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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 109 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 109/ मन्त्र 3
    ऋषिः - बादरायणिः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रभृत सूक्त
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    अ॑प्स॒रसः॑ सध॒मादं॑ मदन्ति हवि॒र्धान॑मन्त॒रा सूर्यं॑ च। ता मे॒ हस्तौ॒ सं सृ॑जन्तु घृ॒तेन॑ स॒पत्नं॑ मे कित॒वं र॑न्धयन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प्स॒रस॑: । स॒ध॒ऽमाद॑म् । म॒द॒न्ति॒ । ह॒वि॒:ऽधान॑म्। अ॒न्त॒रा । सूर्य॑म् । च॒ । ता: । मे॒ । हस्तौ॑ । सम् । सृ॒ज॒न्तु॒ । घृ॒तेन॑ । स॒ऽपत्न॑म् । मे॒ । कि॒त॒वम् । र॒न्ध॒य॒न्तु॒ ॥११४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्सरसः सधमादं मदन्ति हविर्धानमन्तरा सूर्यं च। ता मे हस्तौ सं सृजन्तु घृतेन सपत्नं मे कितवं रन्धयन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप्सरस: । सधऽमादम् । मदन्ति । हवि:ऽधानम्। अन्तरा । सूर्यम् । च । ता: । मे । हस्तौ । सम् । सृजन्तु । घृतेन । सऽपत्नम् । मे । कितवम् । रन्धयन्तु ॥११४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 109; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    व्यवहारसिद्धि का उपदेश।

    पदार्थ

    (अप्सरसः) आकाश में व्यापक शक्तियाँ [वायु, जल, बिजुली आदि] (हविर्धानम्) ग्राह्यपदार्थों के आधार [भूलोक] (च) और (सूर्यम् अन्तरा) सूर्य के बीच (सधमादम्) परस्पर आनन्द (मदन्ति) भोगती हैं (ताः) वे (मे) मेरे (हस्तौ) दोनों हाथ (घृतेन) घृत [सार पदार्थ] से (सं सृजन्तु) संयुक्त करें, और (मे) मेरे (कितवम्) ज्ञाननाशक [ठग, जुआरी] (सपत्नम्) वैरी को (रन्धयन्तु) नाश करें ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य वायु, जल, बिजुली आदि से यथावत् उपकार लेकर दरिद्रता आदि दुःख नाश करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अप्सरसः) अ० ४।३७।२। अप्सु आकाशे सरणशीलाः। वायुजलविद्युदादयः (मदन्ति) हर्षयन्ति (हविर्धानम्) ग्राह्यपदार्थानामाधारं भूलोकम् (अन्तरा) मध्ये (सूर्यम्) (च) (ताः) अप्सरसः (मे) मम (हस्तौ) (सं सृजन्तु) संयोजयन्तु (घृतेन) सारपदार्थेन (सपत्नम्) शत्रुम् (मे) मम (कितवम्) अ० ७।५०।१। ज्ञाननाशकम्। वञ्चकम्। द्यूतकारम् (रन्धयन्तु) अ० ४।२२।१। नाशयन्तु ॥

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    विषय

    हविर्धानमन्तरा सूर्य च

    पदार्थ

    १. (अप्सरसः) = यज्ञादि कर्मों में विचरनेवाले लोग [अप्सर] (हविर्धानम्) = [हविधीयते अत्र] जिसमें हव्य पदार्थों का ही भोजन के रूप में आधान होता है, उस शरीर [भूलोक] (च) = तथा (सूर्यम्) = ज्ञानसूर्य से अधिष्ठित मस्तिष्करूप धुलोक के (अन्तरा) = बीच में-हदयान्तरिक्ष में (सधमादं मदन्ति) = उस प्रभु के साथ स्थिति के आनन्द का अनुभव करते हैं। [सहमदनं यथा भवति तथा मदन्ति]।२. (ता:) = वे यज्ञादि उत्तम कौ में प्रवृत्तियाँ (मे हस्तौ) = मेरे हाथों को (घृतेन संसृजन्तु) = मलक्षरण से, निर्मलता से संसृष्ट करें। कर्मों में लगे रहना' मेरे जीवन को पवित्र बनाये। ये क्रियाशीलता की वृत्तियाँ ही (मे सपनम्) = मेरे शत्रुभूत (कितवम्) = [A mad person] पागलपन को (रन्धयन्तु) = विनष्ट करें। ['कितवं' शब्द यहाँ पागलपन का प्रतीक है]।

    भावार्थ

    क्रियाशील पुरुष पवित्र भोजन करते हुए तथा मस्तिष्क को ज्ञानसूर्य से दीप्त करते हुए हृदय में प्रभुसान्निध्य के आनन्द का अनुभव करते हैं। ये क्रियाशीलता की वृत्तियाँ हमारे हाथों को पवित्रता से संसृष्ट करती हैं तथा पागलपन को विनष्ट करती हैं।

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    भाषार्थ

    (हविर्धानम्) हवियों के निधान भूलोक (च) और (सूर्यम्) सूर्य के (अन्तरा) अन्तराल में (अप्सरस:) अप्सराएं [मन्त्र २] (सधमादम्, मदन्ति) पारस्परिक मोद में प्रमुदित होती हैं। (ताः) वे अप्सराएं (मे) मुझ [अग्नि (मन्त्र २)] अग्रणी के (हस्तौ) दोनों हाथों को (घृतेन) घृत आदि द्वारा (संसृजन्तु) संयुक्त करें, और (कितवम्) कितव जोकि (मे) मुझ अग्रणी का (सपत्नम्) शत्रु है उसे (रन्धयन्तु) हिसित करें, या मेरे वश में करें ।

    टिप्पणी

    [अप्सराएं हैं तो प्राकृतिक शक्तियां, जिन्हें कि घृताहुतीयों द्वारा रोगरहित कर पुष्ट किया है (मन्त्र २)। ये अन्तरिक्ष में विचरती हैं, अर्थात् भूलोक और सूर्य के अन्तराल में ये पुष्ट होकर, वर्षाप्रदान द्वारा मुझ प्रधानमन्त्री के दोनों हाथों को प्रभूत घृत आदि पदार्थों से भर देती हैं। मानो राष्ट्र को भर देती है। इससे कितवों को मैं अपने वश में कर लेता हूं, यह वशीकरण उनके कितवपन की हिंसा भी कर देता है। राष्ट्र में प्रभूत सामग्री के कारण द्यूत द्वारा अन्य धन की प्राप्ति की अभिलाषा नहीं रहती, द्यूत में तो लाभ और हानि दोनों की सम्भावना रहती है। रन्धयन्तु= रध हिंसासंराध्योः (दिवादिः) तथा रध्यतिर्वशगमने (निरुक्त १०।४०)]।

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    विषय

    ब्रह्मचारी का इन्द्रियजय और राजा का अपने चरों पर वशीकरण।

    भावार्थ

    (हविर्धानम्) हविर्धान अर्थात् अन्न का आगार यह लोक (च) और (सूर्यम्) सूर्य इन दोनों के (अन्तरा) बीच में (अप्सरसः) इन्द्रियां (सघ-मादं) अपने साथ साथ हर्षित होने वाले आत्मा को (मदन्ति) हर्षित करती हैं। (ताः) वे ही थे मुझ ब्रह्मचारी के (हस्तौ) हाथों को क्रियाशक्ति को (घृतेन) ज्ञान से (सं सृजन्तु) (युक्त करें और (मे) मुझ आत्मा के (सपत्नम्) शत्रु, काम, क्रोध आदि को (कितवं) जो कि मुझको “तेरा क्या तेरा क्या” इस प्रकार की उक्तियों द्वारा तुच्छ करना चाहता है, (रन्धयन्तु) नष्ट करें। राजाके पक्ष में—(अप्सरसः) प्रजाएं एकत्र होकर आनन्द उत्सव करें। राजा के हाथों को वे (घृत) पुष्टिकारक कोष और सेना द्वारा पुष्ट करें और राजा के (सपत्नं कितवं) भूमि पर समान अधिकार का दावा करने वाले, उसको ललकारने वाले शत्रु का विनाश करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बादरायणिर्ऋषिः। अग्निमन्त्रोक्ताश्च देवताः। १ विराट् पुरस्ताद् बृहती अनुष्टुप्, ४, ७ अनुष्टुभौ, २, ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Management

    Meaning

    Dynamic forces of nature, sun-rays, pranic energies, communications of nature and humanity, and the mind, all rejoicing in the evolutionary vedi on earth, in heaven, and in the sun may, I pray, fill my hands with the ghrta I may offer in this cosmic yajna, and may they eliminate the clever, thievish, gambling rivals and adversaries from my life.

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    Translation

    The energies moving in the clouds revel in their common dwelling.place, which is in between the oblations receptacle and the Sun. May they fill my hands with purified butter and subjugate my rival, a gambler, to me.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.114.3AS PER THE BOOK

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    Translation

    Apsarasah, the electricities move in firmament, in earth and in the sun. Let them make our hands powerful with Ghrita, light and power. Let them destroy my deceitful enemy.

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    Translation

    The organs lend pleasure to the soul between the Earth and the Sun. Let them fill my hands with knowledge; and kill my lust and anger, the destroyers of wisdom, and the foes of soul.

    Footnote

    ‘Them’ refers to the organs. First ‘My’ refers to the.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अप्सरसः) अ० ४।३७।२। अप्सु आकाशे सरणशीलाः। वायुजलविद्युदादयः (मदन्ति) हर्षयन्ति (हविर्धानम्) ग्राह्यपदार्थानामाधारं भूलोकम् (अन्तरा) मध्ये (सूर्यम्) (च) (ताः) अप्सरसः (मे) मम (हस्तौ) (सं सृजन्तु) संयोजयन्तु (घृतेन) सारपदार्थेन (सपत्नम्) शत्रुम् (मे) मम (कितवम्) अ० ७।५०।१। ज्ञाननाशकम्। वञ्चकम्। द्यूतकारम् (रन्धयन्तु) अ० ४।२२।१। नाशयन्तु ॥

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