अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 134/ मन्त्र 5
ऋषिः -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - निचृत्साम्नी पङ्क्तिः
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
1
इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒गास्ते॑ लाहणि॒ लीशा॑थी ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । इत्थ॑ । प्राक् । अपा॒क् । उद॑क् । अ॒ध॒राक् । आष्टे॑ । लाहणि॒ । लीशा॑थी ॥१३४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इहेत्थ प्रागपागुदगधरागास्ते लाहणि लीशाथी ॥
स्वर रहित पद पाठइह । इत्थ । प्राक् । अपाक् । उदक् । अधराक् । आष्टे । लाहणि । लीशाथी ॥१३४.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
बुद्धि बढ़ाने का उपदेश।
पदार्थ
(इह) यहाँ (इत्थ) इस प्रकार ........... [म० १]−(लाहणि) प्रेरक बुद्धि (लीशाथी) चलती हुई (आष्टे) फैलती हुई ॥॥
भावार्थ
सब विद्वान् अपनी बुद्धि को सब ओर चलाकर संसार में विचरें ॥॥
टिप्पणी
−(आष्टे) अशू व्याप्तौ। व्याप्यते (लाहणि) अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। लाभ प्रेरणे−अनि, भस्य हः। विभक्तेर्लुक्। प्रेरिका शक्तिः। तीक्ष्णा बुद्धिः (लीशाथी) रुवदिभ्यां डित्। उ० ३।११। लिश गतौ, अल्पीभावे च−अथ प्रत्ययः, ङीप्, पृषोदरादिरूपम्। गमनशीला सती ॥
विषय
'सर्वत्र व सर्वविजेता' प्रभु
पदार्थ
१. (इह) = यहाँ (इत्थ) = सचमुच (प्राग् अपाग् उदग् अधराग्) = पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण में सर्वत्र प्रभु व्याप्त हैं। २. ऐसा सोचनेवाले पुरुष की बुद्धि (आष्टे) = उस सर्वव्यापक [अश् व्याप्ती] (लाहणि) = [लाभ-conquest, apprehansion] सर्व-विजेता, सर्वज्ञ प्रभु में (लीशाथी) = [लिश गती] गतिवाली होती है। यह पुरुष सदा प्रभु का ही चिन्तन करता है। इसके सब व्यापार प्रभु चिन्तनपूर्वक होते हैं।
भावार्थ
प्रभु की सर्वव्यापकता का स्मरण करते हुए हम बुद्धि को प्रभु के चिन्तन में प्रवृत्त करें। सब विजयों को उस प्रभु से होता हुआ जानें।
भाषार्थ
हे स्त्रियो! (इह) इस पृथिवी में (एत्थ) आओ, जन्म लो—(प्राक्, अपाक्, उदक्, अधराक्) चाहे पृथिवी के पूर्व आदि किसी भी भूभाग में जन्म लो। (लाहणि) हे प्राप्त भोगों का परित्याग करनेवाली स्त्री! (ते) तेरे लिए (लीशाथी) असम्प्रज्ञात समाधि में “लीन” होना, तथा सम्प्रज्ञात समाधि में योगनिद्रा में “शयन” करना (आः) आरम्भ से ही नियत है।
टिप्पणी
[लाहणि=ला (आदान, प्राप्त करना)+हणि (हन्=हिंसा, त्याग), सम्बुद्धौ। लीशाथी=लीन+शयन। आः=आसीत्; अर्थात् प्रारम्भ काल से ही वेदों में तेरे लिए यह मार्ग निर्दिष्ट है, अर्थात् गृहस्थकाल में तथा अगृहस्थ काल में तेरे लिए भोग का विधान है। यथा—“पत्युरनुव्रता भूत्वा सं नह्यस्वामृताय कम्” (अथर्व০ १४.१.४२)। इस मन्त्र में “अमृताय” पद द्वारा पत्नी के लिए मोक्ष का विधान किया है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
Here thus on earth, east, west, north or south, dynamic reason and intelligence is destined to be your share.
Translation
Here, thus in east, in west, in north and in south the initiative wisdom spreads multiplying.
Translation
Here, thus in east, in west, in north and in south the initiative wisdom spreads multiplying.
Translation
In this world . . . below, don’t be greedy of having birth in this world, which is a source of pain and trouble like the hot iron (i.e., anything placed on a hot spoon and put into mouth cannot but burn the mouth).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(आष्टे) अशू व्याप्तौ। व्याप्यते (लाहणि) अर्त्तिसृधृ०। उ० २।१०२। लाभ प्रेरणे−अनि, भस्य हः। विभक्तेर्लुक्। प्रेरिका शक्तिः। तीक्ष्णा बुद्धिः (लीशाथी) रुवदिभ्यां डित्। उ० ३।११। लिश गतौ, अल्पीभावे च−अथ प्रत्ययः, ङीप्, पृषोदरादिरूपम्। गमनशीला सती ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বুদ্ধিবর্ধনোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইহ) এখানে (ইত্থ) এভাবে........... [ম০ ১]− (লাহণি) প্রেরক/তীক্ষ্ণ বুদ্ধি (লীশাথী) গমনশীল হয়ে (আষ্টে) ব্যাপ্তশীল ॥৫॥
भावार्थ
সমস্ত বিদ্বান নিজেদের বুদ্ধিকে সর্বদিকে চালনা করে সংসারে/জগতে বিচরণ করুক॥৫॥
भाषार्थ
হে স্ত্রীগণ! (ইহ) এই পৃথিবীতে (এত্থ) এসো, জন্মগ্রহণ করো—(প্রাক্, অপাক্, উদক্, অধরাক্) পৃথিবীর পূর্বাদি যে কোনো ভূ-ভাগে জন্মগ্রহণ করো (লাহণি) হে প্রাপ্ত ভোগ পরিত্যাগকারী স্ত্রী! (তে) তোমার জন্য (লীশাথী) অসম্প্রজ্ঞাত সমাধিতে “লীন” হওয়া, তথা সম্প্রজ্ঞাত সমাধিতে যোগনিদ্রায় “শয়ন” করা (আঃ) আরম্ভ থেকেই নিয়ত।
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