Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 1 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 23
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
    0

    ऋ॒तेन॑ त॒ष्टा मन॑सा हि॒तैषा ब्र॑ह्मौद॒नस्य॒ विहि॑ता॒ वेदि॒रग्रे॑। अं॑स॒द्रीं शु॒द्धामुप॑ धेहि नारि॒ तत्रौ॑द॒नं सा॑दय दै॒वाना॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तेन॑ । त॒ष्टा । मन॑सा । हि॒ता । ए॒षा । ब्र॒ह्म॒ऽओ॒द॒नस्य॑ । विऽहि॑ता । वेदि॑: । अग्रे॑ । अं॒स॒द्रीम् । शु॒ध्दाम् । उप॑ । धे॒हि॒ । ना॒रि॒ । तत्र॑ । ओ॒द॒नम् । सा॒द॒य॒ । दै॒वाना॑म् ॥१.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतेन तष्टा मनसा हितैषा ब्रह्मौदनस्य विहिता वेदिरग्रे। अंसद्रीं शुद्धामुप धेहि नारि तत्रौदनं सादय दैवानाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतेन । तष्टा । मनसा । हिता । एषा । ब्रह्मऽओदनस्य । विऽहिता । वेदि: । अग्रे । अंसद्रीम् । शुध्दाम् । उप । धेहि । नारि । तत्र । ओदनम् । सादय । दैवानाम् ॥१.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मज्ञान से उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    (ऋतेन) सत्य ज्ञान करके (तष्टा) बनाई गई, (मनसा) विज्ञान द्वारा (हिता) धरी गई (ब्रह्मौदनस्य) ब्रह्म-ओदन [वेदज्ञान, अन्न वा धन के बरसानेवाले परमात्मा] की (एषा) यह (वेदिः) वेदी [यज्ञभूमि अर्थात् हृदय] (अग्रे) पहिले से (विहिता) बताई गयी है। (नारि) हे शक्तिमती [प्रजा !] (शुद्धाम्) शुद्ध (अंसद्रीम्) अंसदी [कन्धों वा कानोंवाली कढ़ाही अर्थात् बुद्धि] को (उप धेहि) चढ़ा दे, (तत्र) उसमें (दैवानाम्) उत्तम गुणवाले पुरुषों के (ओदनम्) ओदन [सुख बरसानेवाले अन्नरूप परमेश्वर] को (सादय) बैठा दे ॥२३॥

    भावार्थ

    योगी मन की वेदी अर्थात् यज्ञकुण्ड पर बुद्धि की कढ़ाही में अन्नरूप परमात्मा को सावधानी से धरे ॥२३॥

    टिप्पणी

    २३−(ऋतेन) सत्येन (तष्टा) तनूकृता। निर्मिता (मनसा) विज्ञानेन (हिता) धृता (एषा) (ब्रह्मौदनस्य) म० १। ब्रह्मणो वेदज्ञानस्यान्नस्य वा सेचकस्य वर्षकस्य परमात्मनः (विहिता) विधिना बोधिता (वेदिः) यज्ञभूमिः, हृदयमित्यर्थः (अग्रे) पूर्वकाले (अंसद्रीम्) अमेः सन्। उ० ५।२१। अम रोगे, पीडने, गतौ भोजने च-सन्+द्रु गतौ-ड, ङीप्। भोजनपाचनपात्रम्। कटाहम् (शुद्धाम्) निर्मलाम् (उप धेहि) उपरि धारय (नारि) म० १३। हे शक्तिमति प्रजे (तत्र) तस्मिन् पात्रे (ओदनम्) म० १७। अन्नरूपं परमात्मानम् (सादय) स्थापय (दैवानाम्) दिव्यगुणवतां पुरुषाणाम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    हृदयरूप वेदि

    पदार्थ

    १. ('यन्वेवान विष्णुमन्वविन्दस्तस्माद् वेदिर्नाम') = [श०१।२।५।१०] हृदय में प्रभु का दर्शन व प्राप्ति होती है, अत: हृदय ही वेदि है। यह (वेदिः) = हृदयरूप वेदि (ऋतेन तष्टा) = ऋत के द्वारा तनूकृत-सम्यङ् निर्मित होती है। सत्य से ही यह शुद्ध बनी रहती है। (मनसा) = मनन के द्वारा (एषा) = यह हिता-धारण की जाती है। इसका मुख्य कार्य मनन ही है। यह (अग्ने) = सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु द्वारा (ब्रह्मौदनस्य विहिता) = ब्रह्मौदन की बनाई गई है। प्रभु ने 'अग्नि' आदि ऋषियों के हृदय में इस ब्रह्मौदन [ज्ञान-भोजन] की स्थापना की, अत: यह हृदयवेदि ब्रह्मौदन की बेदि कहलाती है। २. हे (नारि) = गृह को उन्नतिपथ पर ले-चलनेवाली गृहिणि! तू इस वेदि को (शुद्धाम) = राग-द्वेष आदि मलों से शून्य तथा (अंसद्रीम्) = [अंसत्रम्-अंहसस्त्राणम्-नि०५।२६] अंहस् [पाप] का द्रावण करनेवाली-पाप को अपने से दूर भगानेवाली-निष्पाप बनाकर (उपधेहि) = प्रभु की उपासना में धारण कर-शुद्ध निष्पाप हदय से प्रभु की उपासना में प्रवृत्त हो। (तत्र) = उस शुद्ध हृदयवेदि में (दैवानाम्) = सूर्य-चन्द्र, नक्षत्र आदि सब देवों के (ओदनम) = ज्ञानरूप भोजन को (सादय) = [आसादय] प्राप्त कर।

    भावार्थ

    हम हृदय को ऋत के द्वारा शुद्ध बनाएँ, मनन के द्वारा इसका धारण करें, इसे ब्रह्मौदन के लिए बनाई गई वेदि समझें। इसे शुद्ध व निष्पाप बनाकर प्रभु की उपासना करते हुए ज्ञान प्राप्त करें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (ऋतेन) विधि से, (मनसा) और विचारपूर्वक (तष्टा) निर्मित हुई वेदि (हिता) हितकारिणी होती है, (ब्रह्मौदनस्य) ब्रह्म के प्रसादन के निमित्त दिये गए ओदन के सम्बन्ध की (एषा) यह वेदि (अग्रे) पुराकाल से (विहिता) विहित है, वैदिक विधि द्वारा निर्दिष्ट है। (नारि) हे नारि ! (अंसद्रीम्=अंसध्रीम्) अंस अर्थात् कन्धों को धारण करने वाली, (शुद्धाम्) साफ और पवित्र वेदि को (उपधेहि) अपने समीप स्थापित कर, और (तत्र) उस पर (देवानाम्) देवसमूह सम्बन्धी (ओदनम्) ओदन को (सादय) स्थापित कर।

    टिप्पणी

    [अंसद्रीम्=अंसध्रीम्=शतपथ ब्राह्मण में दशपौर्णमास के लिये वेदि को योषा१ अर्थात् योषाकृतिक कहा है। वेदि के पूर्व दिशावर्ती भाग में दो अंस अर्थात् दो कन्धे (Shoulders) किये जाते हैं जैसे कि योषा के दो अंस अर्थात् कन्धे होते हैं, इसी प्रकार पश्चिम दिशा वर्तीभाग में दो श्रोणियां होती हैं] [१. अभिप्राय यह कि योषा के धड़ के सदृश यह वेदि बनाई जाती है। वेदि की पूर्व की सीमा रेखा के उत्तर और दक्षिण के दो कोनों को उत्तरांस और दक्षिणांस कहते हैं, इसी प्रकार पश्चिम की सीमा रेखा के उत्तर और दक्षिण के दो कोनों को उत्तर-श्रोणी तथा दक्षिण-श्रोणी कहते हैं। उत्तर और दक्षिण की दो सीमा रेखाओ के अंसौ और श्रोणियों को मिलाने वाली पावों की दो रेखाएं मध्य भाग में एक-दूसरे की ओर कुछ-कुछ झुकी रहती हैं, जिस से बेदि तनुमध्य हो जाती है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ब्रह्मोदन रूप से प्रजापति के स्वरूपों का वर्णन।

    भावार्थ

    (ऋतेन तष्टा) ऋत सत्य ज्ञान से या वेद की व्यवस्था से बनायी गई और (मनसा) मन सत्य संकल्प से (हिता) स्थापित (ब्रह्मोदनस्य) ब्रह्मोदन ब्रह्मवीर्य से युक्त क्षत्र-बल के लिये (एषा) यह (अग्रे) सब से प्रथम में (वेदिः) वेदि, पृथ्वी (विहिता) बनायी गयी। हे नारि ! पत्नि ! (शुद्धाम्) शुद्ध मँजी हुई (अंसद्रीम्) थाली को (उपधेहि) रख और (देवानाम्) देवों विद्वान् पुरुषों के लिये बना (तत्र ओदनं सादय) उसमें ओदन = भात रख। राजपक्ष में—हे नारि राजसभे ! (शुद्वाम्) शुद्ध पवित्र निश्छल (अंसद्रीम् = अंशध्रीम्) सब के अंशों को धारण करने वाली व्यवस्था को (उपधेहि) बना, स्थापित कर (तत्र) उस पर (देवानाम् ओदनम्) देवताओं, समस्त राष्ट्रवासी विद्वान् पुरुषों के (ओदनम्) वीर्य स्वरूप राजा को (सादय) स्थापन कर।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘अंशधीम्’ इति सायणाभिमतः पाठः (च०) ‘दैव्यानाम्’ इति लैनमनकामितः पाठः। ‘देवानाम्’ इत्यपि क्वचित्। (प्र०) ‘मनसो हि तेयं’, (द्वि०) ‘निहिता’ (तृ०) ‘अशाध्रियम्’ अथवा ‘अशद्धियम्’ [ ? ] इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्मोदनो देवता। १ अनुष्टुब्गर्भा भुरिक् पंक्तिः, २, ५ बृहतीगर्भा विराट्, ३ चतुष्पदा शाक्वरगर्भा जगती, ४, १५, १६ भुरिक्, ६ उष्णिक्, ८ विराङ्गायत्री, ६ शाक्करातिजागतगर्भा जगती, १० विराट पुरोऽतिजगती विराड् जगती, ११ अतिजगती, १७, २१, २४, २६, २८ विराड् जगत्यः, १८ अतिजागतगर्भापरातिजागताविराड्अतिजगती, २० अतिजागतगर्भापरा शाकराचतुष्पदाभुरिक् जगती, २९, ३१ भुरिक् २७ अतिजागतगर्भा जगती, ३५ चतुष्पात् ककुम्मत्युष्णिक्, ३६ पुरोविराड्, ३७ विराड् जगती, ७, १२, १४, १९, २२, २३, ३०-३४ त्रिष्टुभः। सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahmaudana

    Meaning

    O First Lady of the Dominion, before you is Brahmaudana vedi, made according to the dynamic laws of Truth, designed with the vision and thought of mind, ordained and provided since time immemorial. Pure, protective and adorable it is, keep it high up before you and have it provided with food for the divinities and human enlightenment therein.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Fashioned by righteousness (rta) set by mind, this was ordained in the beginning the sacrificial hearth of the brahman rice-dish; apply, O woman, the cleansed shoulder bearer (?); on that set the rice-dish of them of the gods.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The dimension and form of this luminous whole of the cosmos at first, is fashioned by the law eternal and appointed in existence and position by the wisdom and desire (of Divinity). O Wise Woman You develop in you the pure knowledge and attain therein the whereabouts of the luminous whole of cosmos, the jumble of physical and non-physical forces.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    This heart, the altar of God, the Bestower of Vedic knowledge, riches and food, was at first fashioned after truth and equipped with knowledge. O people, develop the cauldron of pure intellect, and seat in it God, the-showerer of joy for the sages.

    Footnote

    A yogi should place, the cauldron of intellect on the mind and carefully seat God in it

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(ऋतेन) सत्येन (तष्टा) तनूकृता। निर्मिता (मनसा) विज्ञानेन (हिता) धृता (एषा) (ब्रह्मौदनस्य) म० १। ब्रह्मणो वेदज्ञानस्यान्नस्य वा सेचकस्य वर्षकस्य परमात्मनः (विहिता) विधिना बोधिता (वेदिः) यज्ञभूमिः, हृदयमित्यर्थः (अग्रे) पूर्वकाले (अंसद्रीम्) अमेः सन्। उ० ५।२१। अम रोगे, पीडने, गतौ भोजने च-सन्+द्रु गतौ-ड, ङीप्। भोजनपाचनपात्रम्। कटाहम् (शुद्धाम्) निर्मलाम् (उप धेहि) उपरि धारय (नारि) म० १३। हे शक्तिमति प्रजे (तत्र) तस्मिन् पात्रे (ओदनम्) म० १७। अन्नरूपं परमात्मानम् (सादय) स्थापय (दैवानाम्) दिव्यगुणवतां पुरुषाणाम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top