अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 3
यो अ॒क्ष्यौ॑ परि॒सर्प॑ति॒ यो नासे॑ परि॒सर्प॑ति। द॒तां यो मद्यं॒ गच्छ॑ति॒ तं क्रिमिं॑ जम्भयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒क्ष्यौ᳡ । प॒रि॒ऽसर्प॑ति । य: । नासे॒ इति॑ । प॒रि॒ऽसर्प॑ति । द॒ताम् । य: । मध्य॑म् । गच्छ॑ति । तम् । क्रिमि॑म् । ज॒म्भ॒या॒म॒सि॒ ॥२३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अक्ष्यौ परिसर्पति यो नासे परिसर्पति। दतां यो मद्यं गच्छति तं क्रिमिं जम्भयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अक्ष्यौ । परिऽसर्पति । य: । नासे इति । परिऽसर्पति । दताम् । य: । मध्यम् । गच्छति । तम् । क्रिमिम् । जम्भयामसि ॥२३.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
छोटे-छोटे दोषों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [कीड़ा] (अक्ष्यौ) दोनों आँखों में (परिसर्पति) रेंग जाता है, (यः) जो (नासे) दोनों नथनों में (परिसर्पति) रेंग जाता है, और (यः) जो (दताम्) दाँतों के (मध्यम्) बीच में (गच्छति) चलता है, (तम्) उस (क्रिमिम्) कीड़े को (जम्भयामसि) हम नाश करते हैं ॥३॥
भावार्थ
विज्ञानी पुरुष आत्मविघ्नों का इस प्रकार नाश करे, जैसे वैद्य कृमि रोग को ॥३॥
टिप्पणी
३−(यः) क्रिमिः (अक्ष्यौ) अ० १।२७।१। अक्षिणी। नेत्रे (परिसर्पति) परितो गच्छति (यः) (नासे) द्वे नासिकाछिद्रे (दताम्) पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३। इति दन्तस्य दत्। दन्तानाम् (यः) (मध्यम्) अन्तर्वर्त्ति देशम् (गच्छति) प्राप्नोति (तम्) (क्रिमिम्) कीटम् (जम्भयामसि) नाशयामः ॥
विषय
अक्ष्यौ, नासे, दतां मध्ये
पदार्थ
१. (यः) = जो (कृमि अक्ष्यौ) = आँखों की ओर (परिसर्पति) = गतिवाला होता है-आँखों में विचरण करता है, (य:) = जो कृमि (नासे परिसर्पति) = नासा-छिद्रों में गति करता है और (य:) = जो (दतां मध्यं गच्छति) = दाँतों के बीच में गति करता है, (तं क्रिमि जम्भयामसि) = उस कृमि का विनाश करते हैं।
भावार्थ
हम आँखों, नासिका-छिद्रों व दाँतों को मण करनेवाले कृमियों का विनाश करते हैं।
भाषार्थ
(य:) जो (अक्ष्यौ) आँखों में (परिसर्पति) परिसर्पण करता है, (यः) जो (नासे) नथनों में (परिसर्पति) परिसर्पण करता है, (यः) जो (दताम, मध्यम्) दाँतों के बीच (गच्छति) गमन करता है, (तम्, क्रिमिम्) उस क्रिमि को (जम्भयामसि) हम नष्ट करते हैं।
टिप्पणी
[आँखों में लालिमा, सूजन, पीड़ा होना-यह क्रिमि अर्थात् germ [रोग-जीव-कीटाणु] द्वारा होता है। नथनों में बार-बार जुकाम होना भी अन्य प्रकार के रोग जीव-कीटाणु द्वारा होता है। दाँतों की जड़ का खोखला और काला पड़ जाना और उसमें पीड़ा होना अन्य जीव-कीटाणु द्वारा होता है। ये त्रिविध क्रिमि हैं जीव-कीटाणु, जोकि आँखों द्वारा दृष्टिगोचर नहीं होते, अति सूक्ष्म होते हैं।]
विषय
रोगकारी जन्तुओं के नाश का उपदेश।
भावार्थ
(यः) जो कीट (अक्ष्यौ) आँखों पर (परि-सर्पति) आक्रमण करता है, (यः) और जो (नासे) नाक में (परि-सर्पति) घुस जाता है। (यः) और जो (दतां मध्यं गच्छति) दांतों के बीच में चला जाता हैं, (तं क्रिमिम्) उस क्रिमि = कीट को (जम्भयामसि) हम विनाश करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्व ऋषिः। क्रिमिजम्भनाय देवप्रार्थनाः। इन्द्रो देवता। १-१२ अनुष्टुभः ॥ १३ विराडनुष्टुप। त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Germs
Meaning
We destroy the germs which creep and affect the eyes, which affect the nostrils, and which creep into the middle of the teeth. Those germs we destroy.
Translation
The one, that moves about in his two eyes, the one that moves into his nose and the one that goes to the midst of his teeth, that worm, we hereby destroy completely.
Translation
I destroy the worm which enters into eyes, which crawl into nose and which remain between leath.
Translation
We utterly destroy the worm that creeps around the eyes, the worm that crawls about the nose, the worm that gets between the teeth.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यः) क्रिमिः (अक्ष्यौ) अ० १।२७।१। अक्षिणी। नेत्रे (परिसर्पति) परितो गच्छति (यः) (नासे) द्वे नासिकाछिद्रे (दताम्) पद्दन्नोमास्०। पा० ६।१।६३। इति दन्तस्य दत्। दन्तानाम् (यः) (मध्यम्) अन्तर्वर्त्ति देशम् (गच्छति) प्राप्नोति (तम्) (क्रिमिम्) कीटम् (जम्भयामसि) नाशयामः ॥
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