अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 11
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - विराट् गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
1
विश्वा॑न्ये॒वास्य॑ भू॒तान्यु॑प॒सदो॑ भवन्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वा॑नि । ए॒व । अ॒स्य॒ । भू॒तानि॑ । उ॒प॒ऽसद॑: । भ॒व॒न्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥३.११॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वान्येवास्य भूतान्युपसदो भवन्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वानि । एव । अस्य । भूतानि । उपऽसद: । भवन्ति । य: । एवम् । वेद ॥३.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा के विराट् रूप का उपदेश।
पदार्थ
(विश्वानि) सब (एव) ही (भूतानि) सत्तावाले पदार्थ (अस्य) उस [विद्वान् पुरुष] के (उपसदः) समीपवर्ती (भवन्ति) होते हैं, (यः) जो (एवम्) व्यापक [व्रात्य परमात्मा] को (वेद) जानता है॥११॥
भावार्थ
जो मनुष्य पूर्वोक्तप्रकार से परमात्मा के तत्त्व को जान लेता है, वह योगीश्वर सब सत्तावालों सेयथावत् उपकार कर सकता है ॥११॥
टिप्पणी
११−(विश्वानि) सर्वाणि (एव) अवधारणे (अस्य) विदुषःपुरुषस्य (भूतानि) सत्त्वानि (उपसदः) समीपवर्तिनः (भवन्ति) (यः) पुरुषः (एवम्)सू० २।३। व्यापकं व्रात्यं परमात्मानम् (वेद) वेत्ति ॥
विषय
देवजनों के रक्षण में
पदार्थ
१. (तस्य) = उस ब्रात्य के (देवजना:) = माता-पिता-आचार्यादि देव (परिष्कन्दा: आसन्) = चारों ओर गति करनेवाले रक्षक होते हैं। इनके रक्षण में यह अपना लोकहित का कार्य उत्तमता से कर पाता है। (संकल्पा:) = उस-उस कार्य को करने के संकल्प इसके (प्रहाय्या:) = दूत होते है। इन संकल्पों के द्वारा यह अपने कार्यों को करने में समर्थ होता है। (विश्वानि भूतानि) = सब प्राणी (उपसदः) = इसके समीप बैठनेवाले होते हैं-इसी की शरण में जाते हैं, इसे ही वे अपना सहारा मानते हैं। २. (य:) = जो भी व्रात्य (एवं वेद) = इसप्रकार समझ लेता है कि उसका जीवनलक्ष्य 'भूतहित' ही है, (अस्य) = इसके (विश्वानि एव भूतानि) = सभी प्राणी (उपसदः भवन्ति) = समीप आसीन होनेवाले होते हैं।
भावार्थ
लोकहित में प्रवृत्त व्रात्य को 'माता-पिता-आचार्य' आदि देवों का रक्षण प्राप्त होता है। संकल्पों द्वारा यह अपने सन्देश को दूर तक पहुँचाने में समर्थ होता है और सब प्राणी इसकी शरण में आते हैं।
भाषार्थ
(अस्य) इस व्यक्ति के पास भी (विश्वानि, एव) सब ही (भूतानि) प्राणी-अप्राणी भूत (उपसदः भवन्ति) उपस्थित हो जाते हैं, (यः) जो कि (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता और तदनुसार आचरण करता है।
विषय
व्रात्य के सिंहासन का वर्णन।
भावार्थ
(यः एवं वेद) जो इस प्रकार जान लेता है या जो (एवं) व्रात्य प्रजापति के इस प्रकार के स्वरूप का साक्षात्कार कर लेता है (अस्य) उसके समीप (विश्वानि एव भूतानि) समस्त प्राणी (उपसदः भवन्ति) निर्भय होकर उसकी शरण में रहते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ पिपीलिका मध्या गायत्री, २ साम्नी उष्णिक्, ३ याजुषी जगती, ४ द्विपदा आर्ची उष्णिक्, ५ आर्ची बृहती, ६ आसुरी अनुष्टुप्, ७ साम्नी गायत्री, ८ आसुरी पंक्तिः, ९ आसुरी जगती, १० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ११ विराड् गायत्री। एकादशर्चं तृतीयं पर्याय सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
All forms and materials become his friends and assistants, at his beck and call, whoever knows this, this way.
Translation
All the beings become his attendants, whoever knows it thus.
Translation
Of him who has the knowledge of this all the creatures become admirers.
Translation
For him from the eastern region.
Footnote
Him: The learned Brahmchari. They: The sages. Made: Imagined. Two spring months: Chaitra, Vaisakha, mid-March to mid-May.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(विश्वानि) सर्वाणि (एव) अवधारणे (अस्य) विदुषःपुरुषस्य (भूतानि) सत्त्वानि (उपसदः) समीपवर्तिनः (भवन्ति) (यः) पुरुषः (एवम्)सू० २।३। व्यापकं व्रात्यं परमात्मानम् (वेद) वेत्ति ॥
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