अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 109/ मन्त्र 5
ऋषिः - बादरायणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रभृत सूक्त
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यो नो॑ द्यु॒वे धन॑मि॒दं च॒कार॒ यो अ॒क्षाणां॒ ग्लह॑नं॒ शेष॑णं च। स नो॑ दे॒वो ह॒विरि॒दं जु॑षा॒णो ग॑न्ध॒र्वेभिः॑ सध॒मादं॑ मदेम ॥
स्वर सहित पद पाठय: । न॒: । द्यु॒वे । धन॑म् । इ॒दम् । च॒कार॑ । य: । अ॒क्षाणा॑म् । ग्लह॑नम् । शेष॑णम् । च॒ । स: । न॒: । दे॒व: । ह॒वि: । इ॒दम्। जु॒षा॒ण: । ग॒न्ध॒र्वेभि॑: । स॒ध॒ऽमाद॑म् । म॒दे॒म॒ ॥११४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नो द्युवे धनमिदं चकार यो अक्षाणां ग्लहनं शेषणं च। स नो देवो हविरिदं जुषाणो गन्धर्वेभिः सधमादं मदेम ॥
स्वर रहित पद पाठय: । न: । द्युवे । धनम् । इदम् । चकार । य: । अक्षाणाम् । ग्लहनम् । शेषणम् । च । स: । न: । देव: । हवि: । इदम्। जुषाण: । गन्धर्वेभि: । सधऽमादम् । मदेम ॥११४.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
व्यवहारसिद्धि का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जिस [परमेश्वर] ने (नः) हमारे (द्युवे) आनन्द के लिये (इदं धनम्) यह धन, और (यः) जिसने (अक्षाणाम्) व्यवहारों का (ग्लहनम्) ग्रहण (च) और (शेषणम्) विशेषपन [ब्राह्मणपन, क्षत्रियपन, वैश्यपन और शूद्रपन] (चकार) बनाया है। (सः) वह (देवः) व्यवहारकुशल [परमेश्वर] (नः) हमारे (इदम्) इस (हविः) दान [भक्तिदान] को (जुषाणः) स्वीकार करनेवाला [हो, कि] (गन्धर्वेभिः) विद्या वा पृथिवी के धारण करनेवाले [मनुष्यों] के साथ (सधमादम्) परस्पर आनन्द (मदेम) हम भोगें ॥५॥
भावार्थ
मनुष्य आदि गुरु परमेश्वर के अनुग्रह से सब व्यवहारों में कुशल होकर, विद्वानों के सत्सङ्ग से उन्नति करें ॥५॥
टिप्पणी
५−(यः) परमेश्वरः (नः) अस्मदीयाय (द्युवे) दिवु मोदे-क्विप्। आनन्दाय (धनम्) (इदम्) (चकार) कृतवान् (यः) (अक्षाणाम्) अ० ६।७०।१। व्यवहाराणाम् (ग्लहनम्) रस्य लः। ग्रहणम् (शेषणम्) शिष्लृ विशेषणे-ल्युट्। विशेषणम्। गुणप्रकाशनं यथा ब्राह्मणत्वं क्षत्रियत्वं वैश्यत्वं शूद्रत्वं च (च) (सः) (नः) अस्माकं (देवः) व्यवहारकुशलः परमेश्वरः (हविः) दानम्। आत्मसमर्पणम् (इदम्) वक्ष्यमाणम् (जुषाणः) सेवमानः। भवतु इति शेषः (गन्धर्वेभिः) अ० २।१।२। गोर्विद्यायाः पृथिव्या वा धारकैः पुरुषैः (सधमादम्) परस्परानन्दम् (मदेम) हृष्येम ॥
विषय
कार्यसाधक धन तथा विशिष्ट ज्ञान
पदार्थ
१. (यः) = जो प्रभु (नः द्युवे) = हमारे व्यवहार की सिद्धि के लिए (इदं धनं चकार) = इस धन को करते हैं, अर्थात् कार्यसिद्धि के लिए आवश्यक धन प्राप्त कराते हैं। (य:) = जो प्रभु (अक्षाणाम्) = पवित्र ज्ञानों के (ग्लहनम्) = ग्रहण को (शेषणं च) = तथा विशिष्टता को करते हैं, अर्थात् हमारे लिए पवित्र ज्ञानों को विशेषरूप से प्राप्त कराते हैं, (सः देव:) = वे प्रकाशमय प्रभु (न:) = हमारी (इदं हवि:) = इस हवि को-दानपूर्वक अदन को, यज्ञशेष के सेवन की वृत्ति को (जुषाण:) = प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले हों। यह हवि हमें प्रभु का प्रिय बनाये। २. हम अपने इस जीवन में (गन्धर्वेभिः) = ज्ञान की बाणियों का धारण करनेवालों के साथ (सधमादं मदेम) = मिलकर एक स्थान में स्थित होते हुए आनन्द का अनुभव करें।
भावार्थ
प्रभु हमें कार्यसाधक धन प्राप्त कराते हैं, विशिष्ट पवित्र ज्ञान का ग्रहण कराते हैं। हम हवि द्वारा, त्यागपूर्वक अदन के द्वारा प्रभु का पूजन करें और ज्ञानियों के साथ मिल बैठते हुए आनन्द का अनुभव करें।
भाषार्थ
(यः) जिस [अग्नि = अग्रणी] ने (नः) हमारे (द्युवे) व्यवहार कर्म के लिये (इदम्) इस (धनम्) मुद्रा-धन को (चकार) निश्चित या निर्मित किया, (यः) तथा जिसने (अक्षाणाम्) द्यूतकर्म के पाशों का, या उन द्वारा द्यूतकर्म करने वालों को (ग्लहनम्) पकड़ा (च) और (शेषणम्) उनका विनाश [चकार] किया, (सः) वह (नः देवः) हमारा देव [अग्नि=अग्रणी] (इदम्) इस (हविः) सात्विक-अन्न का (जुषाणः) प्रीतिपूर्वक सेवन करे, और हम प्रजाएं (गन्धर्वेभिः) पृथिवी के धारण करने वाले भूपतियों के साथ मिलकर (सधमादम्, मदेम) पारस्परिक आनन्द में आनन्दित हों।
टिप्पणी
[द्युवे = दिव् धातु, व्यवहारार्थक का चतुर्थ्येकवचन में रूप। दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहार" आदि (दिवादिः); दिव्, वकार को ऊठ् [च्छ्वोः शूङ्नुनासिके च; अष्टा० ६।४।१९] यण् (सायण) + उवङ् + चतुर्थ्येकवचन "ङे"। अक्षाणां ग्लहनम् = द्यूत करने वाले के पाशों को ले लेना और उन्हें विनष्ट कर देना। ग्लह= गृहु ग्रह ग्लह च (भ्वादिः)। शेषणम्= शिष हिंसार्थः (भ्वादिः), अथवा अक्षाणाम्= अक्षैः दीव्यतां कितवानाम्, तेषां ग्लहणं शेषणम् च। गन्धर्वेभिः= गौः पृथिवीनाम (निघं० १।१) + धृञ् धारणे]।
विषय
ब्रह्मचारी का इन्द्रियजय और राजा का अपने चरों पर वशीकरण।
भावार्थ
(यः) जो (नः) हममें से (देवः) देव, विद्वान् ब्रह्मचारी (द्युवे) दिव्य व्रत, ब्रह्मचर्य के पालक के निमित्त (इदं) इस प्रकार के अक्षय (धनं) धन, बल, सामर्थ्य को (चकार) उत्पन्न करता है और (यः) जो (अक्षाणां) इन्द्रियों का (ग्लहनं) ग्रहण और (शेषणं) वशीकरण (च) भी करता है वह (नः) हममें से (देवः) विद्वान् इन्द्रियविजयी पुरुष (इदं हविः) इस उत्तम उपादेय सुख, ज्ञान और अन्न को (जुषाणः) स्वीकार करता है। ऐसे (गन्धर्वैः) गौ- वेदवाणी के धारणशील या गौ इन्द्रियों के वशीकर्त्ता जितेन्द्रिय के सहित (सधमादं) आनन्द प्रसन्न होकर हम (मदेम) अपने जीवन को सुखी करें। राजा के पक्ष में—जो हमारे योद्धा को भरणपोषण का धन देता है, और जो चरों और भटों को वश करता है और उनको अन्यों से अतिरिक्त मानपद प्रदान करता है वह हमारा देव = राजा इस हवि, मानपद और बलिभूत कर को प्राप्त करे और ऐसे (गन्धर्वेभिः) गौ-पृथिवी के स्वामी राजाओं के संग हम प्रजावासी सुखी रहे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बादरायणिर्ऋषिः। अग्निमन्त्रोक्ताश्च देवताः। १ विराट् पुरस्ताद् बृहती अनुष्टुप्, ४, ७ अनुष्टुभौ, २, ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Management
Meaning
May Agni, who creates and gives us this wealth of life for our joy, who gives us the privilege and special merit in relation to the dynamics of life, accept this offer of homage with love so that we may enjoy and rejoice in life with the sustainers of the earth and her culture.
Translation
Who has made this wealth for us to win, and who causes attraction and satisfaction to sense-organs, may that Lord accept and enjoy our this oblation. May we rejoice in company of the sustainer of the earth.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.114.5AS PER THE BOOK
Translation
May Almighty He who make this wealth for our use, who has given into the limbs the power of catching the objects and variety in their function and susceptibilities, accept this our prayer and eulogium. May we enjoy pleasure in our common place with the men highly proficient in the knowledge of the vedas.
Translation
A celibate amongst us, by observing the vow of celibacy, develops this undecaying physical and spiritual strength. A self-controlled learned person amongst us, who grasps and controls the senses acquires this desirable joy, knowledge and food. Let us pass our life happily in the company of such a person who is the master of the Vedas and controls his organs.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(यः) परमेश्वरः (नः) अस्मदीयाय (द्युवे) दिवु मोदे-क्विप्। आनन्दाय (धनम्) (इदम्) (चकार) कृतवान् (यः) (अक्षाणाम्) अ० ६।७०।१। व्यवहाराणाम् (ग्लहनम्) रस्य लः। ग्रहणम् (शेषणम्) शिष्लृ विशेषणे-ल्युट्। विशेषणम्। गुणप्रकाशनं यथा ब्राह्मणत्वं क्षत्रियत्वं वैश्यत्वं शूद्रत्वं च (च) (सः) (नः) अस्माकं (देवः) व्यवहारकुशलः परमेश्वरः (हविः) दानम्। आत्मसमर्पणम् (इदम्) वक्ष्यमाणम् (जुषाणः) सेवमानः। भवतु इति शेषः (गन्धर्वेभिः) अ० २।१।२। गोर्विद्यायाः पृथिव्या वा धारकैः पुरुषैः (सधमादम्) परस्परानन्दम् (मदेम) हृष्येम ॥
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