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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - अतिजागतगर्भा परातिजागता विराडतिजगती सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
    1

    ब्रह्म॑णा शु॒द्धा उ॒त पू॒ता घृ॒तेन॒ सोम॑स्यां॒शव॑स्तण्डु॒ला य॒ज्ञिया॑ इ॒मे। अ॒पः प्र वि॑शत॒ प्रति॑ गृह्णातु वश्च॒रुरि॒मं प॒क्त्वा सु॒कृता॑मेत लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑णा । शु॒ध्दा: । उ॒त । पू॒ता: । घृ॒तेन॑ । सोम॑स्य । अं॒शव॑: । त॒ण्डु॒ला: । य॒ज्ञिया॑: । इ॒मे । अ॒प: । प्र । वि॒श॒त॒ । प्रति॑ । गृ॒ह्णा॒तु॒ । व॒: । च॒रु: । इ॒मम् । प॒क्त्वा । सु॒ऽकृता॑म् । ए॒ते॒ । लो॒कम् ॥१.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्मणा शुद्धा उत पूता घृतेन सोमस्यांशवस्तण्डुला यज्ञिया इमे। अपः प्र विशत प्रति गृह्णातु वश्चरुरिमं पक्त्वा सुकृतामेत लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्मणा । शुध्दा: । उत । पूता: । घृतेन । सोमस्य । अंशव: । तण्डुला: । यज्ञिया: । इमे । अप: । प्र । विशत । प्रति । गृह्णातु । व: । चरु: । इमम् । पक्त्वा । सुऽकृताम् । एते । लोकम् ॥१.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्रह्मणा) वेद द्वारा (शुद्धाः) शुद्ध किये गये (उत) और (घृतेन) ज्ञानप्रकाश से (पूताः) पवित्र किये हुए, (सोमस्य) ऐश्वर्य के (अंशवः) बाँटनेवाले (यज्ञियाः) पूजनीय, (तण्डुलाः) दुःखभञ्जक (इमे) यह तुम (अपः) प्रजाओं में (प्र विशत्) प्रवेश करो, (चरुः) ज्ञान (वः) तुमको (प्रतिगृह्णातु) ग्रहण करे, (इमम्) इस [ज्ञान] को (पक्त्वा) पक्का करके (सुकृताम्) सुकर्मियों के (लोकम्) समाज को (एत) जाओ ॥१८॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य वैदिक ज्ञान से शुद्ध आचरणवाले होकर संसार में प्रवेश करते हैं, वे पुण्यात्माओं के साथ आनन्द पाते हैं ॥१८॥

    टिप्पणी

    १८−(ब्रह्मणा) ब्रह्मज्ञानेन (शुद्धाः) शोधिताः (उत) अपि च (पूताः) पवित्राः (घृतेन) ज्ञानप्रकाशेन (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (अंशवः) अंश विभाजने-कु। विभाजकाः (तण्डुलाः) अ० १०।६।२६। तडि आघाते-उलच्। दुःखभञ्जकाः (यज्ञियाः) पूजार्हाः (इमे) समीपस्थाः (अपः) आपः, आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७। प्रजागणान् (प्र विशत्) (प्रतिगृह्णातु) स्वीकरोतु (चरुः) म० १६। बोधः (इमम्) बोधम् (पक्त्वा) पक्वं दृढं कृत्वा (सुकृताम्) सुकर्मिणाम् (एत) तप्तनप्तनथनाश्च। पा० ७।१।४५। इण् गतौ तस्य स्थाने तप्। इत। गच्छत (लोकम्) समाजम् ॥

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    विषय

    स्वर्ग-मार्ग

    पदार्थ

    १. (ब्रह्मणा शुद्धाः) = वेदज्ञान से शुद्ध जीवनवाले, (उत) = और (घृतेन पूता:) = मलों के क्षरण द्वारा पवित्र हुए-हुए, (सोमस्य अंशवः) = सोमशक्ति को शरीर में विभक्त करनेवाले, (तण्डुला:) = [तडि विध्वंसे] वासनाओं का विध्वंस करनेवाले (इमे) = ये पुरुष (यज्ञिया:) = यज्ञमय जीवनवाले हैं। २. प्रभु आदेश देते हैं कि (अपः प्रविशत) = कमों में प्रवेश करो-क्रियाशील जीवनवाले बनो। (चरु:) = यह ब्रह्मौदन (वः प्रतिगृह्णातु) = तुम्हारा ग्रहण करे, अर्थात् तुम्हें ज्ञान-प्राप्ति का व्यसन-सा लग जाए। (इमं पक्त्वा) = इस ज्ञान-भोजन को परिपक्व करके तुम (सुकृतां लोकं एत) = पुण्यकर्मा लोगों के लोक में स्वर्ग में प्राप्त होओ।

    भावार्थ

    हमें चाहिए कि हम वेदज्ञान द्वारा जीवन को शुद्ध बनाएँ, मलक्षरण द्वारा पवित्र जीवनवाले हों। सोम को शरीर में ही सुरक्षित रक्खें, वासनाओं का विध्वंस करके यज्ञशील हों। क्रियामय जीवनवाले होकर ज्ञान-प्रासि में लगाववाले हों। यही मार्ग है स्वर्ग प्राप्त करने का।

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    भाषार्थ

    (ब्रह्मणा) जल द्वारा (शुद्धाः) शुद्ध किये गए, (उत) और (घृतेन) घृत द्वारा (पूताः) पवित्र किये गए, (सोमस्य अंशवः) मानो सोम-ओषधि के अंशरूप (इमे) ये (यज्ञियाः) अतिथि यज्ञ योग्य (तण्डलाः) तुम तण्डुल हो (अपः प्र विशतः) तुम भाण्डनिष्ठ जल में प्रविष्ट होओ, (चरुः) भाण्ड (वः) तुम्हें (प्रति गृह्णातु) ग्रहण करे, (इमम् पक्त्वा) इस तण्डुल को पका कर (सुकृतां, लोकम् एत) हे राजपरिवार के लोगों तुम सुकर्मियों की समाज के अधिकारी बनो।

    टिप्पणी

    [ब्रह्मणा=ब्रह्म उदक नाम (निघं० १।१२)। मन्त्र द्वारा प्रतीत होता है कि तण्डुलों को जल द्वारा धोकर, और उन में घृत डाल कर, भाण्डस्थ जल में उन्हें डालना चाहिये]।

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    विषय

    ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    (इमे) ये (यज्ञियाः) राष्ट्ररूप यज्ञ के योग्य (तण्डुलाः) तण्डुल, पके भात के समान स्वच्छ परिपक्व, राष्ट्र के निवासी, शिक्षित सैनिक युवक (सोमस्य) सब के प्रवर्त्तक राजा के (अंशवः) भाग हैं। ये (ब्रह्मणा) ब्राह्म बल, वेदज्ञान से (शुद्धाः) पवित्र और (घृतेन) घृत, तेज, ब्राह्म-तेज और क्षात्र-तेज से (पूताः) पवित्र हैं। हे (अपः) जल के समान स्वच्छ प्रजाओ ! तुम (प्र विशत) राष्ट्र में प्रवेश करो। (वः) तुमको (चरुः) यह ओदन का भाण्डरूप राष्ट्र (प्रति गृह्णातु) स्वीकार करे। तुम सब (इमम्) इसको (पक्त्वा) पका कर, परिपक्व, कार्यदक्ष करके (सुकृताम्) पुण्यात्माओं के (लोकम् एत) लोक को प्राप्त हो। प्रतिदृष्टान्त में—ब्रह्म अर्थात् वेद मन्त्र से शुद्ध और घृत से पवित्र ये यज्ञ के योग्य तण्डुल सोम के ही भाग हैं। हे जलो ! उनमें प्रविष्ट होओ और भात को पका कर पुण्य-लोकों को प्राप्त हो। ‘तण्डुलाः’—वसूनां वा एतद् रूपं यत्तण्डुलाः। तै० ३। ८। ४। ३॥ वसु, राष्ट्र के वासी ‘तण्डुल’ हैं। तण्डति, ताडयति इति तण्डुलः, इति दयानन्दः। दुष्टों के ताड़न करने हारा ‘तण्डुल’ है। वृज लुटि तनिताडिभ्यश्च उलच तण्डश्च [ उणा० ५। ९ ] राजा को घेरने या पीड़कों को चारण करने वाले, शत्रुओं को लूटने वाले, धनुष को तानने और दुष्टों को ताड़ना करने वाले पुरुष ‘तण्डुल’ कहाते हैं।

    टिप्पणी

    (च०) ‘सुकृतामेतु’ इति क्वचित्। (प्र०) ‘शुद्धा उत्पूताः’, (तृ०) ‘अप प्रविश्यत’ इति पैप्प० सं०॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmaudana

    Meaning

    Sanctified with holy chant of Vedic verses, seasoned and refined with ghrta, are these tandulas, rice preparations, and filaments of soma, holy offerings meant for yajna, joining the divinities in the process. Let the holy vessel receive these for the oblations. O devoted men and women, having prepared these holy offerings and having made the offer rise and reach the regions of bliss and divine communion.

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    Translation

    Cleansed with prayer (brahmana) and purified with ghee (ghrta) shoots of Soma (are) these worshipful rice-grains, enter ye the waters, let the pot receive you; having cooked this, go ye to the world of the well-doers.

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    Translation

    O Ye performers of Yajna karman You enter in to action and take the cerial prepared for Yajna as the rice and juice of herbs which are the ingredients of this are purified with knowledge, mixed with ghee and intended for Yajna. He who cooks this goes to heavenly happiness.

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    Translation

    Ye, purified through the vedas cleansed through the light of knowledge, distributors of power, adorable, chastisers of the wicked, come in contact with the people. May you acquire knowledge. Making its best use attain to final beatitude.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−(ब्रह्मणा) ब्रह्मज्ञानेन (शुद्धाः) शोधिताः (उत) अपि च (पूताः) पवित्राः (घृतेन) ज्ञानप्रकाशेन (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (अंशवः) अंश विभाजने-कु। विभाजकाः (तण्डुलाः) अ० १०।६।२६। तडि आघाते-उलच्। दुःखभञ्जकाः (यज्ञियाः) पूजार्हाः (इमे) समीपस्थाः (अपः) आपः, आप्ताः प्रजाः-दयानन्दभाष्ये, यजु० ६।२७। प्रजागणान् (प्र विशत्) (प्रतिगृह्णातु) स्वीकरोतु (चरुः) म० १६। बोधः (इमम्) बोधम् (पक्त्वा) पक्वं दृढं कृत्वा (सुकृताम्) सुकर्मिणाम् (एत) तप्तनप्तनथनाश्च। पा० ७।१।४५। इण् गतौ तस्य स्थाने तप्। इत। गच्छत (लोकम्) समाजम् ॥

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