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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृमिघ्न सूक्त
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    ओते॑ मे॒ द्यावा॑पृथि॒वी ओता॑ दे॒वी सर॑स्वती। ओतौ॑ म॒ इन्द्र॑श्चा॒ग्निश्च॒ क्रिमिं॑ जम्भयता॒मिति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ओते॒ इत्याऽउ॑ते । मे॒ ।द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । आऽउ॑ता । दे॒वी । सर॑स्वती । आऽउ॑तौ । मे॒ । इन्द्र॑: । च॒ । अ॒ग्नि: । च॒ । क्रिमि॑म् । ज॒म्भ॒य॒ता॒म् । इति॑ ॥२३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ओते मे द्यावापृथिवी ओता देवी सरस्वती। ओतौ म इन्द्रश्चाग्निश्च क्रिमिं जम्भयतामिति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ओते इत्याऽउते । मे ।द्यावापृथिवी इति । आऽउता । देवी । सरस्वती । आऽउतौ । मे । इन्द्र: । च । अग्नि: । च । क्रिमिम् । जम्भयताम् । इति ॥२३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    छोटे-छोटे दोषों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (मे) मेरे लिये (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूलोक (ओते) बुने हुए हैं, (देवी) दिव्य गुणवाली (सरस्वती) विज्ञानवती विद्या (ओता) परस्पर बुनी हुई है। (ओतौ) परस्पर बुने हुए (इन्द्रः) मेघ (च) और (अग्निः) अग्नि (च) भी (मे) मेरे लिये (क्रिमिम्) कीड़े को (जम्भयताम्) नाश करें, (इति) यह प्रार्थना है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे अशुद्धि आदि से उत्पन्न क्षुद्र जन्तुओं को हटाते हैं, वैसे ही पदार्थों के विवेक से छोटे-छोटे भी कुसंस्कार मिटाये जावें ॥१॥ इस सूक्त का मिलान अ० का० २ सू० ३१ तथा ३२ से करो ॥

    टिप्पणी

    १−(ओते) आ+वेञ् तन्तुसंताने−क्त। परस्परं स्यूते। अन्तर्व्याप्ते (मे) मह्यम् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (ओता) अन्तर्व्याप्ता (देवी) दिव्या (सरस्वती) विज्ञानवती विद्या (ओतौ) (इन्द्रः) मेघः (च) (अग्निः) भौतिकपावकः (च) (क्रिमिम्) अ० २।३१।१। कीटवत् कुसंस्कारम् (जम्भयताम्) नाशयताम् (इति) हेतौ ॥

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    विषय

    क्रिमि-विनाश

    पदार्थ

    १. (मे) = मेरे जीवन में (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्करूप घलोक तथा शरीररूप पृथिवीलोक (ओते) = ओत-प्रोत हो गये हैं-बुने-से गये हैं। मस्तिष्क दीप्त है तो शरीर दृढ़ [येन द्यौरुग्ना पृथिवी च दुढा]। इसीप्रकार (देवी) = जीवन को प्रकाशमय बनानेवाली (सरस्वती) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता मेरे जीवन में (ओता) = व्याप्त हो गई है। २. इसीप्रकार में मेरे (इन्द्रः च अग्निः च) = बल व प्रकाश के देवता (ओतौ) = परस्पर बुने हुए-से हो गये हैं, (इति) = यह सब इसलिए कि ये (क्रिमि जम्भयताम्) = रोग-कृमियों को नष्ट कर दें।

    भावार्थ

    जीवन में हम यदि मतिष्क और शरीर दोनों का ध्यान रक्खेंगे, सरस्वती की अराधना से जीवन को प्रकाशमय बनाएँगे और बल व प्रकाश दोनों का सम्पादन करेंगे तो रोग कृमियों से आक्रान्त नहीं होंगे।

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    भाषार्थ

    (मे) मेरे [कुमार के लिए, मन्त्र १] (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी (ओते ) परस्पर ओत-प्रोत हैं, (देवी सरस्वती) दिव्या, उदकवती मेघीय वैद्युत गर्जना (ओता) उनमें ओत-प्रोत है। (इन्द्रः च, अग्नि: च) सूर्य और पार्थिव अग्नि (मे) मेरे [ कुमार के लिए मन्त्र २] (ओतौ) उन में ओत-प्रोत हैं, (इति) इस निमित्त कि (क्रिमिम्) [कुमार वर्ग के] क्रिमिसमूह१ का वे ( जम्मयताम्) हनन करें, विनाश करें।

    टिप्पणी

    [सूक्त में क्रिमीविनाश का वर्णन है। कुमारों के पेट में तथा शरीर पर, पेट-क्रिमि तथा रोग कीटाणु (germs) आक्रमण करते हैं, क्योंकि उनका खाना-पीना और रहन-सहन प्राकृतिक नियमों के अनुकूल नहीं होता। मन्त्र में प्राकृतिक तत्त्वों में 'ओत' पद द्वारा पारस्परिक अनुकूलता का कथन हुआ है। जैसेकि पट के निर्माण में तन्तुओं में पारस्परिक अनुकूलता होती है वैसी अनुकूलता संसार में प्राकृतिक तत्त्वों में दर्शायी है। कुमारवर्ग के जीवनों में भी प्राकृतिक नियमों के अनुरूप निज जीवनचर्या होनी चाहिए, प्रकृति के नियमों में उनके जीवन ओत-प्रोत होने चाहिएं, तब वे क्रिमियों के आक्रमण से बच सकेंगे, इस सिद्धान्त को प्रकट किया है। सरस्वती=सर: उदकनाम (निघं० १.१२)+ तद्वती। ओत=आङ्+वेञ् तन्तुसंताने, क्तः।] [१. क्रिमि=कृञ् हिंसायाम् (क्र्यादिः), हिंस्र कीट।]

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    विषय

    रोगकारी जन्तुओं के नाश का उपदेश।

    भावार्थ

    रोगकारी कीटों के नाश करने का उपदेश करते हैं—(द्यावापृथिवी) द्यौः = सूर्य और पृथिवी (आ-उते) सब प्रकार परस्पर सम्मिलित होकर और (देवी) दिव्य गुण वाली (सरस्वती) यह वाणी या जलधारा या नदी (आ-उता) संगत होकर और (इन्द्रः च अग्निः च) इन्द्र, विद्युत् और अग्नि ये दोनों भी (आ-उतौ) परस्पर मिलकर (क्रिमिं) रोगकारी जन्तुओं का (मे) मेरे लिये (जम्भयताम्) विनाश करें। सूर्य की किरण, मिट्टी, तीव्र वाणी या जलधारा, बिजुली, अग्नि, ये सब परस्पर मिल कर नाना प्रकार से रोग-कीटों का नाश करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्व ऋषिः। क्रिमिजम्भनाय देवप्रार्थनाः। इन्द्रो देवता। १-१२ अनुष्टुभः ॥ १३ विराडनुष्टुप। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Germs

    Meaning

    Nature and humanity are interlinked: Sun and earth are interlinked. Divine Sarasvati, radiant rays, showers of rain, running streams and currents of wind, all are interlinked, Indra and Agni, electric energy and fire energy, too are interlinked for us. May all these destroy the dangerous worms, insects, germs and bacteria which cause disease.

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    Subject

    Indra and others

    Translation

    Heaven and earth are gracious to me, the learning divine is gracious and the lightning and fire, both are gracious to me. May they destroy the worm.

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    Translation

    The sun and the earth are interlinked, pure and powerful current of water is intirlinkeel, and the electricity and fire are also interwoven. Let them destroy the worms which create disease.

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    Translation

    Sun and Earth are interwoven for me, divine knowledge is meant for me, electricity and fire are intermingled for me May these destroy the worms. This is my prayer.

    Footnote

    The rays of the sun, fire, electricity, knowledge, destroy the worms.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(ओते) आ+वेञ् तन्तुसंताने−क्त। परस्परं स्यूते। अन्तर्व्याप्ते (मे) मह्यम् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (ओता) अन्तर्व्याप्ता (देवी) दिव्या (सरस्वती) विज्ञानवती विद्या (ओतौ) (इन्द्रः) मेघः (च) (अग्निः) भौतिकपावकः (च) (क्रिमिम्) अ० २।३१।१। कीटवत् कुसंस्कारम् (जम्भयताम्) नाशयताम् (इति) हेतौ ॥

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