अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 26/ मन्त्र 7
ऋषिः - मृगारः
देवता - द्यावापृथिवी
छन्दः - शाक्वरगर्भातिमध्येज्योतिस्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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यन्मेदम॑भि॒शोच॑ति॒ येन॑येन वा कृ॒तं पौरु॑षेया॒न्न दैवा॑त्। स्तौमि॒ द्यावा॑पृथि॒वी ना॑थि॒तो जो॑हवीमि॒ ते नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । मा । इ॒दम् । अ॒भि॒ऽशोच॑ति । येन॑ऽयेन । वा॒ । कृ॒तम् । पौरु॑षेयात् । न । दैवा॑त् । स्तौमि॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । ना॒थि॒त: । जो॒ह॒वी॒मि॒ । ते इति॑ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्मेदमभिशोचति येनयेन वा कृतं पौरुषेयान्न दैवात्। स्तौमि द्यावापृथिवी नाथितो जोहवीमि ते नो मुञ्चतमंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । मा । इदम् । अभिऽशोचति । येनऽयेन । वा । कृतम् । पौरुषेयात् । न । दैवात् । स्तौमि । द्यावापृथिवी इति । नाथित: । जोहवीमि । ते इति । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२६.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सूर्य और पृथिवी के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(येनयेन) जिस किसी कारण से (पौरुषेयात्) पुरुष [इस शरीर] से किया हुआ (वा) अथवा (दैवात्) दैव [प्रारब्ध, पूर्वजन्म] के फल से प्राप्त हुआ (यत्) जो (इदम्) यह (कृतम्) कर्म (न) इस समय (मा) मुझ को (अभिशोचति) शोक में डालता है। [इसलिये] (नाथितः) मैं अधीन होकर (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी को (स्तौमि) सराहता हूँ और (जोहवीमि) बारंबार पुकारता हूँ। (ते) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥७॥
भावार्थ
मनुष्य पुरुषार्थ के साथ सुकर्म करके इस जन्म वा प्रारब्ध से प्राप्त हुए दुःख का नाश करके सूर्य पृथिवी आदि लोकों के उपयोग से सुख भोगें ॥७॥
टिप्पणी
७−(यत्) (मा) माम् (इदम्) इण् गतौ-दमुक्। पुरोवर्त्ति (अभिशोचति) अभितः सर्वतो दहति (येनयेन) येनकेन कारणेन (वा) अथवा (कृतम्) कर्म (पौरुषेयात्) पुरुषाद्बधविकारसमूहतेनकृतेषु। वा० पा० ५।१।१०। इति पुरुष-ढञ्। पुरुषकृतोत्कर्मणः (न) सम्प्रत्यर्थे-निरु० ७।३१। (दैवात्) अ० ४।१६।८। पूर्वजन्मार्जितात् कर्मणः (स्तौमि) प्रशंसामि (द्यावापृथिव्यौ) (नाथितः) अ० ४।२३।७। नाथवान्। अधीनः (जोहवीमि) पुनः पुनराह्वयामि। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
पौरुषेयात् न दैवात्
पदार्थ
१. (यत्) = जो (इदम्) = यह पाप तथा पाप का फल दुःख (मा) = मुझे (अभिशोचति) = सर्वत: शोकसन्तप्त करता है, (येनयेन वा) = अथवा जिस-जिस पाप से (कृतम्) = उत्पन्न हुआ-हुआ दु:ख मुझे सन्तस करता है, यह सब दुःख (पौरुषेयात्) = पुरुष से की गई गलती का ही परिणाम है, (न देवात्) = द्यावापृथिवी आदि देवों से वह कष्ट प्राप्त नहीं होता। द्यावापृथिवी तो हमारे लिए सब उत्तम वस्तुओं को ही प्राप्त कराते हैं। मनुष्य उनका अनुचित प्रयोग करता है और कष्ट भोगी होता है। द्यावापृथिवी ने 'गो' दूध के लिए प्राप्त कराई है न कि उसका मांस खाने के लिए। मनुष्य गोदुग्ध का प्रयोग न करके गोमांस का सेवने करने लगता है और परिणामत: नाना रोगों का शिकार होता है। २. मैं (द्यावापृथिवी स्तौमि) = इन द्यावापृथिवी का स्तवन करता हूँ और (नाथित:) = कष्टों से सन्तस होने पर (जोहवीमि) = इन्हें ही पुकारता हूँ। (ते) = वे द्यावापृथिवी (न:) = हमें (अंहसः मुञ्चतम्) = पाप से मुक्त करें।
भावार्थ
कष्ट हमें अपने पापों के कारण होते हैं। द्यावापृथिवी आदि हमें कष्ट नहीं पहुँचाते। इनके द्वारा प्रदत्त वस्तुओं का ठीक प्रयोग करते हुए हम सुखी हों।
अगला सूक्त भी 'मृगार' ऋषि का ही है -
भाषार्थ
(यत्, इदम्) जो यह पाप (मा) मुझे (अभिशोचति) साक्षात् शोकाविष्ट करता है, (येन येन वा) अथवा जिस-जिस भी पाप द्वारा मैं शोकाविष्ट होता हूँ, जो पाप कि (पौरुषेयात्) पुरुष की शक्ति से, (न) इसी प्रकार, (दैवात्) दिव्यतत्त्व की शक्ति से प्रेरित हुआ (कृतम्) किया गया है; तदपनोदार्थ (द्यावापृथिवी) द्यौ: और पृथिवी की (स्तौमि) मैं स्तुति करता हूँ। इनके सद्गुणों का कथन करता हूँ और (नाथितः) परमेश्वर को निज स्वामी मानता हुआ (जोहवीमि) उसका बार-बार आह्वान करता हूँ, (ते) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।
टिप्पणी
[व्यक्ति, किये पाप द्वारा जय वस्तुतः शोकाविष्ट होता है, और मानुषसुलभ निर्वलता से या किसी प्रबल शक्ति से प्रेरित हुआ यदि बार-बार पाप करता है, तो वह बार-बार निज स्वामी परमेश्वर से बल की प्रार्थना करे जिसने कि द्यौ: और पृथिवी को निष्पाप रचा है, जिसके रचे इन दोनों में पाप का लेश भी नहीं, जिनके वासी पुरुष ही पापकर्मों द्वारा इनके साथ पाप का सम्पर्क करते रहते हैं। ऐसी भावनाएं पाप को मिटा देती हैं, और फिर पाप में प्रेरित नहीं होने देती। वस्तुतः अभिप्राय यह है कि "स्वभावतः पापरहित द्यौ:-पृथिवी में रहता हुआ मैं भी, आप नाथ की कृपा से, पापरहित हो जाऊँ"। न=उपमार्थे१।] [१. अथवा "पौरुषेयात्, न कि दैवात्" ।]
विषय
पापमोचन की प्रार्थना।
भावार्थ
(यत्) जो (मा) मुझ को (इदम्) यह मेरा किया कर्म (अभि-शोचति) हर तरफ़ से सन्ताप देता है और (येन येन या) जिस जिस कारण से प्रेरित होकर (कृतम्) किया हुआ कर्म मुझे सताता है, जो कर्म (पौरुषेयात्) पुरुष =आत्मा या पुरुषों के किये संकल्प से उत्पन्न होकर मुझे सन्ताप देता है, (न दैवात्) जो देव अर्थात् ईश्वरीय काम नहीं है, उनसे (नाथितः) पीड़ित होकर मैं (द्यावापृथिवी) द्यौ और पृथिवी इन के समान परिपालक गुण वाली, मा बाप के तुल्य ईश्वरीय शक्तियों की (स्तौमि) स्तुति करता हूं, और (जोहवीमि) उनको पुकारता हूं कि (ते नः अंहसः मुञ्चतम्) वे दोनों हमें पाप से मुक्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मृगार ऋषिः। तृतीयं मृगारसूक्तम्। १ पुरोष्टिजगती। शक्वरगर्भातिमध्येज्योतिः । २-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom fom Sin
Meaning
This is that now afflicts me, done for whatever reason, human or destined, not divine, O heaven and earth, I invoke you and to you I pray, helpless but not alienated and unprotected, be kind and gracious to me and save us from sin and sufferance.
Translation
This grief, which torments me, whosoever might have caused it, is not due to the bounties of Nature, but is caused by human action. To get rid of it, I praise heaven and earth. Being a suppliant, I invoke them again and again. As such, may both of them free us from sin.
Translation
This act belonging to me, be it of what-so-ever nature, by whatsoever cause be it materialized, if it is done through the effort of my own soul not by the fate, tortures me (no one else). I equipped with strength, praise and frequently describe the utilities and operations of the heaven and earth. Let these twain become the sources of releasing us from grief and troubles.
Translation
The grief that pains me here, whoever caused it, not sent by fate, hath sprung from human action. I, suppliant, praise both the Divine powers, and oft invoke them, to deliver us, Ye twain, from sin!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(यत्) (मा) माम् (इदम्) इण् गतौ-दमुक्। पुरोवर्त्ति (अभिशोचति) अभितः सर्वतो दहति (येनयेन) येनकेन कारणेन (वा) अथवा (कृतम्) कर्म (पौरुषेयात्) पुरुषाद्बधविकारसमूहतेनकृतेषु। वा० पा० ५।१।१०। इति पुरुष-ढञ्। पुरुषकृतोत्कर्मणः (न) सम्प्रत्यर्थे-निरु० ७।३१। (दैवात्) अ० ४।१६।८। पूर्वजन्मार्जितात् कर्मणः (स्तौमि) प्रशंसामि (द्यावापृथिव्यौ) (नाथितः) अ० ४।२३।७। नाथवान्। अधीनः (जोहवीमि) पुनः पुनराह्वयामि। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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