अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - वरुणो अथवा यमः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुलपाकन्या सूक्त
1
असि॑तस्य ते॒ ब्रह्म॑णा क॒श्यप॑स्य॒ गय॑स्य च। अ॑न्तःको॒शमि॑व जा॒मयो ऽपि॑ नह्यामि ते॒ भग॑म्।।४।।
स्वर सहित पद पाठअसि॑तस्य । ते॒ । ब्रह्म॑णा । क॒श्यप॑स्य । गय॑स्य । च॒ । अ॒न्त॒:को॒शम्ऽइ॑व । जा॒मय॑: । अपि॑ । न॒ह्या॒मि॒ । ते॒ । भग॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
असितस्य ते ब्रह्मणा कश्यपस्य गयस्य च। अन्तःकोशमिव जामयो ऽपि नह्यामि ते भगम्।।४।।
स्वर रहित पद पाठअसितस्य । ते । ब्रह्मणा । कश्यपस्य । गयस्य । च । अन्त:कोशम्ऽइव । जामय: । अपि । नह्यामि । ते । भगम् ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विवाहसंस्कार का उपदेश।
पदार्थ
(असितस्य) जो तू बन्धनरहित, (कश्यपस्य) [सोम] रस पीनेहारा, (च) और (गयस्य) कीर्तन के योग्य है, उस (ते) तेरे (ब्रह्मणा) वेदज्ञान के कारण (ते) तेरे लिये (भगम्) ऐश्वर्य को (अपि) अवश्य (नह्यामि) मैं बाँधता हूँ। (इव) जैसे (जामयः) कुलस्त्रियाँ [वा बहिनें] (अन्तः कोशम्) मञ्जूषा वा पिटारे को [बाँधती] हैं ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र के अनुसार वधू पक्षवाले पुरुष और स्त्रियाँ विनती करके श्रेष्ठ वर और कन्या को धन, भूषण और वस्त्र आदि से सत्कार के साथ विदा करें ॥४॥
टिप्पणी
४−असितस्य। अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति षिञ् बन्धने-क्त, नञ्समासः। अबद्धस्य, मुक्तस्य। ब्रह्मणा। १।८।४। वेदज्ञानकारणेन। कश्यपस्य। कश शब्दे−बाहुलकात् करणे-यत्। कशति अनेनेति कश्यं सुखकरो रसः। कश्य+पा पाने-क। कश्यं सोमरसं पिबतीति कश्यपः। सोमपानशीलस्य। गयस्य। गै गाने-घञ्, पृषोदरादित्वात् ह्रस्वः। गेयस्य कीर्तनीयस्य। अन्तः कोशम्−कुश संश्लेषणे−अधिकरणे घञ्। वस्त्रादिधारणाय आवरणम्, मञ्जूषाम्। जामयः। १।४।१। कुलस्त्रियः, माताभगिन्यादयः। अपि। अवधारणे, अवश्यम्। नह्यामि। णह बन्धने-श्यन्। बध्नामि। भगम्। म० १। ऐश्वर्यम् ॥४॥
विषय
पत्नी अन्तः कोश'-सी
पदार्थ
१. (असितस्य ते) = विषयों से अबद्ध जो तू (ब्रह्मणा) = ज्ञान के द्वारा (कश्यपस्य) = [पश्यकस्य] वस्तुओं को ठीक रूप में देखनेवाला जो तू, वस्तुत: विषयों की आपात रमणीयता से तू इसीलिए तो मोहित नहीं हुआ कि तूने उन्हें ठीक रूप में देखा है, (गयस्य च) = प्राणशक्ति से सम्पन्न जो तू है, उस तेरे लिए (जामयः) = पत्नी (अन्तः कोशम् इव) = आध्यात्मिक सम्पत्ति के समान हैं। विषयों से अबद्ध, ज्ञान के कारण तात्विक दृष्टिवाला, प्राणसाधक पुरुष पत्नी को अपनी आध्यात्मिक सम्पत्ति के रूप में देखता है। वह पत्नी में एक मित्र को पाता है, जो उसे पतन से बचाकर उत्थान की ओर ले जानेवाली होती है। वैषयिक, अतात्त्विक दृष्टिवाले, प्राणशक्ति के महत्त्व को न समझनेवाले पुरुष के लिए यह स्त्री ही नरक का द्वार हो जाती है। २. कन्या का पिता कहता है कि हम अपनी कन्या को तुम्हारे लिए क्या देते हैं (ते भगम्) = तुम्हारा ऐश्वर्य (अपि नह्यामि) = तुम्हारे साथ जोड़ते हैं।
भावार्थ
पति 'असित, कश्यप व गय' होता है तो पत्नी उसके लिए 'अन्त:कोश' के समान होती है।
विशेष
कुलवधू 'भग व वर्च' वाली हो [१]। वर नियमित जीवनवाला व संयमी हो [२]। वह विवाह का मूलोद्देश्य वंश-अविच्छेद ही समझे[३]।अवैषयिक, तात्त्विक-दृष्टिवाले, प्राणसाधक पुरुष के लिए पत्नी 'अन्त:कोश'-सी है [४]। इसप्रकार के घरों में ही प्रेम और मेल बना रहता है। यह प्रेम सामाजिक सङ्गठन के रूप में व्यक्त होता है -
भाषार्थ
(असितस्य) बन्धन रहित अर्थात् सर्वव्यापक के, (कश्यपस्य ) सर्वद्रष्टा के, (गयस्य च) और प्राणरूप परमेश्वर के (ब्रह्मणा) वेद द्वारा, अर्थात् वेदोपदेश द्वारा (ते) तेरे लिये [हे वर !] ( भगम् ) कन्या के सौभाग्य को (अपि ) भी ( नह्यामि ) मैं वांधता हूँ, दृढ़वद्ध करता हूँ। (जामयः) स्त्रियाँ (अन्तः कोशम् इव) छिपे खजाने के सदृश हैं।
टिप्पणी
[नह्यामि द्वारा कन्याप्रदाता कन्या का दृढ़ बन्धन वर के साथ करता है। वह प्रदाता कन्या का पिता है। स्त्रियाँ सद्गुणों में, छिपे-कोश के सदृश हैं । अतः उनकी रक्षा यत्नपूर्वक होनी चाहिये।
विषय
कन्यादान, विद्युत् सम्बन्धी रहस्य
भावार्थ
( असितस्य ) बन्धन रहित (कस्यपस्य) सर्वद्रष्टा ( गयस्य च ) सर्वाश्रय तथा प्राणस्वरूप प्रभु के ( ब्रह्मणा ) वेदज्ञान द्वारा ( ते ) तेरे ( भगम् ) ज्ञान, ऐश्वर्य, धर्म आदि सद्गुणों को ( अपिनह्यामि ) तुझ में स्थिर रूप से बांधता हूं। ताकि ( जामयः ) स्त्रियां ( अन्तः कोशम् इव ) छुपे खजाने की न्याई हो जाय ।
टिप्पणी
‘अन्तः कोशे’ इइि ह्विटनीकामितः पाठः, ‘अन्तः कोशं व’ इति अनुक्रमणीगतः पाठः। उक्त सूक्त में विद्युत्-विद्या सम्बन्धी रहस्य । “ ‘नमस्ते अस्तु’, ‘भगमस्य’ इति द्वे सूक्ते वैद्युते, द्वे अनुष्टुभे । प्रथमं वैद्युतं परं वारुणं वा उत याम्यं वा। प्रथमेन वैद्युतमस्तौत् द्वितीयेन तदर्थं यमम्। ” इस प्रकार अथर्ववेद सर्वानुक्रमणीकार का लेख है। इसका अभिप्राय यह है कि ‘नमस्ते अस्तु’ (१।१३) और ‘भगमस्याः’ (१।१४) इन दोनों सूक्तों का देवता विद्युत् है अथवा प्रथम का विद्युत् दूसरे का वरुण या यम है। प्रथम से विद्युत् का वर्णन करते हैं और दूसरे से उसी विद्युत् के लिये ‘यम’ का वर्णन करते हैं। अर्थात् ‘भगमस्याः’ इस सूक्तमें भी विद्युत् का वर्णन या विद्युत् के लिये यम या वरुण का वर्णन आवश्यक है । विद्युत् में इस सूक्त के अर्थ इस प्रकार हैं। (१) ( अस्याः भगं ) इस विद्युत् के सौभाग्यकारी दिव्य सुन्दर नाना कला कौशल चलाने में समर्थ ( वर्चः ) तेज और बल को ( आदिषि ) मैं संग्रह करता हूं। ( वृक्षात् अधि स्रजम् इव ) जिस प्रकार माली वृक्ष से फूल चुन कर संग्रह किया करता है । ( महाबुध्नः पर्वत इव ) जिस प्रकार विशाल आधार वाला पर्वत स्थिर रहता है उसी प्रकार वह विद्युत् चंचल होकर भी उसके बांधने और नियम में रखने और उत्पन्न करने वाले ( पितृषु ) विद्वान् या विद्युत् के उत्पादक यन्त्रों के बीच ( ज्योक् ) चिरकाल तक ( आस्ताम् ) स्थिरता से रहे और कार्य करे । (२) हे ( यम ) विद्युत् का नियमन करने, उसको वश करने वाले ! राजन् ! ( एषा ) यह ( कन्या ) अति तीव्रगति वाली विद्युत् ( वधूः निधूयताम् ) तेरे नाना कार्यों को करने और यन्त्र, रथ आदि ढोने में समर्थ हो । (सा) वह विद्युत् ( मातुः ) उसको मापने में कुशल अथवा उत्पन्न करने में चतुर शिल्पी के बनाये (गृहे) घर, पावर हाऊस में ( अथो भ्रातुः अथो पितुः ) अथवा उसको भरण पोषण या अधिक प्रबल करने वाले, यन्त्र के बनाने वाले या उसको पालन, सुरक्षित रखने वाले शिल्पी के कोटे में ( बध्यताम् ) नियमित करके रखा जाय । विद्युत् को पैदा करना, मापना बढ़ाना और उसका संचय करना यह भिन्न २ यन्त्रोंसे किया जाय। उन यन्त्रों के स्थापन के लिये भिन्न २ स्थान हों उन पर भिन्न २ अधिष्ठाता हो । उन सबमें विद्युत् को नियमित रख कर व्यर्थ न जाने दिया जाय । ( ३ ) हे ( राजन् ! एषा ते कुलषा, ताम् उ ते परिदद्मसि ) राजन् विद्वन् ! शास्त्र के निष्णात, उसके नियामक ! यह विद्युत् तेरे कुल अर्थात् बहुत से कार्यों का पालन करती है, पंखा चलाना, दीपक जलाना आदि सब काम करती है इसीसे घरवाली के समान है। वह विद्युत् ( शीर्ष्णः समोप्यात् पितृषु ज्योक् आस्ताम् ) सिरेके मिलाने तक अपने पालक कारीगरों के पावर हाउस में ही चिरकाल तक रहे। जब तक सिरे नहीं मिलाये जाते तब तक विद्युत् धारा चलती नहीं वह पात्र या पावर हाउस में ही रहती है। परन्तु जब बाहर सब तारें ठीक ठीक लगादी जाय और सिरे मिला दिये जाय तो वह विद्युत् औरों के घरों में कार्य करती है । ३ (४) ( असितस्य कश्यपस्य गयस्य च ब्रह्मणा ते भगम् जामयः अन्तः कोशम् इव अपि नह्यामि ) जिस प्रकार स्त्रियां या बहनें अपने भीतरी खजाने या गर्भाशय रूप कोष को सुरक्षित करके रखती हैं उसी प्रकार मैं विद्युत् विज्ञानवेत्ता तुझ विद्युत् के अलौकिक बल और तेज को खूब बांध कर सुरक्षित रखूं। इसके लिये विद्युत् के तीन प्रकार के ब्रह्म-विज्ञानों का उपयोग करूं । ( १ ) असित बन्धन रहित, अवश्य या अदम्य विद्युत् के उच्छृंखल प्रबल गतिसम्बन्धी विज्ञान, ( २ ) कश्यप=पश्यक, विद्युत् के प्रकाश सम्बन्धी विज्ञान और ( ३ ) ( गयस्य ) विद्युत् के शब्द सम्बन्धी विज्ञान से विद्युत् के भग=सेवन करने योग्य बल और सामर्थ्य को बांधता हूं । विद्युत् सम्बन्धी इन गूढ अर्थों को संक्षेप में प्रकट किया गया है। इनका विस्तृत विवरण असित, गय, कश्यप नाम से प्रकट मन्त्रों के सोम प्रकरण के वैज्ञानिक मन्त्रों में देखना चाहिये, अथवा अन्य उपवेदों में इसका विवरण सुलभ हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वंगिरा ऋषिः । ‘विद्युत्’ वरुणो, यमो वा देवता । १, ककुम्मती अनुष्टुप् । २, ४ अनुष्टुभौ । ३ चतुष्पाद विराङ्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Bride
Meaning
By the word and law of the free, all wise, all watching adorable lord of the universe, I bind together your life and good fortune, dignity and prosperity together, yours, O bride, and yours, O bride groom, and just as women tie up and safeguard the treasure chest of the family, so together you too safeguard the honour and dignity of the family.
Translation
With the knowledge of family traditions, domestic customs and with an acquaintance with domestic cures and medicines, I bind your fortune as the sisters pack their valuables secure in an attache (or basket).
Translation
As women bind their box etc in the same manner I the head of the bride's family bind you with the fortune, knowledge, merits etc of the bride through the verses of the Vedas of All dictating God who is the object of all worship and free from all strings.
Translation
Through the Vedic knowledge of the unrestrained All-seeing and All-sustaining God, I preserve thy knowledge, dignity and virtues, as ladies preserve their ornaments and clothes in a box.
Footnote
Griffith wrongly considers Asita, Kashyapa and Gayas as ancient Rishis, These words denote the qualities of God. I refers to the bridegroom. Thy refers to the bride.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−असितस्य। अञ्चिघृसिभ्यः क्तः। उ० ३।८९। इति षिञ् बन्धने-क्त, नञ्समासः। अबद्धस्य, मुक्तस्य। ब्रह्मणा। १।८।४। वेदज्ञानकारणेन। कश्यपस्य। कश शब्दे−बाहुलकात् करणे-यत्। कशति अनेनेति कश्यं सुखकरो रसः। कश्य+पा पाने-क। कश्यं सोमरसं पिबतीति कश्यपः। सोमपानशीलस्य। गयस्य। गै गाने-घञ्, पृषोदरादित्वात् ह्रस्वः। गेयस्य कीर्तनीयस्य। अन्तः कोशम्−कुश संश्लेषणे−अधिकरणे घञ्। वस्त्रादिधारणाय आवरणम्, मञ्जूषाम्। जामयः। १।४।१। कुलस्त्रियः, माताभगिन्यादयः। अपि। अवधारणे, अवश्यम्। नह्यामि। णह बन्धने-श्यन्। बध्नामि। भगम्। म० १। ऐश्वर्यम् ॥४॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(অসিতস্য) বন্ধন রহিত (কশ্যপস্য) সোমরস পানকারী (চ) এবং (গয়স্য) কীর্তনের যোগ্য (তে) তোমার (ব্রহ্মণা) বেদজ্ঞান হেতু (তে) তোমার জন্য (ভগম্) ঐশ্বর্যকে (অপি) অবশ্য (নহ্যামি) বাধিতেছি। (ইব) যেমন (জাময়ঃ) কুলস্ত্রীগণ (অন্তঃ কোশম্) মঞ্জুষাকে বাধে।
‘কশ্যপস্য’ কশতি অননেতি কশ্যং সুখকরো রসঃ । কশ্য। পা পানে-ক, কশ্যং সোমরসং পিবতীতি কশ্যপঃ৷ ‘গয়স্য’ গৈ গানে-ঘঞ্।
भावार्थ
(বধূ পক্ষের উক্তি) তুমি বন্ধন রহিত, সোমরস পানকারী ও স্তুতি যোগ্য। যেমন কুলস্ত্রীগণ মঞ্জুষা বাধিয়া থাকে তেমনই তোমার বৈদিক জ্ঞান হেতু তোমার ঐশ্বর্যকে আমি বাধিতেছি।।
मन्त्र (बांग्ला)
অসিতস্য তে ব্রহ্মণা কশ্যপস্য গয়স্য চ। অন্তঃ কোশমিব জাময়োঽপি নহ্যামি তে ভগম্।।
ऋषि | देवता | छन्द
ভৃগ্বঙ্গিরাঃ। যম। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(বিবাহসংস্কারোপদেশঃ) বিবাহসংস্কারের উপদেশ
भाषार्थ
(অসিতস্য) আপনি যে বন্ধনরহিত, (কশ্যপস্য) [সোম] রস পানকারী, (চ) এবং (গয়স্য) কীর্তনের যোগ্য, সেই (তে) আপনার (ব্রহ্মণা) বেদজ্ঞানের কারণে (তে) আপনার জন্য (ভগম্) ঐশ্বর্যকে (অপি) অবশ্য (নহ্যামি) আমি বাঁধি। (ইব) যেভাবে (জাময়ঃ) কুলস্ত্রী [বা বোনেরা] (অন্তঃ কোশম্) মঞ্জূষা বা পাতলা বাঁশ বা বেত দিয়ে তৈরি জিনিসপত্র [বাঁধে] ॥৪॥
भावार्थ
এই মন্ত্রের অনুসারে বধূ পক্ষের পুরুষ ও স্ত্রী বিনতী করে শ্রেষ্ঠ বর ও কন্যাকে ধন, ভূষণ ও বস্ত্র আদি দ্বারা সৎকারপূর্বক/সৎকারের সহিত বিদায় করুক ॥৪॥
भाषार्थ
(অসিতস্য) বন্ধন রহিত অর্থাৎ সর্বব্যাপকের, (কশ্যপস্য) সর্বদ্রষ্টার, (গয়স্য চ) এবং প্রাণরূপ পরমেশ্বরের (ব্রহ্মণা) বেদ দ্বারা, অর্থাৎ বেদোপদেশ দ্বারা (তে) তোমার জন্য [হে বর !] (ভগম্) কন্যার সৌভাগ্যকে (অপি) ও (নহ্যামি) আমি বাঁধি/যুক্ত করি, দৃঢ়বদ্ধ করি। (জাময়ঃ) নারীরা (অন্তঃ কোশম্ ইব) গুপ্ত কোশের সদৃশ হয়।
टिप्पणी
[নহ্যামি দ্বারা কন্যাপ্রদাতা কন্যার দৃঢ় বন্ধন বরের সাথে করে। সেই প্রদাতা, কন্যার পিতা। নারীরা সদ্গুণে, গুপ্ত-কোশের সদৃশ হয়। অতঃ তাঁদের রক্ষা যত্নপূর্বক হওয়া উচিৎ।]
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