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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 8
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप् सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त

    स्रा॒क्त्येन॑ म॒णिना॒ ऋषि॑णेव मनी॒षिणा॑। अजै॑षं॒ सर्वाः॒ पृत॑ना॒ वि मृधो॑ हन्मि र॒क्षसः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्रा॒क्त्येन॑ । म॒णिना॑ । ऋषि॑णाऽइव । म॒नी॒षिणा॑ । अजै॑षम् । सर्वा॑: । पृत॑ना: । वि । मृध॑: । ह॒न्मि॒ । र॒क्षस॑: ॥५.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्राक्त्येन मणिना ऋषिणेव मनीषिणा। अजैषं सर्वाः पृतना वि मृधो हन्मि रक्षसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्राक्त्येन । मणिना । ऋषिणाऽइव । मनीषिणा । अजैषम् । सर्वा: । पृतना: । वि । मृध: । हन्मि । रक्षस: ॥५.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (स्राक्त्येन) उद्योगशील (मणिना) मणि [श्रेष्ठ नियम] द्वारा (मनीषिणा) महाबुद्धिमान् (ऋषिणा इव) ऋषि के साथ होकर जैसे मैंने (सर्वाः) सब (पृतनाः) सेनाओं को (अजैषम्) जीत लिया है, मैं (मृधः) हिंसक (रक्षसः) राक्षसों को (वि हन्मि) नाश करता हूँ ॥८॥

    भावार्थ - मनुष्य ऋषियों के समान पहिले से नियम धारण करके सब उपद्रवों को हटावें ॥८॥

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