अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 109/ मन्त्र 7
ऋषिः - बादरायणिः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - राष्ट्रभृत सूक्त
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दे॒वान्यन्ना॑थि॒तो हु॒वे ब्र॑ह्म॒चर्यं॒ यदू॑षि॒म। अ॒क्षान्यद्ब॒भ्रूना॒लभे॒ ते नो॑ मृडन्त्वी॒दृशे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वान् । यत् । ना॒थि॒त: । हु॒वे । ब्र॒ह्म॒ऽचर्य॑म् । यत् । ऊ॒षि॒म । अ॒क्षान् । यत् । ब॒भ्रून् । आ॒ऽलभे॑ । ते । न॒: । मृ॒ड॒न्तु॒ । ई॒दृशे॑ ॥११४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
देवान्यन्नाथितो हुवे ब्रह्मचर्यं यदूषिम। अक्षान्यद्बभ्रूनालभे ते नो मृडन्त्वीदृशे ॥
स्वर रहित पद पाठदेवान् । यत् । नाथित: । हुवे । ब्रह्मऽचर्यम् । यत् । ऊषिम । अक्षान् । यत् । बभ्रून् । आऽलभे । ते । न: । मृडन्तु । ईदृशे ॥११४.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
व्यवहारसिद्धि का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जिससे कि (नाथितः) प्रार्थी मैं (देवान्) विद्वानों को (हुवे) बुलाता हूँ, (यत्) जिससे कि (ब्रह्मचर्यम्) ब्रह्मचर्य [आत्मनिग्रह, वेदाध्ययन आदि तप] में (ऊषिम) हमने निवास किया है। (यत्) जिससे कि (बभ्रून्) पालन करनेवाले (अक्षान्) व्यवहारों को (आलभे) मैं यथावत् ग्रहण करता हूँ, (ते) वे सब [विद्वान्] (नः) हमें (ईदृशे) ऐसे [कर्म] में (मृडन्तु) सुखी करें ॥७॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वानों की संगति, ब्रह्मचर्यसेवन और उत्तम व्यवहारों से सुखी होवें ॥७॥
टिप्पणी
७−(देवान्) विदुषः (यत्) यस्मात्कारणात् (नाथितः) नाथृ याच्ञोपतापैश्वर्याशीःषु-क्त। प्रार्थी (हुवे) आह्वयामि (ब्रह्मचर्यम्) गदमदचरयमश्चानुपसर्गे। पा० ३।१।१००। ब्रह्म+चर गतौ-यत्। ब्रह्मणे वेदलाभाय चर्यं चरणम्। आत्मनिग्रहवेदाध्ययनादितपः (यत्) यस्मात् (ऊषिम) वस-निवासे-लिट्। वयमुषितवन्तः (अक्षान्) व्यवहारान् (यत्) (बभ्रून्) भरणशीलान् (आलभे) समन्ताद् गृह्णामि (तं) विद्वांसः (नः) अस्मान् (मृडन्तु) सुखयन्तु (ईदृशे) एवंविधे धार्मिके कर्मणि ॥
विषय
कल्याण का मार्ग
पदार्थ
१. (यत्) = क्योंकि (नाथितः) = याचना-[प्रार्थना]-वाला होता हुआ मैं (देवान् हुवे) = ज्ञानियों को पुकारता हूँ, (यत्) = क्योंकि हम (ब्रह्मचर्य ऊषिम) = ब्रह्मचर्यपूर्वक निवास करते हैं, (यत्) = क्योंकि (बभ्रून) = धारणात्मक (अक्षान्) = व्यबहारों को ब ज्ञानों को (आलभे) = प्राप्त करता हूँ, तो (ते) = वे गतमन्त्र के गन्धर्व (ईदृशे) = ऐसी स्थिति होने पर (नः) = हमें (मृडन्तु) = सुखी करें।
भावार्थ
हम 'ज्ञान देनेवाले विद्वानों को ही पुकारें, ब्रह्मचर्यपूर्वक निवास करें, धारणात्मक व्यवहारों को ही अपनाएँ' यही कल्याण का मार्ग है।
अगले सूक्त का ऋषि, "इन्द्राग्नी' शक्ति व प्रकाश की आराधना करता हुआ, 'भृगु' [तपस्वी] है -
भाषार्थ
(नाथितः) उपतप्त-संतप्त हुआ (यत्) जो (देवान् हुवे) मैं देवों का आह्वान करता हूं, उनकी शरण में जाता हूं, (यत्) और जो (ब्रह्मचर्यम्) ब्रह्मचर्य (ऊषिम) वास हमने किया है, (यत्) जो (बभ्रून) भरण-पोषण करने (अक्षान्१) न्यायाध्यक्षों को (आलभे) मैं प्राप्त करता हूं, (ईदृशे) इस प्रकार के कर्म-कलाप में, (ते) वे सब, (नः) हमें (मृडन्तु) सुखी करें।
टिप्पणी
[ब्रह्मचर्यवास और द्यूतकर्म परस्पर विरोधी हैं। ब्रह्मचर्यवास में वीर्यरक्षा, वेदाध्ययन नियमित जीवन के होते व्यक्ति द्यूत आदि कर्मों में प्रवृत्त नहीं हो सकता। अतः यह समग्र सूक्त द्यूतकर्म का विधायक नहीं, अपितु निषेधक है। देवों के आह्वान और ब्रह्मचर्यवास इन दोनों का, द्यूतक्रीड़ा के अक्षों की प्राप्ति के साथ कोई सम्बन्ध नहीं प्रतीत होता, अक्षों अर्थात् न्यायालयाध्यक्षों के साथ सम्बन्ध तो प्रतीत होता है कि उन द्वारा निर्दिष्ट मार्गों पर चलना, प्रतिकूल नहीं]। [१. अक्षः= Legal Procedure, अक्षदर्शकः= a judge (आप्टे)।]
विषय
ब्रह्मचारी का इन्द्रियजय और राजा का अपने चरों पर वशीकरण।
भावार्थ
(यत्) जो मैं राष्ट्रपति (नाथितः) प्रार्थित वा ऐश्वर्यवान् होकर (ब्रह्मचर्ये यद् ऊषिम) और जो राष्ट्र रक्षा के लिये हम अधिकारी लोगों ने ब्रह्मचर्य का वास किया है। ब्रह्मचर्षेण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति। (देवान्) देव, विद्वान् पुरुषों को (हुवे) अपने समीप बुलाता हूं। और हम सब मिलकर राष्ट्र की रक्षा के लिये (यत्) जो (बभ्रून्) भूरे-लाल मिले, खाकी रंग की पोशाक पहने (अक्षान्) तीव्र गतिशील योद्धाओं को (आ-हुवे) प्राप्त करता हूं (ते) वे (नः) हम सब राजा प्रजाओं को (ईदृशे) ऐसे विजय लाभ के अवसर पर (मृडन्तु) सुखी करें। ब्रह्मचारी के पक्ष में—हम जो तपस्यापूर्वक विद्वानों की सेवा करते हैं, ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और तीव्र वेगवान् इन्द्रियों पर वश करते हैं तब ऐसे मोक्षपद में ये प्राण हमें सुख प्राप्त कराते हैं। अन्यथा ये ही नाना सांसारिक दुःखों का कारण होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बादरायणिर्ऋषिः। अग्निमन्त्रोक्ताश्च देवताः। १ विराट् पुरस्ताद् बृहती अनुष्टुप्, ४, ७ अनुष्टुभौ, २, ३, ५, ६ त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Management
Meaning
As I, dedicated and prayerful, invoke and serve the divinities of nature and humanity, as we observe the discipline of Brahmacharya, service of the Lord Divine with study, austerity and continence, as I take over and perform the duties in the social dynamics of life, may all such powers and personalities I serve bless us generously with peace, progress and joy in such ways of the good life in such a beautiful world.
Translation
With what purpose, being a suppliant. I invoke the enlightened ones, and have been living a student’s life (Brahmacaryam), and touch my sense-organs, the sustainers, may they be gracious to us in such circumstances.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.114.7AS PER THE BOOK
Translation
As I, the devoted one, call and serve the men of genius, I live the life of continence, and I welcome those sharp-witted ones who are shining with enlightenment, therefore let them be gracious to one like me.
Translation
As I serve the learned with humility, as I have led a life of chastity, may these turbulent organs, when I have controlled them, grant me bliss in salvation.
Footnote
I refers to a Brahmchari, a celibate.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(देवान्) विदुषः (यत्) यस्मात्कारणात् (नाथितः) नाथृ याच्ञोपतापैश्वर्याशीःषु-क्त। प्रार्थी (हुवे) आह्वयामि (ब्रह्मचर्यम्) गदमदचरयमश्चानुपसर्गे। पा० ३।१।१००। ब्रह्म+चर गतौ-यत्। ब्रह्मणे वेदलाभाय चर्यं चरणम्। आत्मनिग्रहवेदाध्ययनादितपः (यत्) यस्मात् (ऊषिम) वस-निवासे-लिट्। वयमुषितवन्तः (अक्षान्) व्यवहारान् (यत्) (बभ्रून्) भरणशीलान् (आलभे) समन्ताद् गृह्णामि (तं) विद्वांसः (नः) अस्मान् (मृडन्तु) सुखयन्तु (ईदृशे) एवंविधे धार्मिके कर्मणि ॥
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