अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 139/ मन्त्र 2
यद॒न्तरि॑क्षे॒ यद्दि॒वि यत्पञ्च॒ मानु॑षाँ॒ अनु॑। नृ॒म्णं तद्ध॑त्तमश्विना ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒न्तरि॑क्षे । यत् । दि॒वि । यत् । पञ्च॑ । मानु॑षाम् । अनु॑ ॥ नृ॒म्णम् । तत् । ध॒त्त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥१३९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यदन्तरिक्षे यद्दिवि यत्पञ्च मानुषाँ अनु। नृम्णं तद्धत्तमश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अन्तरिक्षे । यत् । दिवि । यत् । पञ्च । मानुषाम् । अनु ॥ नृम्णम् । तत् । धत्तम् । अश्विना ॥१३९.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
गुरुजनों के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जो [धन] (अन्तरिक्षे) आकाश में, (यत्) जो (दिवि) सूर्य आदि के प्रकाश में और (यत्) जो (पञ्च) पाँच [पृथिवी आदि पाँच तत्त्वों] से संबन्धवाले (मानुषान् अनु) मनुष्यों में है, (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [चतुर माता-पिता] (तत्) उस (नृम्णम्) धन को (धत्त) दान करो ॥२॥
भावार्थ
माता-पिता आदि गुरुजन प्रबन्ध करें कि सब लोग आपस में खगोलविद्या, सूर्य, बिजुली, अग्नि आदि विद्याएँ जानकर धनी होवें ॥२॥
टिप्पणी
२−(यत्) धनम् (अन्तरिक्षे) आकाशे (यत्) (दिवि) सूर्यादिप्रकाशे (यत्) (पञ्च) पृथिव्यादिपञ्चभूतसम्बन्धिनः (मानुषान् अनु) लक्षणे अनोः कर्मप्रवचनीयत्वात्। कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया। पा० २।३।८। इति द्वितीया। मनुष्यान् प्रति (नृम्णम्) धनम् (तत्) तादृशम् (धत्त) दत्त (अश्विना) म० १। हे चतुरमातापितरौ ॥
विषय
सन्तोष, ज्ञान व स्वास्थ्य' रूप धन
पदार्थ
१. मानवजीवन को सुखी करनेवाला धन 'नृम्ण' कहलाता है। हे (अश्विना) = प्राणापानो! (यत्) = जो (नृम्णम्) = धन (अन्तरिक्षे) = हृदयान्तरिक्ष में होता है, अर्थात् जो सन्तोष-[आत्मतृप्ति]-रूप धन हदय में निवास करता है, (तत्) = उस धन को (धत्तम्) = हमारे लिए धारण कीजिए। प्राणसाधना से हृदय निर्मल होता है-चित्तवृत्ति बाह्यधनों के लिए बहुत लालयित नहीं होती। इसप्रकार हृदय में एक सन्तोष के आनन्द का अनुभव होता है। २. हे प्राणापानो। (यत्) = जो (दिवि) = मस्तिष्क का ज्ञानरूप धन है और (यत्) = जो (पञ्चमानुषान) = पाँच मानव-सम्बन्धी वस्तुओं के (अनु) = अनुकूलतावाला धन है, उसे आप हमारे लिए प्राप्त कराइए। मानव-सम्बन्धी सर्वप्रथम पाँच वस्तुएँ शरीर को बनानेवाले पाँच महाभूत हैं। फिर पाँच प्राण हैं। फिर पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियों व पाँच "मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार व हृदय' है। इन सबके अनुकूल धनों को ये प्राणापान हमारे लिए प्राप्त कराएँ।
भावार्थ
हृदय के सन्तोषरूप धन को, मस्तिष्क के ज्ञानरूप धन को तथा मानव-पञ्चकों के पूर्ण स्वास्थ्यरूप धन को ये प्राणापान हमारे लिए प्राप्त कराएँ।
भाषार्थ
(अश्विना) हे अश्वियो! (यद्) जो (नृम्णम्) सम्पत् (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में है, अर्थात् शुद्ध वायु और वर्षाजल; (यद्) और जो (दिवि) द्युलोक में है, अर्थात् प्रकाश; (यद्) तथा जो (पञ्च) पृथिवी पर फैले हुए (मानुषान् अनु) मनुष्यों के पास है, (तत्) उस-उस सम्पत् को (धत्तम्) हमारे राष्ट्र में भी स्थापित करो।
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
Whatever manly strength and wealth there be in heaven and mid space worthy of five classes of people, Ashvins, bear and bring for us.
Translation
O teacher and preacher, you both bring to us that prosperity and manliness which is in heaven which is in firmament and in the five classes of people (four Varnas and one Avarna).
Translation
O teacher and preacher, you both bring to us that prosperity and mantiness which is in heaven which is in firmament and in the five classes of people (four Varnas and one Avarna).
Translation
O paired groups, (mentioned above) uphold and give that wealth and fortune, which is in the atmosphere which in the heavens; and which is suitable for the five kinds of the people, i.e., Brahmana, Kshatriya, Vaishya, Shudra and Nishada.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(यत्) धनम् (अन्तरिक्षे) आकाशे (यत्) (दिवि) सूर्यादिप्रकाशे (यत्) (पञ्च) पृथिव्यादिपञ्चभूतसम्बन्धिनः (मानुषान् अनु) लक्षणे अनोः कर्मप्रवचनीयत्वात्। कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया। पा० २।३।८। इति द्वितीया। मनुष्यान् प्रति (नृम्णम्) धनम् (तत्) तादृशम् (धत्त) दत्त (अश्विना) म० १। हे चतुरमातापितरौ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
গুরুজনগুণোপদেশঃ
भाषार्थ
(যৎ) যে [ধন] (অন্তরিক্ষে) আকাশে, (যৎ) যা (দিবি) সূর্যাদির প্রকাশে এবং (যৎ) যা (পঞ্চ) পঞ্চ-এ [পৃথিবী আদি পাঁচ তত্ত্বে] সম্বন্ধযুক্ত (মানুষান্ অনু) মনুষ্যের মধ্যে বর্তমাষ, (অশ্বিনা) হে উভয় অশ্বী! [চতুর মাতা-পিতা] (তৎ) সেই (নৃম্ণম্) ধন (ধত্ত) দান করো ॥২॥
भावार्थ
মাতা-পিতা আদি গুরুজন প্রবন্ধ করুক, যেন সকল লোক পরস্পর জ্যোতির্বিজ্ঞান, সূর্য, বিদ্যুৎ, অগ্নি আদি বিদ্যা জেনে ধনী হয় ॥২॥
भाषार्थ
(অশ্বিনা) হে অশ্বিগণ! (যদ্) যে (নৃম্ণম্) সম্পৎ (অন্তরিক্ষে) অন্তরিক্ষে আছে, অর্থাৎ শুদ্ধ বায়ু এবং বর্ষাজল; (যদ্) এবং যা (দিবি) দ্যুলোকে আছে, অর্থাৎ প্রকাশ/আলো; (যদ্) তথা যা (পঞ্চ) পৃথিবীতে বিস্তৃত (মানুষান্ অনু) মনুষ্যদের কাছে আছে, (তৎ) সেই-সেই সম্পদকে (ধত্তম্) আমাদের রাষ্ট্রেও স্থাপিত করো।
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