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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप् सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त

    ये स्रा॒क्त्यं म॒णिं जना॒ वर्मा॑णि कृ॒ण्वते॑। सूर्य॑ इव॒ दिव॑मा॒रुह्य॒ वि कृ॒त्या बा॑धते व॒शी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । स्रा॒क्त्यम् । म॒णिम् । जना॑: । वर्मा॑णि । कृ॒ण्वते॑ । सूर्य॑:ऽइव । दिव॑म् । आ॒ऽरुह्य॑ । वि । कृ॒त्या: । बा॒ध॒ते॒ । व॒शी ॥५.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये स्राक्त्यं मणिं जना वर्माणि कृण्वते। सूर्य इव दिवमारुह्य वि कृत्या बाधते वशी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । स्राक्त्यम् । मणिम् । जना: । वर्माणि । कृण्वते । सूर्य:ऽइव । दिवम् । आऽरुह्य । वि । कृत्या: । बाधते । वशी ॥५.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (ये) जो (जनाः) जन (स्राक्त्यम्)) उद्योगशील (मणिम्) मणि [श्रेष्ठ नियम] को (वर्माणि) कवच (कृण्वते) बनाते हैं। [उनके समान] (वशी) वश में करनेवाला पुरुष, (सूर्य इव) सूर्य के समान (दिवम्) आकाश में (आरुह्य) चढ़कर, (कृत्याः) हिंसाओं को (वि बाधते) हटा देता है ॥७॥

    भावार्थ - जो पुरुष संयमी पुरुषों के समान जितेन्द्रिय होते हैं, वे बड़े यशस्वी होकर निर्विघ्न रहते हैं ॥७॥

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