अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 15
ऋषिः - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः
छन्दः - पुरस्ताद्बृहती
सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
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यस्त्वा॑ कृ॒त्याभि॒र्यस्त्वा॑ दी॒क्षाभि॑र्य॒ज्ञैर्यस्त्वा॒ जिघां॑सति। प्र॒त्यक्त्वमि॑न्द्र॒ तं ज॑हि॒ वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा ॥
स्वर सहित पद पाठय: । त्वा॒ । कृ॒त्याभि॑: । य: । त्वा॒ । दी॒क्षाभि॑: । य॒ज्ञै: । य: । त्वा॒ । जिघां॑सति । प्र॒त्यक् । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । तम् । ज॒हि॒ । वज्रे॑ण । श॒तऽप॑र्वणा ॥५.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्त्वा कृत्याभिर्यस्त्वा दीक्षाभिर्यज्ञैर्यस्त्वा जिघांसति। प्रत्यक्त्वमिन्द्र तं जहि वज्रेण शतपर्वणा ॥
स्वर रहित पद पाठय: । त्वा । कृत्याभि: । य: । त्वा । दीक्षाभि: । यज्ञै: । य: । त्वा । जिघांसति । प्रत्यक् । त्वम् । इन्द्र । तम् । जहि । वज्रेण । शतऽपर्वणा ॥५.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
हिंसा के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (त्वा) तुझे (कृत्याभिः) हिंसाक्रियाओं से, (यः) जो (त्वा) तुझे (दीक्षाभिः) आत्मनिग्रह व्यवहारों से, (यः) जो (त्वा) तुझे (यज्ञैः) संयोगों से (जिघांसति) मारना चाहता है, (त्वम्) तू (इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष ! (तम्) उस को (शतपर्वणा) सैकड़ों पालन सामर्थ्यवाले (वज्रेण) वज्र से (प्रत्यक्) प्रत्यक्ष (जहि) नाश कर ॥१५॥
भावार्थ
जो पाखण्डी मनुष्य उपद्रव करके अथवा कपट से आत्मनिग्रह और मित्रता आदि करके मारना चाहे, राजा उसको नाश करके प्रजा-पालन करे ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(यः) (त्वा) इन्द्रम् (कृत्याभिः) अ० ४।९।५। हिंसाक्रियाभिः (त्वा) (दीक्षाभिः) दीक्ष मौण्ड्येज्योपनयननियमव्रतादेशेषु-अ प्रत्ययः, टाप्। आत्मनिग्रहैः (यज्ञैः) संयोगव्यवहारैः (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (प्रत्यक्) प्रत्यक्षम् (त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (तम्) उपद्रविणम् (जहि) नाशय (वज्रेण) (शतपर्वणा) स्नामदिपद्यर्त्तिपॄशकिभ्यो वनिप्। उ० ४।११३। पॄ पालने पूर्त्तौ च-वनिप्। बहुपालनयुक्तेन ॥
विषय
दीक्षामय व यज्ञमय जीवन
पदार्थ
१. (यः) = जो (त्वा) = तुझे (कत्याभिः) = छेदन-भेदन की क्रियाओं से (जिघांसति) = जीतने की कामना करता है, (यः) = जो (त्वा) = तुझे (दीक्षाभि:) = व्रतों द्वारा [वाग्यमन 'मौन' आदि नियमविशेषों से] जीतना चाहता है, (यः त्वा) = जो तुझे (यज्ञैः) = यज्ञों के द्वारा जीतने की कामना करता है, हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (त्वम्) = तू (तं प्रत्यक्) = उसके अभिमुख (शतपर्वणा) = शतवर्षपर्यन्त तेरा पूरण करनेवाले (वज्रेण) = इस वीर्यमणिरूप वज्र के द्वारा (जहि) = जानेवाला हो [हन् गतौ]। २. यह वीर्यमणिरूप वन जहाँ तुझे छेदन-भेदन का शिकार न होने देगा, वहाँ तू इसके द्वारा 'दीक्षा व यज्ञों' में किसी से पराजित नहीं होगा। इस मणि-रक्षा से तेरा जीवन भी दीक्षामय व यज्ञमय बन जाएगा।
भावार्थ
वीर्यमणिरूप वन हमारा शतवर्षपर्यन्त पूरण करनेवाला होता है। यह हमारे जीवन को दीक्षामय व यज्ञमय बनाता है।
भाषार्थ
(यः) जो (त्वा) तुझे (कृत्याभिः) घातक सेनाओं द्वारा, (यः त्वा) जो तुझे (दीक्षाभिः) व्रतों द्वारा, (यः त्वा) जो तुझे (यज्ञैः) अभिचारिक यज्ञों-द्वारा (जिघांसति) मारना चाहता है, (तम्) उसे (त्वम्) तू (इन्द्र) सम्राट! (प्रत्यक्) प्रतिमुख करके, (शतपर्वणा) सौ-जोड़ों वाले (वज्रेण) वज्र द्वारा (जहि) मार डाल।
इंग्लिश (4)
Subject
Pratisara Mani
Meaning
Indra, ruler, leader and warrior of heroic distinction, whoever challenges and wants to violate you with destructive acts, or with whatever best commitments he has, or with whatever cooperative forces he can collect, face him straight and, with the hundred power thunderbolt of punishment, destroy him.
Translation
Whoever seeks to kill you with evil plottings, with consecrations, or with sacrifices, O resplendent one, may you smite him on face with the thunder-bolt of a hundred joints.
Translation
O mighty King ! Meet bravely and kill with weapon having hundred edges, the man who desires to destroy you by means of artificial devices, who desires to kill you by dint of intellectual means, and who desires to kill you by the means of organized strategies.
Translation
Whoever would destroy thee through evil machinations, self-styled devices, organized forces, meet him and smite him, O King, with thy army of hundred weapons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(यः) (त्वा) इन्द्रम् (कृत्याभिः) अ० ४।९।५। हिंसाक्रियाभिः (त्वा) (दीक्षाभिः) दीक्ष मौण्ड्येज्योपनयननियमव्रतादेशेषु-अ प्रत्ययः, टाप्। आत्मनिग्रहैः (यज्ञैः) संयोगव्यवहारैः (जिघांसति) हन्तुमिच्छति (प्रत्यक्) प्रत्यक्षम् (त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (तम्) उपद्रविणम् (जहि) नाशय (वज्रेण) (शतपर्वणा) स्नामदिपद्यर्त्तिपॄशकिभ्यो वनिप्। उ० ४।११३। पॄ पालने पूर्त्तौ च-वनिप्। बहुपालनयुक्तेन ॥
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