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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - प्राजापत्या त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    तस्य॑ देवज॒नाःप॑रिष्क॒न्दा आस॑न्त्संक॒ल्पाः प्र॑हा॒य्या॒ विश्वा॑नि भू॒तान्यु॑प॒सदः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । दे॒व॒ऽज॒ना: । प॒रि॒ऽस्क॒न्दा: । आस॑न् । स॒म्ऽक॒ल्पा: । प्र॒ऽहा॒य्या᳡: । विश्वा॑नि । भू॒तानि॑ । उ॒प॒ऽसद॑: ॥३.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्य देवजनाःपरिष्कन्दा आसन्त्संकल्पाः प्रहाय्या विश्वानि भूतान्युपसदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । देवऽजना: । परिऽस्कन्दा: । आसन् । सम्ऽकल्पा: । प्रऽहाय्या: । विश्वानि । भूतानि । उपऽसद: ॥३.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 3; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा के विराट् रूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवजनाः) विद्वान्लोग (तस्य) उस [व्रात्य परमात्मा] के (परिष्कन्दाः) सेवक, (संकल्पाः) सङ्कल्प [दृढ़ विचार] (प्रहाय्याः) [उसके] दूत, और (विश्वानि) सब (भूतानि) सत्ताएँ [उसके] (उपसदः) निकटवर्ती (आसन्) थे ॥१०॥

    भावार्थ

    जैसे सिंहासन पर बैठेहुए राजराजेश्वर के सेवक, दूत और अन्य समीपवर्ती होते हैं, वैसे ही वह परमात्मासब विद्वानों, दृढसंकल्पी लोगों और सब सत्ताओं को अपनी कृपादृष्टि में रखताहै ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(तस्य) व्रात्यस्य (देवजनाः) विद्वांसः पुरुषाः (परिष्कन्दाः)परि+स्कन्दिर् गतिशोषणयोः-घञ्। परपुष्टः। परिचराः (आसन्) (संकल्पाः) दृढविचाराः (प्रहाय्याः) श्रदुक्षिस्पृहिगृहिभ्य आय्यः। उ० ३।९६। ओहाङ्-गतौ-आय्य।प्रगन्तारः। दूताः (विश्वानि) सर्वाणि (भूतानि) सत्त्वानि। सत्तासमन्वितानिपदार्थजातानि (उपसदः) समीपवर्तिनः ॥

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    विषय

    देवजनों के रक्षण में

    पदार्थ

    १. (तस्य) = उस ब्रात्य के (देवजना:) = माता-पिता-आचार्यादि देव (परिष्कन्दा: आसन्) = चारों ओर गति करनेवाले रक्षक होते हैं। इनके रक्षण में यह अपना लोकहित का कार्य उत्तमता से कर पाता है। (संकल्पा:) = उस-उस कार्य को करने के संकल्प इसके (प्रहाय्या:) = दूत होते है। इन संकल्पों के द्वारा यह अपने कार्यों को करने में समर्थ होता है। (विश्वानि भूतानि) = सब प्राणी (उपसदः) = इसके समीप बैठनेवाले होते हैं-इसी की शरण में जाते हैं, इसे ही वे अपना सहारा मानते हैं। २. (य:) = जो भी व्रात्य (एवं वेद) = इसप्रकार समझ लेता है कि उसका जीवनलक्ष्य 'भूतहित' ही है, (अस्य) = इसके (विश्वानि एव भूतानि) = सभी प्राणी (उपसदः भवन्ति) = समीप आसीन होनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    लोकहित में प्रवृत्त व्रात्य को 'माता-पिता-आचार्य' आदि देवों का रक्षण प्राप्त होता है। संकल्पों द्वारा यह अपने सन्देश को दूर तक पहुँचाने में समर्थ होता है और सब प्राणी इसकी शरण में आते हैं।

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    भाषार्थ

    (देवजनाः) व्रात्य के सहवासी देव-जन (तस्य) उस व्रात्य-संन्यासी के (परिष्कन्दाः) सब ओर से रक्षक (आसन्) हुए, (संकल्पाः) व्रात्य के संकल्प (प्रहाय्याः) सन्देशहर हुए, और (विश्वानि) सब (भूतानि) प्राणी-अप्राणी (उपसदः) उस के समीप उपस्थित हुए।

    टिप्पणी

    [देवजनाः=विद्वान् जन (मन्त्र १५।२।२,३), विद्वांसो वै देवाः। संकल्पाः- शिवसंकल्प। शिवसंकल्प अधिक शक्तिशाली होते हैं। प्रहाय्याः= प्र+हा (ओहाङ् गतौ)+आय्यः (उणा० ३।९६, ९७, बाहुलकात्)। प्रहाय्याः=प्रेष्याः सन्देशहराः, दूताः। भूतानि उपसदः= योगी संन्यासी के शिवसंकल्परूपी-सन्देशहरों द्वारा संन्यासी के समीप, यथेष्ट प्राणी-तथा-अप्राणी "भूत" उपस्थित हो जाते हैं। यथाः- "यं यमन्तमभिकामो भवति यं कामं कामयते सोऽस्य संकल्पादेव समुत्तिष्ठति तेन संपन्नो महीयते॥" (छान्दो० उप० अ० ८।२।१०) अर्थात् "योगी जिस-जिस वस्तु की समीपता चाहता है, जिस-जिस की कामना करता है, वह इस के संकल्प से ही उपस्थित जाता है। उससे सम्पन्न होकर योगी महत्त्वशाली हो जाता है"। योगी अपने संकल्प रूपी-सन्देशहरों द्वारा जिस-जिस को अपनी इच्छा का सन्देश पहुंचाता है, वह वह उसके समीप उपस्थित हो जाता है। इस प्रकार सभी भूत उस के पास उपस्थित हो सकते हैं।

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    विषय

    व्रात्य के सिंहासन का वर्णन।

    भावार्थ

    (तस्य) उसके (परिष्कन्दाः) चारों और खड़े होने वाले अङ्गरक्षक सिपाही (देवजनाः) दिव्य शक्तियां, या देवजन, विद्वान् गण थे। (संकल्पाः) संकल्प ही (प्रहाय्याः) दूत या गुप्तचर थे। और (विश्वानि भूतानि) समस्त प्राणी (उपसदः) समीप बैठने वाले उपजीवी, भृत्य, दरबारी थे।

    टिप्पणी

    ‘प्रहाय्यो वि-’ इति क्वचित्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ पिपीलिका मध्या गायत्री, २ साम्नी उष्णिक्, ३ याजुषी जगती, ४ द्विपदा आर्ची उष्णिक्, ५ आर्ची बृहती, ६ आसुरी अनुष्टुप्, ७ साम्नी गायत्री, ८ आसुरी पंक्तिः, ९ आसुरी जगती, १० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ११ विराड् गायत्री। एकादशर्चं तृतीयं पर्याय सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    The Devas were his attendants, his thoughts, vibrant messengers, all forms and materials were his assistants.

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    Translation

    The godly people became his footmen,: solemn vows his messengers and all the beings his attendants.

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    Translation

    The cosmic forces are his attendants, his noble intentions are his messengers and alt the creatures his admirers.

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    Translation

    All men become the admirers of him who possesses this knowledge.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(तस्य) व्रात्यस्य (देवजनाः) विद्वांसः पुरुषाः (परिष्कन्दाः)परि+स्कन्दिर् गतिशोषणयोः-घञ्। परपुष्टः। परिचराः (आसन्) (संकल्पाः) दृढविचाराः (प्रहाय्याः) श्रदुक्षिस्पृहिगृहिभ्य आय्यः। उ० ३।९६। ओहाङ्-गतौ-आय्य।प्रगन्तारः। दूताः (विश्वानि) सर्वाणि (भूतानि) सत्त्वानि। सत्तासमन्वितानिपदार्थजातानि (उपसदः) समीपवर्तिनः ॥

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