अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 127/ मन्त्र 12
ऋषिः -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
1
इ॒ह गावः॒ प्र जा॑यध्वमि॒हाश्वा इ॒ह पूरु॑षाः। इ॒हो स॒हस्र॑दक्षि॒णोपि॑ पू॒षा नि षी॑दति ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । गाव॒: । प्रजा॑यध्वम् । इ॒ह । अश्वा: । इ॒ह । पूरु॑षा: ॥ इ॒हो । स॒हस्र॑दक्षि॒ण: । अपि॑ । पू॒षा । नि । सी॑दति ॥१२७.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
इह गावः प्र जायध्वमिहाश्वा इह पूरुषाः। इहो सहस्रदक्षिणोपि पूषा नि षीदति ॥
स्वर रहित पद पाठइह । गाव: । प्रजायध्वम् । इह । अश्वा: । इह । पूरुषा: ॥ इहो । सहस्रदक्षिण: । अपि । पूषा । नि । सीदति ॥१२७.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(गावः) हे गौओ ! तुम (इह) यहाँ पर [इस घर में], (अश्वाः) हे घोड़ो ! तुम (इह) यहाँ पर (पुरुषाः) हे पुरुषो ! तुम (इह) यहाँ पर (प्रजायध्वम्) बढ़ो, (इहो) यहाँ पर (सहस्रदिक्षणः) सहस्रों की दक्षिणा देनेवाला (पूषा) पोषक [गृहपति] (अपि) भी (नि षीदति) बैठता है ॥१२॥
भावार्थ
उत्तम राजा के प्रबन्ध से गृहस्थ लोग गौओं, घोड़ों और मनुष्यों से वृद्धि करके परस्पर उपकार करें ॥१२॥
टिप्पणी
यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में उद्धृत है ॥ १२−(इह) अस्मिन् गृहे (गावः) हे धेनवः (प्रजायध्वम्) प्रवर्धध्वम् (इह) (अश्वाः) हे तुरङ्गाः (इह) (पूरुषाः) हे मनुष्याः (इहो) इह-उ। अत्रैव (सहस्रदक्षिणः) बहुदानस्वभावः (अपि) (पूषा) पोषको गृहपतिः (नि षीदति) उपविशति ॥
विषय
प्रभु-पूजन व उत्तम घर का निर्माण
पदार्थ
१. जहाँ मनुष्य गतमन्त्र के अनुसार प्रभु के बोध को सुनता है, (इह) = वहाँ इस घर में (गाव: प्रजायध्वम्) = हे गौओ! तुम खूब फूलो-फलो। (इह) = इस घर में (अश्वा:) = हे घोड़ो! तुम फूलो-फलो और (इह) = यहाँ (पूरुषा:) = पुरुष फूलें-फलें। २. (इह उ) = इस घर में निश्चय से (सहस्त्रदक्षिण:) = हजारों का दान देनेवाला (पूषा) = सबका पोषण करनेवाला गृहपति (अपि) = भी (निषीदति) = नम्रतापूर्वक आसीन होता है।
भावार्थ
प्रभु-पूजनवाले गृह में 'गौएँ, घोडे, पुरुष' सभी फूलते-फलते हैं। इस घर का गृहपति हजारों का दान देनेवाला व सबका पोषण करनेवाला होता है। यह नम्र होता है।
भाषार्थ
(इह) इस राष्ट्र में (गावः) उत्तम गौएँ (प्र जायध्वम्) पैदा हों, (इह) इस राष्ट्र में (अश्वाः) उत्तम अश्व पैदा हों। (इह) इस राष्ट्र में (पूरुषाः) पौरुष-सम्पन्न पुरुष पैदा हों। (इह उ) तथा इस राष्ट्र में (सहस्रदक्षिणः) हजार संख्या में दक्षिणा देनेवाले, (पूषा) धन-धान्य से परिपुष्ट वैश्य (अपि) भी (नि षीदति) रहें, निवास करें।
टिप्पणी
[मन्त्र में परमेश्वर-शासित राष्ट्र का वर्णन है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra
Meaning
Let cows, lands and cultures grow, increase and rise high here in this dominion of Indra. Let horses and other modes of transport grow and develop here. Let men and women grow and advance here in peace and prosperity. Here Pusha, lord of health, well being and all round growth, giver of a thousand boons, rules and abides here with the people.
Translation
Let cows increase and multiply here, let here increase horses and let here the man as here occupies his seat the householding man (Pusha) who gives plentiful gifts.
Translation
Let cows increase and multiply here, let here increase horses and let here the man as here occupies his seat the house-holding man (Pusha) who gives plentiful gifts.
Translation
We bow to and worship the leader of the people with well-sung Vedic verses and praise him with good voice. He may accept our praise-songs, uttered m high pitch. Let us never be injured or hurt under him.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में उद्धृत है ॥ १२−(इह) अस्मिन् गृहे (गावः) हे धेनवः (प्रजायध्वम्) प्रवर्धध्वम् (इह) (अश्वाः) हे तुरङ्गाः (इह) (पूरुषाः) हे मनुष्याः (इहो) इह-उ। अत्रैव (सहस्रदक्षिणः) बहुदानस्वभावः (अपि) (पूषा) पोषको गृहपतिः (नि षीदति) उपविशति ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
রাজধর্মোপদেশঃ
भाषार्थ
(গাবঃ) হে গাভীসমূহ! তোমরা (ইহ) এখানে [এই ঘরে], (অশ্বাঃ) হে অশ্বসমূহ ! তোমরা (ইহ) এখানে (পুরুষাঃ) হে পুরুষগণ! তোমরা (ইহ) এখানে (প্রজায়ধ্বম্) বর্ধিত হও, (ইহো) এখানে (সহস্রদিক্ষণঃ) সহস্র/বহু দান-দক্ষিণা প্রদানকারী (পূষা) পোষক [গৃহপতি] (অপি) ও (নি ষীদতি) উপবেশন করে ॥১২॥
भावार्थ
উত্তম রাজার সুব্যবস্থাপনায় গৃহস্থরা গরু, ঘোড়া ও মনুষ্য দ্বারা বৃদ্ধি করে পারস্পরিক উপকার করুক ॥১২॥ এই মন্ত্র মহর্ষিদয়ানন্দকৃত সংস্কারবিধি বিবাহপ্রকরণে উদ্ধৃত।
भाषार्थ
(ইহ) এই রাষ্ট্রে (গাবঃ) উত্তম গাভী (প্র জায়ধ্বম্) উৎপন্ন হোক, (ইহ) এই রাষ্ট্রে (অশ্বাঃ) উত্তম অশ্ব উৎপন্ন হোক। (ইহ) এই রাষ্ট্রে (পূরুষাঃ) পৌরুষ-সম্পন্ন পুরুষ জন্ম/সৃষ্টি হোক। (ইহ উ) তথা এই রাষ্ট্রে (সহস্রদক্ষিণঃ) সহস্র সংখ্যায় দক্ষিণা প্রদানকারী, (পূষা) ধন-ধান্য দ্বারা পরিপুষ্ট বৈশ্য (অপি) ও (নি ষীদতি) থাকুক, নিবাস করুক।
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