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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 11
    ऋषिः - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
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    उत्त॒मो अ॒स्योष॑धीनामन॒ड्वाञ्जग॑तामिव व्या॒घ्रः श्वप॑दामिव। यमैच्छा॒मावि॑दाम॒ तं प्र॑ति॒स्पाश॑न॒मन्ति॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽत॒म: । अ॒सि॒ । ओष॑धीनाम् । अ॒न॒ड्वान् । जग॑ताम्ऽइव । व्या॒घ्र: । श्वप॑दाम्ऽइव । यम् । ऐच्छा॑म । अवि॑दाम । तम् । प्र॒ति॒ऽस्पाश॑नम् । अन्ति॑तम् । ॥५..११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तमो अस्योषधीनामनड्वाञ्जगतामिव व्याघ्रः श्वपदामिव। यमैच्छामाविदाम तं प्रतिस्पाशनमन्तितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽतम: । असि । ओषधीनाम् । अनड्वान् । जगताम्ऽइव । व्याघ्र: । श्वपदाम्ऽइव । यम् । ऐच्छाम । अविदाम । तम् । प्रतिऽस्पाशनम् । अन्तितम् । ॥५..११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 11
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    हिन्दी (3)

    विषय

    हिंसा के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] तू (ओषधीनाम्) तापनाशकों में (उत्तमः) उत्तम (असि) है, (इव) जैसे (जगताम्) गतिशीलों [गौ आदि पशुओं] में (अनड्वान्) [रथ ले चलनेवाला] बैल और (इव) जैसे (श्वपदाम्) हिंसक पशुओं में (व्याघ्रः) बाघ [है]। (यम्) जिसको (ऐच्छाम) हमने चाहा था, (तम्) उस (प्रतिस्पाशनम्) प्रत्येक को छूनेवाले, (अन्तितम्) प्रबन्ध करनेवाले [मणिरूप श्रेष्ठ नियम को] (अविदाम) हमने पाया है ॥११॥

    भावार्थ

    उत्साही आत्मावलम्बी पुरुष भय छोड़ कर परमात्मा के नियमों को अङ्गीकार करके सुखी होते हैं ॥११॥ इस मन्त्र का पूर्व भाग (उत्तमो... श्वपदामिव) अ० १९।३९।४। में है ॥

    टिप्पणी

    ११−(उत्तमः) (असि) (ओषधीनाम्) अ० १।२३।१। तापनाशकानां मध्ये (अनड्वान्) अ० ४।११।१। शकटवाहको बलीवर्दः (जगताम्) अ० १।३१।४। गतिशीलानां गवादीनां मध्ये (इव) यथा (व्याघ्रः) अ० ४।३।१। हिंस्रपशुविशेषः (श्वपदाम्) शुन इव पादो येषाम्। हिंस्रपशूनां मध्ये (इव) (यम्) (ऐच्छाम) वयमिष्टवन्तः (अविदाम) विन्दतेर्लुङि च्लेरङ्। वयं लब्धवन्तः (तम्) (प्रतिस्पाशनम्) स्पश बाधनस्पर्शनयोः, णिच्-ल्यु। प्रत्येकस्पर्शकम् (अन्तितम्) अ० ६।४।२। प्रबन्धकम् ॥

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    विषय

    सर्वोत्तम औषध

    पदार्थ

    १.हे वीर्यमणे! तू (ओषधीनां उत्तमः असि) = ओषधियों में उत्तम है, सब रोगों को नष्ट करनेवाली-रोगों का आक्रमण ही न होने देनेवाली है। तू इसप्रकार उत्तम है, (इव) = जैसेकि - (जगताम्) = गतिशील पशुओं में (अनड्वान्) = गाड़ी खेंचनेवाला बैल अथवा (इव) = जैसे (श्वपदाम् व्याघ्रः) = हिंस्र पशुओं में व्यान्न । शरीर में सुरक्षित हुआ-हुआ तू ही शरीर-रथ का संचालक है इन्द्रियरूप घोड़ों में तेरी ही शक्ति काम करती है। शरीर में सुरक्षित हुआ-हुआ तू रोगरूप गीदड़ों के लिए व्याघ्र के समान होता है। २. तेरे शरीर में सुरक्षित होने पर (यम् ऐच्छाम तं अविदाम) = 'स्वास्थ्य, नैर्मल्य व ज्ञानदीति' रूप जिन ऐश्वर्यों को हम चाहते हैं, उन्हें प्राप्त करनेवाले बनते हैं। तेरे शरीर में सुरक्षित होने पर हम (प्रतिस्पाशनम्) = [स्पश् to obstruct] शत्रुरूप बाधक को विरोधी के रूप में आक्रमण करनेवाले को अन्तितम्-[अन्त:जातः अस्य] समाप्त किया हुआ प्रास करें-इन शत्रुओं को नष्ट कर पाएँ।

    भावार्थ

    शरीर में सुरक्षित वीर्य सर्वोत्तम औषध है। यह जीवन की गाड़ी को चलाता है, विघ्नभूत रोगादि को विनष्ट करता है। इसके द्वारा वाञ्छनीय सब ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं और विरोधी तत्त्व विनष्ट होते हैं।

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    भाषार्थ

    हे सेनाध्यक्ष ! तू (ओषधीनाम्) ओषधियों में (उत्तमः) उत्तम ओषधिरूप (असि) है, (जगताम्) जङ्गम चतुष्पदों में (अनड्वान्) शकटवाही बैल की (इव) तरह, तथा (श्वपदाम्) श्वपदों में (व्याघ्रः इव) बाघ चीता की तरह तू है। (यम्) जिसकी (ऐच्छाम) हमने इच्छा की थी, (तम्) उसे (अविदाम) हमने प्राप्त कर लिया है, (तम्) उसका (अन्तितम्) अत्यन्त समीपता से (प्रतिस्पाशनम्) हमने स्पर्श किया है। अथवा शत्रुओं के बाधक उस तुझ को अत्यन्त समीपता से हमने प्राप्त कर लिया है। अन्तितम् = अन्तिकतमम्।

    टिप्पणी

    [ओषधियों के दो प्रयोजन होते हैं, रोगी के दोषों अर्थात् रोगों को दूर करना और उसके शरीर का संवर्धन करना। राष्ट्रपति राजा के भी दो प्रयोजन हैं, राष्ट्र-शरीर के रोगों को दूर करना, और राष्ट्र-शरीर का संवर्धन करना। राष्ट्र-शरीर के रोग हैं, चोरी, डकैती, लूटमार, व्यभिचार विप्लव तथा उपद्रव आदि। राजा सेनाध्यक्ष की सहायता से इन रोगों को दूर करता है अतः उसे "उत्तम ओषधीनाम्" कहा है। और अवशिष्ट मन्त्रियों की सहायता से व्यापार, उद्योग, कृषि आदि द्वारा राष्ट्र का संवर्धन करता है। इन से अतिरिक्त एक राजनैतिक बड़ा रोग है “परराष्ट्र द्वारा आक्रमण"। एतदर्थ राजा सेनाध्यक्ष को व्याघ्र से उपमित करता है, और राष्ट्र-शकट के वहन में सहायक होने से उसे अनड्वान् कहता है। राजा निज मन्त्रियों को कहता है कि राष्ट्ररक्षार्थ हमने जिस की इच्छा की थी, उस सेनाध्यक्ष को हमने प्राप्त कर लिया है, और उसके साथ अतिसमीपता से हमने अपना सम्बन्ध पैदा कर लिया है, जैसे कि किसी भी वस्तु का स्पर्श उसके अत्यन्त समीप होने पर ही किया जाता है। यह सेनाध्यक्ष राष्ट्र के शत्रुओं के लिये भी बाधारूप है। "स्पश बाधनस्पर्शयोः" (भ्वादिः) अनड्वान् = अनः शकटं वहतीति। श्वपदाम्= कुत्ते के पञ्जे के सदृश जिन के पञ्जे हैं]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Pratisara Mani

    Meaning

    O heroic wearer of the distinction of eminence among people, you are the best, like the hottest of cleansers, bull among the animals, tiger among the terribles. In you we have got what we had desired, the ultimate at the closest in society.

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    Translation

    You are the best among the plants, like a bullock among the roaming animals, and like a tiger among the beasts of prey. We have found, what we have been seeking for, an effective reverter near at hand.

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    Translation

    O man (decorated with Mani) you are best of all the persons who burn the enemies; you are like the bull amongst domestic animals, you are like tiger amongst wild animals; whom we sought for have found near us waiting for us.

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    Translation

    O Vedic law, thou art most efficacious like medicine, just as a bull is chief among the cattle, and a tiger among the beasts of prey. We sought for thee, and have found thee, universal in nature and highly potent.

    Footnote

    Thee: Vedic law.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(उत्तमः) (असि) (ओषधीनाम्) अ० १।२३।१। तापनाशकानां मध्ये (अनड्वान्) अ० ४।११।१। शकटवाहको बलीवर्दः (जगताम्) अ० १।३१।४। गतिशीलानां गवादीनां मध्ये (इव) यथा (व्याघ्रः) अ० ४।३।१। हिंस्रपशुविशेषः (श्वपदाम्) शुन इव पादो येषाम्। हिंस्रपशूनां मध्ये (इव) (यम्) (ऐच्छाम) वयमिष्टवन्तः (अविदाम) विन्दतेर्लुङि च्लेरङ्। वयं लब्धवन्तः (तम्) (प्रतिस्पाशनम्) स्पश बाधनस्पर्शनयोः, णिच्-ल्यु। प्रत्येकस्पर्शकम् (अन्तितम्) अ० ६।४।२। प्रबन्धकम् ॥

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