश्वा॑ । भुव॑नानि । अ॒न्त: । द्यावा॑पृथिवी॒ इति॑ । भव॑तम् । मे॒ । स्यो॒ने इति॑ । ते इति॑ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये उस्रिया बिभृथो ये वनस्पतीन्ययोर्वां विश्वा भुवनान्यन्तः। द्यावापृथिवी भवतं मे स्योने ते नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये इति । उस्रिया: । बिभृथ: । ये इति । वनस्पतीन् । ययो: । वाम् । विश्वा । भुवनानि । अन्त: । द्यावापृथिवी इति । भवतम् । मे । स्योने इति । ते इति । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 26; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो तुम दोनों (उस्रियाः) गौओं को और (ये) जो तुम दोनों (वनस्पतीन्) वनस्पतियों को (बिभृथः) धारण करती हो, (ययोः वाम्) जिन तुम दोनों के (अन्तः) भीतर (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक हैं। (द्यावापृथिवी) हे सूर्य और पृथिवी ! तुम दोनों (मे) मेरे लिये.... म० २ ॥५॥

    भावार्थ

    सूर्य के ताप और पृथिवी के संयोग से किरण द्वारा वृष्टि होकर गौ आदि सब पशु और सब वृक्ष पुष्ट होते हैं और सब लोक उनके ही प्रभाव में ठहरे हैं ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(ये) युवाम् (उस्रियाः) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति वस निवासे-रक्, सम्प्रसारणं च। वसति क्षीरादिहविरस्याम्-इति उस्रा। ततः पृषोदरादित्वात्स्वार्थे घ। उस्रियेति गोनामोत्स्राविणोऽस्यां भोगाः। उस्रेति च, निरु० ४।१९। गाः (बिभृथः) धारयथः (वनस्पतीन्) अ० १।१२।३। वनानां सेवकानां पालकान्। वृक्षान् (ययोः) (वाम्) युवयोः (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (भुवनानि) अ० २।१।३। लोकान्। (अन्तः) मध्ये। अन्यत् पूर्ववत्-म० २ ॥

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    विषय

    उस्त्रिया: वनस्पतीन् [ गोदुग्ध, फल व वानस्पतिक भोजन]

    पदार्थ

    १. हे (द्यावापृथिवी) = धुलोक व पृथिवीलोको ! (ये) = जो आप (उस्त्रिया:) = गौओं को (विभृथ:) = धारण करते हो, (ये वनस्पतीन्) = जो आप वनस्पतियों को धारण करते हो, (ययो:वाम्) = जिन आप दोनों के अन्तः अन्दर विश्वा (भुवनानि) = सब प्राणियों की स्थिति है, २. वे द्यावापृथिवी (मे) = मेरे लिए (स्योने भवतम्) = सुखद हों और ते वे (न:) = हमें (अहंस: मुञ्चतम्) = पाप से मुक्त करें।

    भावार्थ

    माता-पिता के स्थानापन्न ये द्यावापृथिवी हमारे खान-पान के लिए गोदग्ध तथा विविध वनस्पतियों को प्राप्त कराते हैं। इसप्रकार ये सब प्राणियों का धारण करते हैं। ये हमारे लिए सुख देनेवाले हों और हमें पाप से बचाएँ।

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    भाषार्थ

    (ये द्यावापृथिवी) जो तुम हे द्यौ: और पृथिवी! (उस्रियाः) रश्मिवालों [चन्द्र, नक्षत्र-ताराओं] को, तथा (ये वनस्पतीन्) जो वनस्पतियों को (विभृथः) धारित-पोषित करती हो, अथवा (ययोः, वां, अन्तः) जिन दो के भीतर (विश्वा भुवनानि) सब भुवन हैं; वे तुम (मे) मेरे लिए (स्योने) सुखपद (भवतम्) होओ, (ते) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।

    टिप्पणी

    [उस्रा:= रश्मियाँ, उस्रिया:= रश्मिवाले। अंहसः= अन्धकार और क्षुधारूपी पाप से। वनस्पतियों और रश्मियों का परस्पर सम्बन्ध है।]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (ये) जो तुम दोनों पितृशक्ति और मातृशक्ति (उस्त्रियाः बिभृथः) गौओं का पालन करती हो, (ये वनस्पतीन्) जो तुम दोनों सब वृक्ष वनस्पतियों का पालन करती हो, (ययोः अन्तः) जिन दोनों के बीच में (विश्वा भुवनानि) समस्त भुवन विद्यमान हैं वे सूर्य और पृथिवी के तुल्य पितृशक्ति और मातृशक्ति (मे स्योने भवतम्) मुझे सुखकारी हों, (ते नः अंहसः मुञ्चताम्) वे दोनों हमें पाप से मुक्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मृगार ऋषिः। तृतीयं मृगारसूक्तम्। १ पुरोष्टिजगती। शक्वरगर्भातिमध्येज्योतिः । २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom fom Sin

    Meaning

    You, O heaven and earth, who bear and sustain the cows, herbs and trees, who bear and sustain all worlds of existence in your wide expanse, pray be kind and gracious to me and save us from sin and starvation.

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    Translation

    You two, who support ruddy cows, who support vegetation - (vanaspati, forest trees), and within whom you two are all the beings contained, O heaven and earth, may you two be pracious to me. As such, may both of you free us from sin.

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    Translation

    These two are such objects which cherish Cows, which cherish plants and within the range of which all creatures are included. Let these heaven and earth be auspicious to me. Let these twain become the sources of releasing us from grief and troubles.

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    Translation

    Ye by whom cows and forest trees are cherished, within whose range all creatures are included, to me, O divine powers, be Ye auspicious. May Yetwain, deliver us from sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(ये) युवाम् (उस्रियाः) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति वस निवासे-रक्, सम्प्रसारणं च। वसति क्षीरादिहविरस्याम्-इति उस्रा। ततः पृषोदरादित्वात्स्वार्थे घ। उस्रियेति गोनामोत्स्राविणोऽस्यां भोगाः। उस्रेति च, निरु० ४।१९। गाः (बिभृथः) धारयथः (वनस्पतीन्) अ० १।१२।३। वनानां सेवकानां पालकान्। वृक्षान् (ययोः) (वाम्) युवयोः (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (भुवनानि) अ० २।१।३। लोकान्। (अन्तः) मध्ये। अन्यत् पूर्ववत्-म० २ ॥

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