अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 15
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
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ऊ॒र्जो भा॒गो निहि॑तो॒ यः पु॒रा व॒ ऋषि॑प्रशिष्टा॒प आ भ॑रै॒ताः। अ॒यं य॒ज्ञो गा॑तु॒विन्ना॑थ॒वित्प्र॑जा॒विदु॒ग्रः प॑शु॒विद्वी॑र॒विद्वो॑ अस्तु ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ज: । भा॒ग: । निऽहि॑त: । य: । पु॒रा । व॒: । ऋषि॑ऽप्रशिष्टा । अ॒प: । आ । भ॒र॒ । ए॒ता: । अ॒यम् । य॒ज्ञ: । गा॒तु॒ऽवित् । ना॒थ॒ऽवित् । प्र॒जा॒ऽवित् । उ॒ग्र: । प॒शु॒ऽवित् । वी॒र॒ऽवित् । व॒: । अ॒स्तु॒ ॥१.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्जो भागो निहितो यः पुरा व ऋषिप्रशिष्टाप आ भरैताः। अयं यज्ञो गातुविन्नाथवित्प्रजाविदुग्रः पशुविद्वीरविद्वो अस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ज: । भाग: । निऽहित: । य: । पुरा । व: । ऋषिऽप्रशिष्टा । अप: । आ । भर । एता: । अयम् । यज्ञ: । गातुऽवित् । नाथऽवित् । प्रजाऽवित् । उग्र: । पशुऽवित् । वीरऽवित् । व: । अस्तु ॥१.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
[हे विदुषी स्त्रियो ! यही] (ऊर्जः) पराक्रम का (भागः) सेवनीय व्यवहार है, (यः) जो (पुरा) पहिले (वः) तुम्हारे लिये (निहितः) ठहराया गया है, [हे प्रधाना !] (ऋषिप्रशिष्टा) ऋषियों [माता, पिता और आचार्य्या] से शिक्षित तू (एताः) इन (अपः) विद्या में व्याप्त स्त्रियों को (आ) सब ओर से (भर) पुष्ट कर। [हे स्त्रियो !] (अयम्) यह (उग्रः) तेजस्वी (यज्ञः) यज्ञ [श्रेष्ठ व्यवहार] (गातुवित्) मार्ग देनेवाला, (नाथवित्) ऐश्वर्य पहुँचानेवाला, (प्रजावित्) प्रजाएँ देनेवाला, (पशुवित्) [गौ घोड़ा आदि] पशुओं का पहुँचानेवाला, (वीरवित्) वीरों का लानेवाला (वः) तुम्हारे लिये (अस्तु) होवे ॥१५॥
भावार्थ
विदुषी सुशिक्षित स्त्रियाँ ईश्वरनियम से समाज द्वारा सब प्रकार का ऐश्वर्य प्राप्त करें ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(ऊर्जः) पराक्रमस्य (भागः) सेवनीयो व्यवहारः (निहितः) स्थापितः (यः) (पुरा) पूर्वकाले (वः) युष्मभ्यम् (ऋषिप्रशिष्टा) शासु अनुशिष्टौ-क्त। मातापित्राचार्याभिः शिक्षिता (अपः) म० १३। व्याप्तविद्याः स्त्रीः (आ) समन्तात् (भर) पोषय (एताः) स्त्रीः (अयम्) (यज्ञः) श्रेष्ठव्यवहारः (गातुवित्) सुमार्गस्य लम्भयिता (नाथवित्) ऐश्वर्यस्य प्रापकः (प्रजावित्) प्रजानां प्रापकः (उग्रः) तेजस्वी (पशुवित्) गवाश्वादीनां लम्भकः (वीरवित्) वीराणां प्रापयिता (वः) युष्मभ्यम् (अस्तु) भवतु ॥
विषय
गातुवित्-बीरवित् [यज्ञः]
पदार्थ
१. हे नारि! (एता:) = इन (ऋषिप्रशिष्टा) = [ऋषिः मन्त्रः] वेदमन्त्रों द्वारा उपदिष्ट (अप:) = कर्मों को (आभर) = सब प्रकार से धारण करनेवाली हो। यह कर्म वह है (यः) = जोकि (पुरा) = सृष्टि के प्रारम्भ में ही प्रभु द्वारा (व:) = तुम्हारे लिए (ऊर्ज:) = बल व प्राणशक्ति का (भाग:) = अंश (निहित:) = रक्खा गया है। कर्म ही तो तुम्हारी शक्ति को स्थिर रक्खेगा। कर्म छोड़ा और जीर्णता आई [Rest किया rust लगा]।२. (अयं यज्ञ:) = यह यज्ञात्मक कर्म (वः) = तुम्हारे लिए (गातुवित्) = स्वर्ग-मार्ग का प्रापक है, (नाथवित्) = प्रभु को व ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाला है [नाथ-ऐश्वर्य], (प्रजावित्) = यह उत्तम शक्तियों के विकास [सन्तानों] को प्राप्त करानेवाला है, (उग्र:) = तेजस्वी है, (पशवित्) = उत्तम गवादि पशुओं को प्राप्त करानेवाला है। यह यज्ञ (वीरवित् अस्तु) = उत्तम वीर सन्तानों को प्राप्त करानेवाला हो।
भावार्थ
नारी वेदोपदिष्ट यज्ञात्मक कर्मों में व्याप्त रहे। इससे शक्ति बनी रहेगी और जीर्णता न आएगी। यह यज्ञ स्वर्ग का मार्ग है, प्रभु को प्राप्त करानेवाला है। यह उत्तम प्रजा [शक्ति-विकास]-वाला, उत्तम पशुओंवाला व वीर सन्तानोंवाला है।
भाषार्थ
(पुरा) पूर्वकाल से (यः) जो, (वः) तुम्हारे लिये, (ऊर्जः) अन्न का (भागः) भाग (निहितः) नितरां हितकर जाना गया है [उस के लिये], (ऋषि प्रशिष्टाः) मन्त्र द्वारा निर्दिष्ट या कथित (एताः) इन (अपः) जलों को (आभर= आहर) ला। (अयं यज्ञः) यह अतिथि यज्ञ [अर्थात् राष्ट्र के विशिष्ट प्रजाजनों को आमन्त्रित कर उन का भोजन द्वारा सत्कार करना] (गातुविद्) पृथिवी [का राज्य] प्राप्त कराता है, (नाथविद्) ऐश्वर्य या उत्तम शासक प्राप्त कराता है, (प्रजाविद) प्रजा प्राप्त कराता है, (उग्रः) राष्ट्र को उग्र अर्थात् प्रभावशाली करता है, (पशुविद्) राष्ट्र में पशुओं की वृद्धि करता है,-(वीरविद) वीरों को प्राप्त कराता है,– (वः) हे राजपुरुषों! तुम्हारे लिये यह अतिथि यज्ञ (अस्तु) सुफल हो।
टिप्पणी
[अतिथियज्ञ के लिये भात तय्यार करना है। व्रीहि अर्थात् धान्य, जिस से तण्डुल प्राप्त होते हैं। जीवन के लिये अति हितकर है । यथा “शिवौ ते स्तां व्रीहियवावलासावदं मधौ। एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुञ्चतौ अंहसः" (अथर्व ८।२।१८) अर्थात् व्रीहि और यव कल्याणकारी हैं, बलक्षय को रोकते हैं, अदन करने में मधुर हैं, यक्ष्म रोग के प्रति बाधा डालते हैं, सात्विक होने से, राजस-तामस पापकर्मों से मुक्त करते हैं। तथा “प्राणापानौ व्रीहियवौ" (अथर्व० ११।४।१३), अर्थात् ब्रीहि और यव प्राणापान रुप हैं। "व्रीहियवश्च भेषजौ" (अथर्व०८।७।२०), अर्थात् ब्रीहि और यव भेषज हैं, औषध हैं। इस लिये व्रीहि "निहित" है, नितरां हितकर है। ऋषिः, ऋषिणा मन्त्रेण (सायण)। मन्त्र १३ उत्तरार्ध में यज्ञिय जलों के उपादान का निर्देश हुआ है, जो कि अतिथि यज्ञ के भात के निर्माण में उपयुक्त होंगे। गातुविद्; गातुः पृथिवी नाम (निघं० १।१)। नाथ= राष्ट्र वा उत्तम शासक, या ऐश्वर्य नाथृ याच्ञोपतापैश्वर्याशीषु (भ्वादि)। यदि राजवर्ग समय-समय पर प्रजावर्ग के साथ सम्पर्क बनाए रखें और उन्हें आमन्त्रित करता रहे तो उन्हें पृथिवी (राष्ट्र) का शासन प्राप्त होता रहता है, वे राष्ट्र के प्रशासक बने रहते हैं, राष्ट्र प्रभावशाली बना रहता है राजवर्ग-और-प्रजावर्ग में सामञ्जस्य के कारण, पशुओं की वृद्धि दुग्धादि तथा कृषि कर्म के लिये होती रहती है, और वीर योद्धाओं की परिपुष्टि होती रहती है]।
विषय
ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।
भावार्थ
हे (अपः) जल के समान स्वच्छ आप्त प्रजाओ ! (यः) जो (वः ऊजः भागः) तुम्हारा ऊर्ज-बल और अन्न का नियत भाग (निहितः) निश्चित किया गया है वह ही निश्चित है। हे सभे ! (ऋषिप्रशिष्टा) ऋषि तत्व-ज्ञानी, वेदार्थद्रष्टा विद्वानों से शासित होकर तू (एताः) उन (अपः) प्रजाओं को (आ भर) प्राप्त कर, पालन कर। (अयम्) यह (यज्ञः) राष्ट्र या प्रजापति के समान राजा (गातुवित्) सब मार्गों का जानने वाला, (नाथवित्) ऐश्वर्य का प्राप्त करने वाला (प्रजाविद्) प्रजा को प्राप्त करने वाला और (पशुविद) पशुओं को प्राप्त करने वाला और (वः) तुम्हारे लिये वीरों को प्राप्त करने वाला (अस्तु) हो। गृहपतिपक्ष में—हे जलो ! तुम्हारा सारवान् भाग इस कलश में रखा है। हे नारि ! तू ऋषि से अनुशासित होकर जलों को भर। यह यज्ञ अर्थात्, उत्तम मार्ग, ऐश्वर्य, प्रजा, पशु और वीर पुत्र को प्राप्त कराने वाला है।
टिप्पणी
(प्र०)—‘निहतः’, ‘प्राशिष्टापा हरेताः’ इति (तृ०) ‘नाथविद् गातुविद्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahmaudana
Meaning
Your share of action and energy, your share of Dharma with rights and duties integrated, which is ancient and eternal, is ordained, secured and preserved for you since eternity. O citizens of the world, fulfil these acts of personal and social obligations defined and ordained by the Rshis. This creative yajna of personal, social and divine ordinances is harbinger of the gifts of earth, progeny, wealth of life and a nation of the brave.
Translation
The portion of refreshment (urj) set down, which (is) yours of old; do thou, instructed by the seer, bring these waters; let this sacrifice be for you progress-gaining (gatu-vid), refuge- gaining (progeny gaining) (prajavit), formidable, cattlegaining (pasuvid), hero-gaining (virvit).
Translation
O Woman, you take whatever part of power and wealth has been assigned to you and strengthen those acts and wisdom which are given by the seers. May this effectual Yajna be for you the giver of the ways and means, prosperity proging, men and cattle.
Translation
O learned subjects, pure like water, thy share of strength and food has of old been assigned you! O House of Representatives, controlled by saintly, Vedic scholars, foster these subjects. This highly sacrificing king knows all the rules of government, is the Bestower of prosperity, offspring, cattle and heroic persons.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(ऊर्जः) पराक्रमस्य (भागः) सेवनीयो व्यवहारः (निहितः) स्थापितः (यः) (पुरा) पूर्वकाले (वः) युष्मभ्यम् (ऋषिप्रशिष्टा) शासु अनुशिष्टौ-क्त। मातापित्राचार्याभिः शिक्षिता (अपः) म० १३। व्याप्तविद्याः स्त्रीः (आ) समन्तात् (भर) पोषय (एताः) स्त्रीः (अयम्) (यज्ञः) श्रेष्ठव्यवहारः (गातुवित्) सुमार्गस्य लम्भयिता (नाथवित्) ऐश्वर्यस्य प्रापकः (प्रजावित्) प्रजानां प्रापकः (उग्रः) तेजस्वी (पशुवित्) गवाश्वादीनां लम्भकः (वीरवित्) वीराणां प्रापयिता (वः) युष्मभ्यम् (अस्तु) भवतु ॥
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