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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - कुष्ठस्तक्मनाशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुष्ठतक्मनाशन सूक्त
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    अ॑श्व॒त्थो दे॑व॒सद॑नस्तृ॒तीय॑स्यामि॒तो दि॒वि। तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं दे॒वाः कुष्ठ॑मवन्वत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्व॒त्थ: । दे॒व॒ऽसद॑न:। तृ॒तीय॑स्याम् । इ॒त: । दि॒वि । तत्र॑ । अ॒मृत॑स्य । चक्ष॑णम् । दे॒वा: । कुष्ठ॑म् । अ॒व॒न्व॒त ॥४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वत्थो देवसदनस्तृतीयस्यामितो दिवि। तत्रामृतस्य चक्षणं देवाः कुष्ठमवन्वत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वत्थ: । देवऽसदन:। तृतीयस्याम् । इत: । दिवि । तत्र । अमृतस्य । चक्षणम् । देवा: । कुष्ठम् । अवन्वत ॥४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवसदनः) विद्वानों के बैठने योग्य (अश्वत्थः) वीरों के ठहरने का देश (तृतीयस्याम्) तीसरी [निकृष्ट और मध्यम अवस्था से परे, श्रेष्ठ] (दिवि) गति में (इतः) प्राप्त होता है, (तत्र) उसमें (अमृतस्य) अमृत के (चक्षणम्) दर्शन, (कुष्ठम्) गुणपरीक्षक पुरुष को (देवाः) महात्माओं ने (अवन्वत) माँगा है ॥३॥

    भावार्थ

    विद्वानों ने निश्चय किया है कि मनुष्य सर्वोत्तम पुरुषार्थ से सर्वजन हितैषी होता है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अश्वत्थः) अ० ३।६।१। अश्वानां कर्मसु व्यापनशीलानां वीराणां स्थितिदेशः (देवसदनः) महात्मनां स्थितियोग्यः (तृतीयस्याम्) निकृष्टमध्यमाभ्यां तृतीयस्यां श्रेष्ठायाम् (इतः) इण्−क्त। प्राप्तः (दिवि) गतौ। अवस्थायाम् (तत्र) तस्मिन् स्थाने (अमृतस्य) अमरणस्य। चिरजीवनस्य (चक्षणम्) दर्शनम्। रूपम् (देवाः) विद्वांसः (कुष्ठम्) म० १। निष्कर्षकं गुणपरीक्षकम् (अवन्वत) वनु याचने। याचितवन्तः ॥

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    विषय

    'सूर्य-किरणों द्वारा अमृत की स्थापनावाला' कुष्ठ

    पदार्थ

    १. (अश्वत्थ:) = सर्वव्यापक प्रभु में स्थित होनेवाले [तस्य भासा सर्वमिदं विभाति] यह सूर्य (देवसदन:) = देवों का निवास-स्थान है [मर्त्यलोक में मनुष्य, चन्द्रलोक में पितर और सूर्यलोक में देव]। यह (इत:) = इस पृथिवी से (तृतीयस्याम्) = तीसरे (दिवि) = प्रकाशमय झुलोक में है [पृथिवी, अन्तरिक्ष, धुलोक]। २. (तत्र) = उस सूर्य में (अमृतस्य) = अमृत का-सब प्राणदायी तत्त्वों का (चक्षणम्) = दर्शन होता है। यही अमृत उन हिमाच्छादित पर्वतों पर उत्पन्न कुष्ठ में सूर्य-किरणों द्वारा स्थापित होता है, अत: (देवा:) = सब रोगों को जीतने की कामनावाले पुरुष (कुष्ठम्) = कुष्ठ को (अवन्वत) = प्राप्त करते हैं [वन संभक्तो]।

    भावार्थ

    हिमाच्छादित पर्वतों पर उत्पन्न होनेवाले कुष्ठ में सूर्य-किरणों द्वारा अमृत की [अमृतमय तत्त्वों की] स्थापना होती है, इसलिए देव कुष्ठ को प्राप्त करने के लिए यत्नशील होते हैं।

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    भाषार्थ

    (इतः) यहाँ से (तृतीयस्याम् ) तीसरे (दिवि) द्युलोक में, (देवसदनः) दिव्यगुणों का सदन है (अश्वत्थः) अश्वत्थ (तत्र) उसके काल में ( देवा: ) दिव्यगुणी चिकित्सकों ने (अमृतस्य) न मरने अर्थात् दीर्घ जीवन के (चक्षणम्) दर्शनरूप (कुष्ठम् ) कूठ औषध को (अवन्वत) चाहा, या उसकी याचना की) तथा अथर्व० १६।३९।६)।

    टिप्पणी

    [दिव् है यहाँ से तीसरा अर्थात् द्युलोक, यथा पृथिवी, अन्तरिक्ष, दिव्। चक्षणम्=कुष्ठौषध को देखना मानो दीर्घ जीवन को देखना है । अवन्वत=वनु याचने (तनादिः)। द्युलोक में अश्वत्थ के उदयकाल में कुष्ठ की याचना।]

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    विषय

    कुष्ठ नामक परमात्मा वा ओषधि का वर्णन करते हैं।

    भावार्थ

    (अश्वत्थः) अश्व अर्थात् इन्द्रियरूपी घोड़े जहां स्थित रहते हैं, (देवसदनः) तथा जो देवों अर्थात् इन्द्रियों का गृह भूत हैं वह मस्तिष्क (तृतीयस्यां दिवि) इस शरीर के तृतीय लोक अर्थात् मूर्धास्थान में है, (तत्र) उस मस्तिष्क में (अमृतस्य चक्षणम्) अमृत परमात्मा का दर्शन होता है, (देवाः) योगी लोग (कुष्ठम्) इस पार्थिव देह में स्थित परमात्मा को (अवन्वत) यहीं चाहते हैं। (२) किरणों का आश्रय सूर्य ही अमृत अर्थात् रोग नाश कर देता है। वह रोगहारी रस कुष्ठ को भी सूर्य की किरणों से प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनः कुष्ठो देवताः। १-४, ७, ९ अनुष्टुभः। ५ भुरिक्, ६ गायत्री। १० उष्णिग्गर्भा निचृत्। दशर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kushtha Oshadhi

    Meaning

    In the third highest level of the body is the brain, top of the human organism where the centres of devas, sense and will organs of the body are seated, and thus that is the top of the human personality. There the humans have the vision of divinity in meditation. There the divine efficacies of nature and of the sanative herb start the cure of the kushtha ailment as there the divine souls of humanity have a vision of divinity.

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    Translation

    In the third heaven from here, there is the aśvattha (the holy fig tree, Ficus religiosa) tree, the seat of the enlightened ones. There the enlightened ones find the kustha plant just: as an embodiment of immortality.

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    Translation

    Ashvatha, the body is the seat of wondrous bodily limbs. powers and soul. In the third sentient part of this body (the brainal part} there is found the immortality and the physicians require this Kustha to save that immortality.

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    Translation

    Head, the home of organs, where reside the horse-like organs, is the topmost part of the body; There God, is visualized. The yogis long there for God, Who pervades the material body.

    Footnote

    ‘There’ refers to the head.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अश्वत्थः) अ० ३।६।१। अश्वानां कर्मसु व्यापनशीलानां वीराणां स्थितिदेशः (देवसदनः) महात्मनां स्थितियोग्यः (तृतीयस्याम्) निकृष्टमध्यमाभ्यां तृतीयस्यां श्रेष्ठायाम् (इतः) इण्−क्त। प्राप्तः (दिवि) गतौ। अवस्थायाम् (तत्र) तस्मिन् स्थाने (अमृतस्य) अमरणस्य। चिरजीवनस्य (चक्षणम्) दर्शनम्। रूपम् (देवाः) विद्वांसः (कुष्ठम्) म० १। निष्कर्षकं गुणपरीक्षकम् (अवन्वत) वनु याचने। याचितवन्तः ॥

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