अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - वरुणो अथवा यमः
छन्दः - चतुष्पाद्विराडनुष्टुप्
सूक्तम् - कुलपाकन्या सूक्त
1
ए॒षा ते॑ कुल॒पा रा॑ज॒न्तामु॑ ते॒ परि॑ दद्मसि। ज्योक्पि॒तृष्वा॑साता॒ आ शी॒र्ष्णः स॒मोप्या॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षा । ते॒ । कु॒ल॒ऽपा: । रा॒ज॒न् । ताम् । ऊं॒ इति॑ । ते॒ । परि॑ । द॒द्म॒सि॒ । ज्योक् । पि॒तृषु॑ । आ॒सा॒तै॒ । आ । शी॒र्ष्ण: । सॅं॒म्ऽओप्या॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एषा ते कुलपा राजन्तामु ते परि दद्मसि। ज्योक्पितृष्वासाता आ शीर्ष्णः समोप्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठएषा । ते । कुलऽपा: । राजन् । ताम् । ऊं इति । ते । परि । दद्मसि । ज्योक् । पितृषु । आसातै । आ । शीर्ष्ण: । सॅंम्ऽओप्यात् ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
विवाहसंस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(राजन्) हे वर राजा (एषा) यह कन्या (ते) तेरे (कुलपाः) कुल की रक्षा करनेहारी है, (ताम्) उसको (उ) ही (ते) तेरे लिये (परि) आदर से (दद्मसि) हम दान करते हैं। यह (ज्योक्) बहुत काल तक (पितृषु) तेरे माता-पिता आदिकों में (आसातै) निवास करे और (आशीर्ष्णः) अपने मस्तक तक [जीवनपर्यन्त वा बुद्धि की पहुँच तक] (समोप्यात्) ठीक-ठीक बढ़ती का बीज बोवे ॥३॥
भावार्थ
फिर वधूपक्षवाले माता-पिता आदि इस मन्त्र से जामाता की विनती करते और स्त्री-धर्म का उपदेश करते हुए कन्यादान करके गृहाश्रम में प्रविष्ट कराते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−कुलपाः। कुल+पा रक्षणे−कर्मण्युपपदे विच् प्रत्ययः। पातिव्रत्येन कुलस्य पालयित्री रक्षयित्री। राजन्। हे ऐश्वर्यवन् जामातः। ऊँ इति। अवश्यम्। परि+दद्मसि। इदन्तो मसिः। पा० ७।१।४६। इति मस इदन्तत्वम्। रक्षणार्थं दानं परिदानम्। रक्षणार्थं दद्मः, समर्पयामः। ज्योक्। म० १। दीर्घकालम्। पितृषु। म० १। मातापित्रादिबन्धुषु। आसातै। आस उपवेशने−लेटि आडागमः। टेः एत्वे। वैतोऽन्यत्र। पा० ३।४।९६। इति ऐकारः। आस्ताम्, निवसतु। आ-शीर्ष्णः। १।७।७। आङ् मर्यादावचने। पा० १।४।८९। इति आङः कर्मप्रवचनीयसंज्ञा। पञ्चम्यपाङ्परिभिः। पा० २।३।१०। इति पञ्चमी। शीर्षंश्छन्दसि। पा० ६।१।६०। इति शिरः शब्दस्य शीर्षन् आदेशः। मस्तकस्थितिपर्यन्तं, जीवनपर्य्यन्तम्। सम्-ओप्यात्=सम्+आ+उप्यात्। वप बीजवपने मुण्डने च-आशीर्लिङ्। यथामर्यादं बीजवपनं वर्धनं कुर्य्यात् ॥३॥
विषय
कन्या याग
व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज
मेरे प्यारे! वहाँ यागों का चयन करते हुए महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने एक कन्या याग का वर्णन किया है। नाना यागों में कन्या याग का भी अपने स्थान पर एक महत्व माना गया है। परन्तु कन्या कहते किसे हैं? और कन्या याग क्या है? वेद के ऋषियों ने इसके ऊपर अनुसन्धान किया। वेद में आया कि कन्या याग होना चाहिए। वेद का ऋषि कहता है, मन्त्र आता है कि कन्या सबसे प्रथम देव लोक में रहती है। उसके पश्चात कन्या पितर लोक में रहती है। उसके पश्चात वह पति लोक को प्राप्त हो करके वहाँ याग करने का अधिकार प्राप्त होता है। ऐसा वेद का ऋषि कहता है बेटा! हम नहीं कहते। वेद का आचार्य कहता है। याज्ञवल्क्य मुनि कह रहा है। वह कहता है कि कन्या प्रथम देवलोक में रहती है। बेटा! कन्या का जब बाल्यपन होता है, देवलोक के संरक्षण में होता है। देवता उसकी रक्षा करते हैं। देवता कौन हैं? देवलोक किसे कहते हैं? जहाँ देवता मानव की रक्षा करते हैं। मानव की रक्षा मानव ही नहीं कर रहा है। देवता उसकी रक्षा करते हैं। जैसे कन्या के प्रथम जीवन में बेटा! देवता रक्षा करते हैं। वह नग्न है। न उसे वस्त्रों का ज्ञान रहता है। वह सदैव अपने में ब्रह्मवत को प्राप्त होती रहती है। अपने में देववत को प्राप्त होती रहती है। उसकी देव प्रवृत्ति हो, उसकी रक्षा करती रहती है।
विचार क्या? मेरे प्यारे! इसको कन्या याग कहते हैं। याज्ञवल्क्य मुनि कहते हैं, कन्या सबसे प्रथम देवलोक में रहती है। देवता उसका पालन करते हैं। उसके पश्चात वह पितर लोकां को प्राप्त होती है। पितर लोकों में जाने के पश्चात वह याग करती है विद्या का। विद्या का अध्ययन करना, ब्रह्मचरिष्यामि अपने ब्रह्मचर्य को देवलोक में पहुंचाना यह माता वीरांगना का कर्तव्य बन जाता है। संस्कार होने के पश्चात वह कन्या पति लोक को प्राप्त होती है और पति लोक को प्राप्त हो करके वह याग करती है। हमारे यहाँ वेद के ऋषि कहते हैं सन्तान को उपार्जन करने का नाम याग माना है। हमें याग करना है। संसार में जितना भी जीवन का क्रिया कलाप है उस सर्वत्रता का नाम याग माना गया है। आज मैं विशेष चर्चा तुम्हें प्रकट करने नहीं आया हूँ। आज का विचार विनिमय क्या? कि हमें बेटा! अपने जीवन को महान बनाना है। हमें अपने जीवन को ऊर्ध्वा में पहुंचाना है क्योंकि मेरे प्यारे! पतिलोकाम् ब्रह्मः, पति लोक को प्राप्त हो करके ब्रह्म का चिन्तन करना है और याग करना है। हमारे ऋषि मुनियों ने ऊँची ऊची उड़ान उड़ी है। एक ही उड़ान नहीं। नाना प्रकार की उड़ान का वर्णन हमारे वैदिक साहित्य में आता रहा है।
याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने कन्या याग के सम्बन्ध में अपनी लेखनी बद्ध करते हुए कहा कि कन्याम् भवते देवः अस्वाम ब्रह्म वाचो दिव्यगतः। उन्होंने इस वेदमन्त्र को ले करके जहाँ कन्या याग का वर्णन किया है। मुनिवरों! गार्हपथ्य नाम की अग्नि और कन्या याग एक ही सूत्र के मनके हैं, दोनों एक ही सूत्र में सूत्रित हो जाते हैं। कन्या याग का अभिप्राय यह कि कन्याम द्रेवः लोकाम वाजप्रभिक्तो देवः।
परन्तु द्वितीय लोक है पितर लोक बेटा! जब कन्या युवा होने लगती है। तो उसकी संरक्षणता पितर लोक कहलाता है। पितर उसे शिक्षित बनाते हैं। अहा! वह आचार्य को अपना पितर बना करके शिक्षा में महान बना करती है। मुझे स्मरण आता रहा है बेटा! बहुत पुरातन काल में मनु वंश की चर्चा आती है। हमारे यहाँ एक माता मल्दालसा सतोयुग के काल में हुई। माता मल्दालसा को बाल्यकाल में पितर ने आचार्य कुल में प्रवेश कराया। क्योंकि आचार्य भी पितर होते हैं। आचार्य कुल में जब प्रवेश हुआ तो माता मल्दालसा का अध्ययन का विषय था, परमाणुवाद। कि मैं संसार में यदि गृहस्थ में जाऊगी तो मेरा क्या क्या कर्तव्य है? सदैव वह वेद की चर्चाएं जो वैदिक साहित्य में आती हैं उनको अध्ययन करती रहती थी। एक समय बेटा! माता मल्दालसा अध्ययन कर रही थी कि यदि मैं गृह में प्रवेश करूं और मेरे गर्भस्थल में बाल्य का अथवा पुत्र का जन्म हो तो, मैं इस संसार में तेरी आभा में जो मानव रमण कर रहा है, मान में, अपमान में इस समाज में जो अपने मानवीयता को व्यतीत करता है वह पशु तुल्य जीवन होता है। मैं यह चाहती हूँ मेरे गर्भ से उत्पन्न होने वाला ब्रह्मचरिष्यामि बाल्य हो, वह इस संसार से उपराम होना चाहिए। उसे विवेक होना चाहिए। मैं कैसे अध्ययन शील बनूं और कैसे मेरा यह कर्म बने? बेटा! वेद में नाना प्रकार की विद्याएं आती हैं। उनको वह अध्ययन करने लगी। आयुर्वेद में उसकी पारायणता को दृष्टिपात करके महर्षियों ने बेटा! उसको धन्य धन्य कहा।
मुझे स्मरण है बेटा! एक समय जब माता मल्दालसा अध्ययन करती थी तो उनके विद्यालय में एक समारोह हुआ। उसमें नाना ऋषि, कुछ ब्रह्मवेत्ता, कुछ ब्रह्म जिज्ञासु भी विराजमान हुए। मुनिवरों! उस समारोह में माता मल्दालसा जब वार्ता प्रकट करने लगी तो माता मल्दालसा ने यह कहा कि मेरी इच्छा यह है, अब मैं पितरकाल में विद्यमान हूँ। मेरा जिस काल में पति लोक प्राप्त होगा, उस समय यह संसार को जानने के लिए मेरा यह निश्चय हुआ है कि मेरे गर्भ से उत्पन्न होने वाला सन्तान इस संसार से उपराम होना चाहिए अथवा वह ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मनिष्ठ होना चाहिए। माता मल्दालसा उस समारोह में वार्ता प्रकट कर रही थी। यह उच्चारण कर रही थी, संसार में मेरी पुत्रियों को यह विचारना चाहिए कि कैसे अपने जीवन को व्यतीत करना है? त्याग और तपस्या से राष्ट्र और समाज को ऊँचा बनाना है। इस समाज को ब्रह्म वेत्ता की आवश्यकता रहती है। यह समाज केवल द्रव्य से ही ऊँचा नहीं बनता है। यह राष्ट्र है, जो समाज है, ऊचे ऊचे भवनों से ऊँचा नहीं बनता है। यह उस काल में ऊँचा बनता है जब कि ब्रह्मवेत्ता आचार्य होंगे और ब्रह्मचर्य वेत्ता आचार्य ही इस संसार को ऊँचा बना सकते हैं। क्योंकि संसार में प्रत्येक स्थलियों पर विवेक की आवश्यकता रहती है। विवेक होना चाहिए। माता मल्दालसा यह समारोह में प्रकट कर रही थी। मेरे प्यारे! पितर जन आचार्यजन यह उच्चारण कर रहे थे कि हे देवी! जो यह वाक्य उच्चारण कर रही हो क्या यह समाज विवेकी पुरुषों से ही ऊँचा बनता है? उन्होंने कहा अवश्य बनता है। विवेकी पुरुष राजा को मार्ग दर्शाते हैं। विवेकी पुरुष ही गृह को मार्ग दर्शाने वाले होते हैं। विवेकी पुरुष ही इस संसार में ऊँची उड़ान उड़कर लोक लोकान्तरों की यात्रा करते हैं। विवेकी पुरुष ही आध्यात्मिक विज्ञानवेत्ता बन करके, आत्मा के समीप जा करके परमात्मा को प्राप्त करते हैं जहाँ अनन्तमयी प्रकाश को प्राप्त करके मानव अपने जीवन को ऊँचा बनाता है। माता मल्दालसा की वार्ता को पान करने के पश्चात ऋषि मुनि बेटा! मौन हो गए।
आत्म चिन्तन करके आत्मा के अनुकूल जो प्रवृत्तियाँ है, आत्मतत्व की जो प्रवृत्तियाँ हैं, उनके ऊपर अपना अधिपथ्य करना, उसके अनुसार करना। इस प्रकार क्रियाकलाप करने का नाम अनुशासन कहा जाता है।
विषय
विवाह का उद्देश्य
पदार्थ
१ . हे (राजन्) = नियमित जीनेवाली युवक ! (एष) = यह वधू (ते) = तेरे (कुलपा) = कुल का लक्षण करनेवाली हो , मुझसे संतान को जन्म देकर तेरे कुल का विच्छेद न होने देनेवाली हो | (ताम्) = उसे हम (उ) = निश्चय से (ते) = तेरे लिए (परि दाद्यसी) = देते हैं | २. यह कन्या वह है जोकि (आ शीर्ष्णा: स्मोप्यात्) = [सम् आ वप्] सिर में, मस्तिष्क में ज्ञान केसम्यक् वपन के समय तक (ज्योक्) = देर तक (पितृषु आसाता) = माता-पिता व आचार्य के समीप रही है| 'पितृषु' यह बहुवच
शब्द आचार्य-सान्निध्य का भी संगेत कर रहा है | ज्ञान देने से आचार्य भी पिता ही है |
भावार्थ
विवाह का प्रमुख उद्देश्य वंश का उच्छेदन न होने देना ही है, अतः गृहस्थ एक अत्यंत पवित्र आश्रम है | मस्तिष्क को ज्ञान से अलंकृत करने के पश्चात् ही एक युवति इसमें प्रवेश करती है|
भाषार्थ
(राजन्) राजमान अर्थात् शोभायमान हे वर ! (एषा ) यह कन्या (ते) तेरे (कुलपा) कुल की रक्षिका है, (ताम् उ) उसे ( ते ) तुझे ( परिदद्मसि) हम कन्या के सम्बन्धी समर्पित करते हैं । ( ज्योक्) चिरकाल तक (पितृषु) तेरे पिता आदि में (आसातै) निवास करे और (शीर्ष्ण:) सिर अर्थात् विचार से (शम्) सुख का (ओप्यात्) बीज बोए, उसका विस्तार१ करे डुवप बीजसन्ताने छेदने च (भ्वादि ) चिरकाल तक अर्थात् जब तक वह चाहे, अर्थात् वैराग्य हो जाने से पूर्वकाल तक । वैराग्य हो जाने पर विवाहिता स्त्री भी गृह परित्याग का अधिकार रखती है। यथा "यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेद् गृहाद्वा वनाद्वा ब्रह्मचर्यादेव वा व्रजेत्" (जाबालोपनिषद् खण्ड ४)। स्त्रियों को भी प्रव्रज्या अर्थात् संन्यास का अधिकार है। यथा "अथ जिर्विः२ विदथमा वदासि" (अथर्व० १४।१।२१) गृहाद्वा द्वारा स्त्रियों के लिये श्वशुरगृह भी समझना चाहिये। विदथम्= ज्ञानम्
टिप्पणी
[ओप्यात् =आवपनात्, वपनं छेदनम्, डुवप् बीजसन्ताने छेदने च (भ्वादिः)। कुलपाः= सन्तानोत्पादन द्वारा कुल परम्परा की रक्षिका। सिर के न वपन का अवधिकाल है जब तक कि पत्नी संन्यास ग्रहण न करे संन्यासकाल में सिर के केशों का वपन होता है-यह प्रथा है । उस संन्यास काल में वृद्धा स्त्री भी संन्यास ग्रहण कर ज्ञानोपदेश करती है यथा "अथ-जिर्विर्विदथमावदासि" (अथर्व० १४।१।२१)। यह प्रथा पुरुष के लिये भी है (अथर्व० ८।१।६)।] [१. बीज बोने के लिये खेत में उसका विस्तार करना होता है। है। २. प्रव्रज्या तो जब भी वैराग्य हो जाय तब हो सकती है, परन्तु ज्ञानोपदेश का अधिकार जरावस्था में ही है, जबकि वह अनुभवी हो जाय। इससे पूर्व वैरागी विरक्ता भ्रम में निवास करे, चाहे वह स्त्री हो चाहे पुरुष (अथर्व० ८।१।६)।]
विषय
कन्यादान, विद्युत् सम्बन्धी रहस्य
भावार्थ
कन्या के पिता आदि का ब्रह्मचारी वर के प्रति वचन । हे ( राजन् ) प्रकाशमान वर ! ( एषा ) यह कन्या ( ते कुलपा ) तेरे कुल का पालन करने हारी हो, इसलिये ( ताम् उ ) उसको हम ( ते ) तेरे लिये ( परि दद्मसि ) सब प्रकार से प्रदान करते हैं । वह कन्या ( ज्योक् ) निरन्तर ( पितृषु ) सास, स्वसुर आदि पितरों के मध्य में ( आसातै ) स्थित रहे और ( शीर्ष्णः ) सिर अर्थात् सुविचार से ( शम् ओप्यात् ) इन पितरों में शान्ति और कल्याण के बीज बोवे ।
टिप्पणी
सायण ने इस मन्त्र में दुर्भगा स्त्री का शिरः पतन अर्थात् मृत्यु तक पिता के घर में पडे रहने परक अर्थ किया है । सो असंगत है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वंगिरा ऋषिः । ‘विद्युत्’ वरुणो, यमो वा देवता । १, ककुम्मती अनुष्टुप् । २, ४ अनुष्टुभौ । ३ चतुष्पाद विराङ्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Bride
Meaning
O brilliant bridegroom, this bride—we now give her hand unto you as wife—is now a member support of your family. May she live a long life among her new parents and seniors, and may she by her thoughts, words and mind contribute to the peace and well being of your family.
Translation
O prince, this maiden would keep the traditions of your family. We give her to you wholly and fully. Let her stay with her parents for a while, till her head is dressed and decorated.
Translation
O brilliant bride-groom; may this bride be the protecting force to your family, we give her to you. May she be constant forever in her father in-law's home and may she always create the atmosphere of mental peace for her and them.
Translation
O excellent bridegroom, may this girl be the guardian of thy family. We hand her over to thee. May she live long in the midst of thy kinsfolk and through her wisdom and lofty ideas contribute to the peace and prosperity of thy family.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−कुलपाः। कुल+पा रक्षणे−कर्मण्युपपदे विच् प्रत्ययः। पातिव्रत्येन कुलस्य पालयित्री रक्षयित्री। राजन्। हे ऐश्वर्यवन् जामातः। ऊँ इति। अवश्यम्। परि+दद्मसि। इदन्तो मसिः। पा० ७।१।४६। इति मस इदन्तत्वम्। रक्षणार्थं दानं परिदानम्। रक्षणार्थं दद्मः, समर्पयामः। ज्योक्। म० १। दीर्घकालम्। पितृषु। म० १। मातापित्रादिबन्धुषु। आसातै। आस उपवेशने−लेटि आडागमः। टेः एत्वे। वैतोऽन्यत्र। पा० ३।४।९६। इति ऐकारः। आस्ताम्, निवसतु। आ-शीर्ष्णः। १।७।७। आङ् मर्यादावचने। पा० १।४।८९। इति आङः कर्मप्रवचनीयसंज्ञा। पञ्चम्यपाङ्परिभिः। पा० २।३।१०। इति पञ्चमी। शीर्षंश्छन्दसि। पा० ६।१।६०। इति शिरः शब्दस्य शीर्षन् आदेशः। मस्तकस्थितिपर्यन्तं, जीवनपर्य्यन्तम्। सम्-ओप्यात्=सम्+आ+उप्यात्। वप बीजवपने मुण्डने च-आशीर्लिङ्। यथामर्यादं बीजवपनं वर्धनं कुर्य्यात् ॥३॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(রাজন্) হে বর রাজা! (এষা) এই কণ্যা (তে) তোমার (কুলপাঃ) কুলের রক্ষয়িত্রী । (তাম্) তাহাকে (উ) ই (তে) তোমার জন্য (পরি) আদর পূর্বক (দদ্মসি) সমর্পণ করিতেছি। (জ্যোক্) বহুদিন পর্যন্ত (পিতৃম্বু) তোমার পিতা মাতা আদির মধ্যে (আসাতৈ) সে নিবাস করুক (আ-শীষ্ণঃ ) এবং মস্তক পর্যন্ত (সমোপ্যাৎ) উন্নতির বীজ বপন করুক।।
भावार्थ
(বধূ পক্ষের উক্তি) হে বররূপী রাজন! এই কন্যা তোমার কুলের রক্ষয়িত্রী । তাহাকে তোমার নিকট সাদরে সমর্পণ করিতেছি। বহু দিন পর্যন্ত সে তোমার পিতৃকুলে নিবাস করুক এবং চরমবুদ্ধির প্রয়োগ দ্বারা উন্নতির বীজ বপন করুক।।
मन्त्र (बांग्ला)
এষা তে কুলপা রাজন্ তামু তে পরি দদ্মসি। জ্যোক্ পিতৃম্বাসাতা আশীষ্ণঃ সমোপ্যাৎ।।
ऋषि | देवता | छन्द
ভৃগ্বঙ্গিরাঃ। যম। চতুষ্পডনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(বিবাহসংস্কারোপদেশঃ) বিবাহসংস্কারের উপদেশ
भाषार्थ
(রাজন্) হে বর রাজা (এষা) এই কন্যা (তে) তোমার (কুলপাঃ) কুলের রক্ষাকারী, (তাম্) তাঁকে (উ) ই (তে) তোমার জন্য (পরি) আদরপূর্বক (দদ্মসি) আমরা দান করি। এ (জ্যোক্) অনেক কাল পর্যন্ত (পিতৃষু) তোমার মাতা-পিতার সাথে (আসাতৈ) নিবাস করুক এবং (আশীর্ষ্ণঃ) নিজের মস্তক পর্যন্ত [জীবনপর্যন্ত বা বুদ্ধির সীমান্ত পর্যন্ত] (সমোপ্যাৎ) ঠিক-ঠিক বিস্তারের বীজ বপন করুক ॥৩॥
भावार्थ
আবার বধূপক্ষের মাতা-পিতা আদি এই মন্ত্র দ্বারা জামাতার প্রতি বিনতী করে এবং স্ত্রী-ধর্ম এর উপদেশ করে কন্যাদান করে গৃহাশ্রমে প্রবিষ্ট করায় ॥৩॥
भाषार्थ
(রাজন্) রাজমান অর্থাৎ শোভায়মান হে বর ! (এষা) এই কন্যা (তে) তোমার (কুলপা) কুলের রক্ষিকা, (তাম্ উ) তাঁকে (তে) তোমাকে/তোমার প্রতি (পরিদদ্মসি) আমরা কন্যার সম্বন্ধী/আত্মীয় সমর্পিত করছি/করি। (জ্যোক্) চিরকাল পর্যন্ত (পিতৃষু) তোমার পিতা আদিতে (আসাতৈ) নিবাস করুক এবং (শীর্ষ্ণঃ) শির/মাথা অর্থাৎ বিচারপূর্বক (শম্) সুখের (ওপ্যাৎ) বীজ বপন করুক, বিস্তার১ করুক। ডুবপ বীজসন্তানে ছেদনে চ (ভ্বাদিঃ) চিরকাল পর্যন্ত অর্থাৎ যখন পর্যন্ত সে চায়, অর্থাৎ বৈরাগ্য হওয়ার পূর্বকাল পর্যন্ত। বৈরাগ্য হয়ে গেলে বিবাহিতা স্ত্রীও গৃহ পরিত্যাগের অধিকারী হয়। যথা "যদহরেব বিরজেৎ তদহরেব প্রব্রজেদ্ গৃহাদ্বা বনাদ্বা ব্রহ্মচর্যাদেব বা ব্রজেৎ" (জাবালোপনিষদ্ খণ্ড ৪)। স্ত্রীদেরও প্রব্রজ্যা অর্থাৎ সন্ন্যাসের অধিকার আছে। যথা "অথ জির্বিঃ২ বিদথমা বদাসি" (অথর্ব০ ১৪।১।২১) গৃহাদ্বা দ্বারা স্ত্রীদের জন্য শ্বশুরগৃহও বোঝা উচিৎ। বিদথম্= জ্ঞানম্।
टिप्पणी
[ওপ্যাৎ =আবপনাৎ, বপনং ছেদনম্, ডুবপ্ বীজসন্তানে ছেদনে চ (ভ্বাদিঃ)। কুলপাঃ= সন্তানোৎপাদন দ্বারা কুল পরম্পরার রক্ষিকা। সির না বপনের অবধিকাল হল যতক্ষণ পর্যন্ত পত্নী সন্ন্যাস গ্রহণ না করে। সন্ন্যাসকালে মাথা চুলের বপন হয়-এটা প্রথা। সেই সন্ন্যাস কালে বৃদ্ধা স্ত্রীও সন্ন্যাস গ্রহণ করে জ্ঞানোপদেশ করে। যথা "অথ-জির্বির্বিদথমাবদাসি" (অথর্ব০ ১৪।১।২১)। এই প্রথা পুরুষের জন্যও (অথর্ব০ ৮।১।৬)।] [১. বীজ বপনের জন্য জমিতে তার বিস্তার করতে হয়। ২. প্রব্রজ্যা তো যখনই বৈরাগ্য হয়ে যায় তখন হতে পারে, কিন্তু জ্ঞানোপদেশের অধিকার জরাবস্থায় হয়, যখন সে অনুভবী হয়ে যায়। এর পূর্বে বৈরাগী বিরক্তা গৃহূ নিবাস করুক, সে স্ত্রী হোক বা পুরুষ (অথর্ব০ ৮।১।৬)।]
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