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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
    ऋषिः - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप् सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त
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    ये स्रा॒क्त्यं म॒णिं जना॒ वर्मा॑णि कृ॒ण्वते॑। सूर्य॑ इव॒ दिव॑मा॒रुह्य॒ वि कृ॒त्या बा॑धते व॒शी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । स्रा॒क्त्यम् । म॒णिम् । जना॑: । वर्मा॑णि । कृ॒ण्वते॑ । सूर्य॑:ऽइव । दिव॑म् । आ॒ऽरुह्य॑ । वि । कृ॒त्या: । बा॒ध॒ते॒ । व॒शी ॥५.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये स्राक्त्यं मणिं जना वर्माणि कृण्वते। सूर्य इव दिवमारुह्य वि कृत्या बाधते वशी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । स्राक्त्यम् । मणिम् । जना: । वर्माणि । कृण्वते । सूर्य:ऽइव । दिवम् । आऽरुह्य । वि । कृत्या: । बाधते । वशी ॥५.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
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    हिन्दी (3)

    विषय

    हिंसा के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (जनाः) जन (स्राक्त्यम्)) उद्योगशील (मणिम्) मणि [श्रेष्ठ नियम] को (वर्माणि) कवच (कृण्वते) बनाते हैं। [उनके समान] (वशी) वश में करनेवाला पुरुष, (सूर्य इव) सूर्य के समान (दिवम्) आकाश में (आरुह्य) चढ़कर, (कृत्याः) हिंसाओं को (वि बाधते) हटा देता है ॥७॥

    भावार्थ

    जो पुरुष संयमी पुरुषों के समान जितेन्द्रिय होते हैं, वे बड़े यशस्वी होकर निर्विघ्न रहते हैं ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(ये) (स्राक्त्यम्) म० ४। उद्योगिनम् (मणिम्) म० १। श्रेष्ठनियमम् (जनाः) लोकाः (कृण्वते) कुर्वते (सूर्य इव) (दिवम्) आकाशम् (आरुह्य) अधिष्ठाय (वि) विशेषेण (कृत्याः) हिंसाः (बाधते) निवारयति (वशी) वशयिता पुरुषः ॥

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    विषय

    मणिरूप कवच

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (जना:) = लोग (स्त्राक्त्यम्) = तपस्या के द्वारा अपने को परिपक्व बनानेवाले लोगों में निवास करनेवाली (मणिम्) = वीर्यरूप मणि को (वर्माणि कृण्वते) = अपना कवच बनाते हैं, उनके जीवन में यह वीर्यमणि (वशी) = सब रोगादि शत्रुओं को वशीभूत करता हुआ (सूर्यः इव दिवम् आरुह्य) = सूर्य जैसे धुलोक में आरोहण करता है, उसी प्रकार मस्तिष्करूप झुलोक में आरुढ़ होकर (कृत्या:) = सब प्रकार के हिंसनों को (विबाधते) = दूर रोकनेवाला होता है। २. वीर्यरूप मणि मस्तिष्करूप धुलोक का ज्ञानसूर्य बनती है तथा शरीररूप पृथिवीलोक पर आक्रमण करनेवाले सब रोगरूप शत्रुओं को सुदूर विनष्ट करनेवाली होती है।

    भावार्थ

    सुरक्षित वीर्य हमारा कवच बनता है। यह रोगरूप शत्रुओं के आक्रमण से हमें बचाता है। मस्तिष्क में यह ज्ञानसूर्य के उदय का साधन बनता है और सब छेदन-भेदन को हमसे दूर रखता है।

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    भाषार्थ

    (ये) जो (जनाः) प्रजाजन (स्राक्त्यम् मणि) स्रज् द्वारा सत्कार योग्य पुरुषरत्न [सेनाध्यक्ष] को (वर्माणि) कवचरूप में (कृण्वते) कर लेते हैं, उन की शात्रवी (कृत्याः) सेनाओं को यह मणि (वि बाधते) विशेषतया नष्ट कर देता है, और (वशी) उन्हें अपने वश में कर लेता है, (इव) जैसे कि (सूर्यः) सूर्य (दिवम् आरुह्य) द्युलोक में आरोहण कर [अन्धकारों को विनष्ट कर देता है]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Pratisara Mani

    Meaning

    Those people who wear the corslet of the jewel of distinctive strength and courage, rise high as if to the light of the sun. Such a person, self-controlled and all controlling, repulses the onslaughts of violence against himself and the nation.

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    Translation

    Those people, who put on this blessing of progress as an armour, ascend to heaven like the Sun, and subduing others, destroy the evil plottings.

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    Translation

    Whosoever having him in control makes the man with this meritorious Mani his armor makes the evil designs of enemies ineffectual as the sun overcomes darkness rising upto heaven.

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    Translation

    He, who uses the excellent principle of hard work as his armour, like the Sun rise up to heaven, controlling his state, quells the evil designs of the enemy.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(ये) (स्राक्त्यम्) म० ४। उद्योगिनम् (मणिम्) म० १। श्रेष्ठनियमम् (जनाः) लोकाः (कृण्वते) कुर्वते (सूर्य इव) (दिवम्) आकाशम् (आरुह्य) अधिष्ठाय (वि) विशेषेण (कृत्याः) हिंसाः (बाधते) निवारयति (वशी) वशयिता पुरुषः ॥

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