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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 5/ मन्त्र 20
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् अथवा मन्त्रोक्ताः छन्दः - विराड्गर्भास्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - प्रतिसरमणि सूक्त

    आ मा॑रुक्षद्देवम॒णिर्म॒ह्या अ॑रि॒ष्टता॑तये। इ॒मं मे॒थिम॑भि॒संवि॑शध्वं तनू॒पानं॑ त्रि॒वरू॑थ॒मोज॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । मा॒ । अ॒रु॒क्ष॒त् । दे॒व॒ऽम॒णि: । म॒ह्यै । अ॒रि॒ष्टऽता॑तये । इ॒मम् । मे॒थिम् । अ॒भि॒ऽसंवि॑शध्वम् । त॒नू॒ऽपान॑म् । त्रि॒ऽवरू॑थम् । ओज॑से ॥५.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मारुक्षद्देवमणिर्मह्या अरिष्टतातये। इमं मेथिमभिसंविशध्वं तनूपानं त्रिवरूथमोजसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । मा । अरुक्षत् । देवऽमणि: । मह्यै । अरिष्टऽतातये । इमम् । मेथिम् । अभिऽसंविशध्वम् । तनूऽपानम् । त्रिऽवरूथम् । ओजसे ॥५.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 5; मन्त्र » 20

    पदार्थ -
    (देवमणिः) दिव्य मणि [श्रेष्ठ नियम] (मह्यै) बड़ी (अरिष्टतातये) कुशलता के लिये (मा) मुझ पर (आ अरुक्षत्) आरूढ़ [अधिकारवान्] हुआ है। [हे विद्वानो !] (इमम्) इस (तनूपानम्) शरीरपालक, (त्रिवरूथम्) तीन [आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक] रक्षावाले (मेथिम्) ज्ञान में (ओजसे) बल के लिये (अभिसंविशध्वम्) सब ओर से मिलकर प्रवेश करो ॥२०॥

    भावार्थ - सर्वशक्तिमान् परमेश्वर ने प्रत्येक प्राणी के कुशल के लिये उत्तम नियम उत्पन्न किये हैं, सब विद्वान् लोग उनका आश्रय लेकर अपना बल बढ़ावें ॥२०॥ इस मन्त्र का पूर्वभाग कुछ भेद से आ चुका है-अ० ३।५।५ ॥

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