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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठस्तक्मनाशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठतक्मनाशन सूक्त
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    सु॑पर्ण॒सुव॑ने गि॒रौ जा॒तं हि॒मव॑त॒स्परि॑। धनै॑र॒भि श्रु॒त्वा य॑न्ति वि॒दुर्हि त॑क्म॒नाश॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒प॒र्ण॒ऽसुव॑ने । गि॒रौ । जा॒तम् । हि॒मऽव॑त: । परि॑ । धनै॑: । अ॒भि । श्रु॒त्वा । य॒न्ति॒ । वि॒दु: । हि । त॒क्म॒ऽनाश॑नम् ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुपर्णसुवने गिरौ जातं हिमवतस्परि। धनैरभि श्रुत्वा यन्ति विदुर्हि तक्मनाशनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुपर्णऽसुवने । गिरौ । जातम् । हिमऽवत: । परि । धनै: । अभि । श्रुत्वा । यन्ति । विदु: । हि । तक्मऽनाशनम् ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (सुपर्णसुवने) उत्तम पालन सामर्थ्य उत्पन्न करने हारे (गिरौ) स्तुति योग्य कुल में (हिमवतः) उद्योगी पुरुष से (परि) अच्छे प्रकार (जातम्) उत्पन्न पुरुष को (धनैः) धनों के साथ वर्तमान (श्रुत्वा) सुनकर [विद्वान् लोग] (अभि यन्ति) सन्मुख पहुँचते हैं, [और उस को] (तक्मनाशनम्) दुःखित जीवन नाश करने हारा (हि) निश्चय करके (विदुः) जानते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग उत्तम कुल में उत्पन्न प्रतापी, धनी पुरुष को अपना राजा बनाते और उस पर प्रजा की रक्षा का भार रखते हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(सुपर्णसुवने) धापॄवस्य०। उ० ३।६। इति पॄ पालनपूरणयोः−न। भूसूधू०। उ० २।८०। इति पू प्रेरणे, यद्वा षूङ् प्राणिप्रसवे−क्युन्। उत्तमपालनस्योत्पादके (गिरौ) म० १। पूज्ये कुले (जातम्) उत्पन्नम् (हिमवतः) हन्तेर्हि च। उ० १।१४७। इति हन हिंसागत्योः−मक्। गतिमतः। उद्योगिनः पुरुषात् (परि) पूजायाम्। सुष्ठु (धनैः) धनैः सह वर्त्तमानम् (अभि) आभिमुख्येन (श्रुत्वा) आकर्ण्य (यन्ति) गच्छन्ति विद्वांसः (विदुः) जानन्ति (हि) निश्चयेन (तक्मनाशनम्) कृच्छ्रजीवननाशकम् ॥

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    विषय

    हिमाच्छादित पर्वतों पर होनेवाला 'कुष्ठ'

    पदार्थ

    २. (सुपर्णसुवने) = पालनात्मक उत्तम औषधियों को जन्म देनेवाले (गिरौ) = पर्वत पर (हिमवतः परिजातम्) = हिमाच्छादित प्रदेशों में उत्पन्न हुए-हुए 'कुष्ठ' को (श्रुत्वा) = सुनकर (धनैः अभियन्ति) = धनों से उसकी ओर जाते हैं-धन लेकर उस ओषधि के क्रय के लिए जाते हैं। २. इस कुष्ठ को वे (हि) = निश्चय से (तक्मनाशनम् विदुः) = ज्वरनाशक जानते हैं।

    भावार्थ

    कुष्ठ नामक औषध उन हिमाच्छादित पर्वतों पर होती है जो पालनात्मक उत्तम ओषधियों को जन्म देनेवाले हैं। मनुष्य धन लेकर इनके क्रय के लिए उन स्थानों पर पहुँचते हैं।

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    भाषार्थ

    हिमवतः परि) हिमवान्१ का परित्याग२ कर या उससे परे, (सुपर्णसुवने गिरौ) उत्तमपक्षोंवाले कमलों के उत्पादक पर्वत में (जातम्) उत्पन्न हुए कुष्ठ को (श्रुत्वा) सुनकर, ( धनैः) [ धनिक ] धनों के साथ (अभियन्ति) पर्वत की ओर जाते हैं, (हि) क्योंकि [ कुष्ठ ] (तक्मनाशनम् ) तक्म-ज्वर का नाश करनेवाला है, ( विदुः) यह वे जानते हैं ।

    टिप्पणी

    [१. हिमवान् का अभिप्राय हिमालय पर्वत नहीं, अपितु कोई भी पर्वत है जोकि हिमवान् हो। हिमवान् पर्वत शीतल होता है । कुष्ठ शीतल प्रदेश में उत्पन्न नहीं होता यह अभिप्राय है। वेद में "हिमवन्त:" पद बहुवचन में प्रयुक्त हैं, अतः मन्त्र में हिमवान् पद संज्ञावाचक नहीं (यजु:० २५।१२)। २. परित्याग कर या परे = इसीलिए कहा है कि "उदङ जातो हिमवतः" (मन्त्र ८ ); अर्थात् हे कुष्ठ ! तू हिमवान् से उत्तर की दिशा में पंदा हुआ है, न कि हिमवान् में। इस द्वारा हिमवान् का परित्याग स्पष्ट प्रतीत होता है, अर्थात् उससे परे कुष्ठ का पैदा होना सूचित होता है। हिमवत: परि हिमवन्तं परिवर्ज्य।]

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    विषय

    कुष्ठ नामक परमात्मा वा ओषधि का वर्णन करते हैं।

    भावार्थ

    (सुपर्णसुवने) जिससे सुपर्ण अर्थात् परमात्मा पर्वतों में प्रकट होता है। अतः पर्वत को ‘सुपर्णसुवन’ कहते हैं, (गिरौ) ऐसे पर्वत पर और विशेषतया (हिमवतः परि जातम्) हिमाच्छादित पर्वतों पर प्रकट होने वाले परमात्मा का (श्रुत्वा) श्रवण करके उपासक लोग (धनैः अभियन्ति) धनादि का त्याग करके उसकी ओर जाते हैं, (तक्मनाशनम् विदुः हि) और वे परमात्मा को ही उनके संसार-ज्वर का नाश करने वाला जानते हैं।

    टिप्पणी

    “द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया”—इस मन्त्र में परमात्मा का नाम ‘सुपर्ण’ कहा गया है। कुष्ठ नाम ओषधि (सुपर्णसुवने) अर्थात् गरुड़ आदि बड़े पक्षियों की उत्पादक हिमाच्छन्न देशों में उत्पन्न होता है। उसे बहुत व्यय करके प्राप्त करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनः कुष्ठो देवताः। १-४, ७, ९ अनुष्टुभः। ५ भुरिक्, ६ गायत्री। १० उष्णिग्गर्भा निचृत्। दशर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kushtha Oshadhi

    Meaning

    Born and grown on snowy mountain where herbs of beautiful leaves and golden efficacy with poisonous antidote grow, when people hear of it as the destroyer of takman, they go and get it even with money and lots of wealth.

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    Translation

    Having heard that his kustha had grown on the snowy mountains, where eagles breed (or where the herbs with fine leaves grow), people throng with money, as they know for certain that this is the banisher of fever.

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    Translation

    The Kushtha is born on the mountain which is covered with snow and is the fertile place of herbs, people hearing of its efficacy purchase it, with money as they know it as the destroyer of fever.

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    Translation

    God is realized in mountain solitude. Hearing His cali on a snow-clad hill, His devotees sacrificing their wealth, go unto Him. They consider God alone, to be the Alleviator of their worldly sufferings.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(सुपर्णसुवने) धापॄवस्य०। उ० ३।६। इति पॄ पालनपूरणयोः−न। भूसूधू०। उ० २।८०। इति पू प्रेरणे, यद्वा षूङ् प्राणिप्रसवे−क्युन्। उत्तमपालनस्योत्पादके (गिरौ) म० १। पूज्ये कुले (जातम्) उत्पन्नम् (हिमवतः) हन्तेर्हि च। उ० १।१४७। इति हन हिंसागत्योः−मक्। गतिमतः। उद्योगिनः पुरुषात् (परि) पूजायाम्। सुष्ठु (धनैः) धनैः सह वर्त्तमानम् (अभि) आभिमुख्येन (श्रुत्वा) आकर्ण्य (यन्ति) गच्छन्ति विद्वांसः (विदुः) जानन्ति (हि) निश्चयेन (तक्मनाशनम्) कृच्छ्रजीवननाशकम् ॥

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