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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - साम्नी उष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    1

    सोऽब्र॑वीदास॒न्दीं मे॒ सं भ॑र॒न्त्विति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । अ॒ब्र॒वी॒त् । आ॒ऽस॒न्दीम् । मे॒ । सम् । भ॒र॒न्तु॒ । इति॑ ॥३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोऽब्रवीदासन्दीं मे सं भरन्त्विति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । अब्रवीत् । आऽसन्दीम् । मे । सम् । भरन्तु । इति ॥३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा के विराट् रूप का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [व्रात्यपरमात्मा] (अब्रवीत्) बोला−(आसन्दीम्) सिंहासन् (मे) मेरे लिये (सम्) मिलकर (भरन्तु इति) आप धरें ॥२॥

    भावार्थ

    ऋषि लोग अनुभव करतेहैं कि वह परमात्मा सर्वोपरि विराजकर अपनी महिमा दिखा रहा है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(सः) व्रात्यः (अब्रवीत्) (आसन्दीम्) सिंहासनम् (मे) मह्यम् (सम्) संगत्य (भरन्तु) धरन्तुभवन्तः (इति) ॥

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    विषय

    व्रात्य की आसन्दी

    पदार्थ

    १. (सः) = वह व्रात्य विद्वान् (संवत्सरम्) = वर्षभर (कय: अतिष्ठत्) = संसार से मानो ऊपर उठा हुआ ही, अपनी तपस्या में ही स्थित रहा। (तम्) = उसको (देवा:अब्रुवन्) = देववृत्ति के व्यक्तियों ने मिलकर कहा अथवा माता-पिता व आचार्यादि ने (इति) = इसप्रकार कहा कि-हे (व्रात्य) = व्रतमय जीवनवाले विद्धन ! (किम्) = क्या (नु) = अब भी तिष्ठति (इति) = इसप्रकार तपस्या में ही स्थित हुए हो। अब कहीं आश्रम में स्थित होकर लोकहित के दृष्टिकोण से कार्य आरम्भ करो न? २. इसप्रकार देवों के आग्रह पर (स:) = उस व्रात्य ने (इति) = इसप्रकार (अब्रवीत्) = कहा कि मे-मेरे लिए आप आसन्दी संभरन्तु-आसन्दी का संभरण करने की कृपा कीजिए। 'मुझे कहाँ बैठकर कार्य करना चाहिए', उस बात का आप निर्देश कीजिए। ३. यह उत्तर पाने पर सब देवों ने (तस्मै व्रात्याय) = उस व्रात्य के लिए (आसन्दी समभरन) = आसन्दी प्राप्त कराई। वस्तुतः वह आसन्दी क्या थी? सारा काल ही उस आसन्दी के चार चरणों के रूप में था। इस आसन्दी के संभरण का कोई शभ महूर्त थोड़े ही निकालना था। शुभ कार्य के लिए सारा समय ही शुभ है। ४. देवों से प्राप्त कराई गई (तस्याः) = उस आसन्दी के (ग्रीष्मः च वसन्तः च) = ग्रीष्म और वसन्त (ऋतु दौ पादौ आस्ताम्) = दो पाँव थे तथा (शरद च वर्षा च दौ) = शरद और वर्षा दूसरे दो पाये बने। वस्तुत: इस व्रात्य ने न सर्दी देखनी है न गर्मी, न वर्षा न पतझड़। उसने तो सदा ही लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त होना है।

    भावार्थ

    व्रात्य विद्वान् संसार से अलग रहकर तपस्या ही न करता रह जाए। उसे लोकहित के कार्यों को भी अवश्य करना ही चाहिए और इन शुभ कार्यों के लिए मुहूर्त ढूँढने की आवश्यकता नहीं। शुभ कार्य के लिए सारा समय शुभ ही है।

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    भाषार्थ

    (सः) वह व्रात्य (अब्रवीत्) बोला कि अच्छा ! (मे) मेरे लिये (आसन्दीम्) बैठने की कुर्सी (संभरन्तु, इति) तय्यार करो।

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    विषय

    व्रात्य के सिंहासन का वर्णन।

    भावार्थ

    (सः अब्रवीत्) वह बोला (मे) मेरे लिये (आसन्दीं सो भरन्तु इति) आसन्दी, बैठने की चौकी या पीढ़ा या आसन ले आओ।

    टिप्पणी

    यज्ञायज्ञियं = पशवः अन्नाद्यम्। वामदेव्यं, पिता, आत्मा, शान्तिः भेषजं, प्रजननं, प्राजापत्यं, प्राणः पशवः, यजमानलोकः, अमृतलोकः, स्वर्गः अन्तरिक्षम्॥ स्वर्गो लोकः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ पिपीलिका मध्या गायत्री, २ साम्नी उष्णिक्, ३ याजुषी जगती, ४ द्विपदा आर्ची उष्णिक्, ५ आर्ची बृहती, ६ आसुरी अनुष्टुप्, ७ साम्नी गायत्री, ८ आसुरी पंक्तिः, ९ आसुरी जगती, १० प्राजापत्या त्रिष्टुप्, ११ विराड् गायत्री। एकादशर्चं तृतीयं पर्याय सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    He said to the Devas: Bring me a seat.

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    Translation

    He said : "Let them bring a settee for me."

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    Translation

    -He says’ Bring sitting-chair for me.

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    Translation

    He answered and said, ‘Bring an arm-chair or couch for me.’

    Footnote

    They brought an arm-chair or couch for that Brahmchari.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(सः) व्रात्यः (अब्रवीत्) (आसन्दीम्) सिंहासनम् (मे) मह्यम् (सम्) संगत्य (भरन्तु) धरन्तुभवन्तः (इति) ॥

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