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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 13
    ऋषिः - कण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराडनुष्टुप् सूक्तम् - कृमिघ्न सूक्त
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    सर्वे॑षां च॒ क्रिमी॑णां॒ सर्वा॑सां च क्रि॒मीना॑म्। भि॒नद्म्यश्म॑ना॒ शिरो॒ दहा॑म्य॒ग्निना॒ मुख॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर्वे॑षाम् ।च॒ । क्रिमी॑णाम् । सर्वा॑साम् । च॒ । क्रि॒मीणा॑म् । भि॒नद्मि॑ । अश्म॑ना । शिर॑: । दहा॑मि । अ॒ग्निना॑ । मुख॑म् ॥२३.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वेषां च क्रिमीणां सर्वासां च क्रिमीनाम्। भिनद्म्यश्मना शिरो दहाम्यग्निना मुखम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्वेषाम् ।च । क्रिमीणाम् । सर्वासाम् । च । क्रिमीणाम् । भिनद्मि । अश्मना । शिर: । दहामि । अग्निना । मुखम् ॥२३.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 23; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    छोटे-छोटे दोषों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (च) और (सर्वेषाम्) सब (क्रिमीणाम्) कीड़ों का (च) और (सर्वासाम्) सब (क्रिमीणम्) कीड़ों की स्त्रियों का (शरः) शिर (अश्मना) पत्थर से (भिनद्मि) मैं फोड़ता हूँ और (मुखम्) मुख (अग्निना) अग्नि से (दहामि) जलाता हूँ ॥१३॥

    भावार्थ

    जैसे किसी वस्तु को अग्नि में जलाकर अथवा पत्थर पर तोड़ कर नष्ट कर देते हैं, वैसे ही मनुष्य अपने बाहिरी और भीतरी दोषों का नाश करे ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(सर्वेषाम्) समस्तानाम् (च) (क्रिमीणाम्) क्रमणशीलानां क्षुद्रजन्तूनाम् (सर्वासाम्) सकलानाम् (च) (क्रिमीणाम्) क्रिमिस्त्रीणाम् (भिनद्मि) विदारयामि (अश्मना) प्रस्तरेण (शिरः) मस्तकम् (दहामि) भस्मीकरोमि (अग्निना) पावकेन (मुखम्) अ० २।३५।५। खनति अन्नादिकमनेन। आननम् ॥

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    विषय

    सर्वेषां सर्वासाम्

    पदार्थ

    १. (सर्वेषां च क्रिमीणाम्) = सब नर कृमियों का (च) = और (सर्वासां कृमीणाम्) = सब मादा कृमियों के (शिर:) = शिर को (अश्मना भिनधि) = पत्थर से विदीर्ण कर देता हूँ। २. (अग्निना) = अग्नि के द्वारा [तेज़ाब के प्रयोग से] इनके (मुखम् दहामि) = मुख को दग्ध कर देता हूँ।

    भावार्थ

    नीरोगता के लिए नर-मादा सब कृमियों का विनाश आवश्यक है।

    विशेष

    रोगक्रमियों के विनाश से, शरीर से नीरोग, उन्नति-पथ पर चलता हुआ यह व्यक्ति 'अर्थवा' बनता है-उन्नति के शिखर पर पहुँचता है। यह 'ब्रह्म-ज्ञान व कर्म-यज्ञादि उत्तम कर्मों' को ही अपनी आत्मा समझता है, उन्हीं में तत्पर रहता है, कभी मार्गभ्रष्ट नहीं होता और प्रार्थना करता है -

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    भाषार्थ

    (सर्वेषाम् च. क्रिमीणाम्) सब नर-क्रिमियों के, (च) और (सर्वासाम्, क्रिमीणाम् ) सब मादा क्रिमियों के (शिरः) सिरों को (अश्मना) दृषद् द्वारा (भिनद्मि) में तोड़ता हैं, छिन्न-भिन्न करता हूं तथा (मुखम्) मुखों को (अग्निना) अग्नि द्वारा (दहामि) मैं दग्ध करता हूं।

    टिप्पणी

    [ये क्रिमि कणसदृश सूक्ष्म है (मन्त्र १०) इनके सिर तथा मुख भी अतिसूक्ष्म हैं, ये दृष्टिगोचर नहीं होते, अत: स्थूल अश्मा द्वारा इनके सिर छिन्न-भिन्न नहीं किये जा सकते, अतः अभिप्रेत है सूर्य की अश्मा अर्थात् इषद्, अर्थात् रश्मिसमूह (मन्त्र ६ की व्याख्या, देखें)। इसी प्रकार अग्नि है 'कंस और मणि' द्वारा सूर्यरश्मियों से उत्पादित अग्नि (देखें मन्त्र ८ की व्याख्या)]

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    विषय

    रोगकारी जन्तुओं के नाश का उपदेश।

    भावार्थ

    (सर्वेषां च क्रिमीणाम्) सब नर कीटों और (सर्वासां च क्रिमीणाम्) सब मादा कीटों के (अश्मना भिनद्मि) प्रस्तर या चकमक के बने तीक्ष्ण शस्त्र से (शिरः भिनद्मि) शिर तोड़ डालूं। और (अग्निना) अग्नि से या तेजाब से (मुखम् दहामि) उन का मुख जला दूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्व ऋषिः। क्रिमिजम्भनाय देवप्रार्थनाः। इन्द्रो देवता। १-१२ अनुष्टुभः ॥ १३ विराडनुष्टुप। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Germs

    Meaning

    Of all the worms and germs that are male and female, I break the head as with a stone, i.e., by a means beyond their resistance, and I burn their mouth with fire.

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    Translation

    Of all the male worms and of all the female worms including insects, I hereby crush the head with a stone and burn their mouth with fire.

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    Translation

    I crush to pieces the heads of and burn with fire the mouth of all the male and all the female worms.

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    Translation

    Of every worm and insect, of the female and the male alike, I crush the head to pieces with a stone and burn the face with fire.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(सर्वेषाम्) समस्तानाम् (च) (क्रिमीणाम्) क्रमणशीलानां क्षुद्रजन्तूनाम् (सर्वासाम्) सकलानाम् (च) (क्रिमीणाम्) क्रिमिस्त्रीणाम् (भिनद्मि) विदारयामि (अश्मना) प्रस्तरेण (शिरः) मस्तकम् (दहामि) भस्मीकरोमि (अग्निना) पावकेन (मुखम्) अ० २।३५।५। खनति अन्नादिकमनेन। आननम् ॥

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