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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 139 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 139/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - ककुबुष्णिक् सूक्तम् - सूक्त १३९
    1

    यद॒प्सु यद्वन॒स्पतौ॒ यदोष॑धीषु पुरुदंससा कृ॒तम्। तेन॑ माविष्टमश्विना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒प्ऽसु । वन॒स्पतौ॑ । यत् । ओष॑धीषु । पु॒रु॒दं॒स॒सा॒ । कृ॒तम् ॥ तेन॑ । मा॒ । अ॒वि॒ष्ट॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥१३९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदप्सु यद्वनस्पतौ यदोषधीषु पुरुदंससा कृतम्। तेन माविष्टमश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अप्ऽसु । वनस्पतौ । यत् । ओषधीषु । पुरुदंससा । कृतम् ॥ तेन । मा । अविष्टम् । अश्विना ॥१३९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 139; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    गुरुजनों के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुरुदंससा) हे बहुत कर्मोंवाले दोनों ! (यत्) जो कुछ (कृतम्) क्रियाफल (अप्सु) जल में है, (यत्) जो (वनस्पतौ) वनस्पति [वृक्षों] में है, और (यत्) जो (ओषधीषु) ओषधियों [जौ चावल आदि] में है, (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [चतुर माता-पिता] (तेन) उस [क्रियाफल] से (मा) मेरी (अविष्टम्) रक्षा करो ॥॥

    भावार्थ

    गुरुजन जिज्ञासुओं को जल आदि सब पदार्थों का तत्त्वज्ञान कराके, क्रियाकुशल बनावें ॥॥

    टिप्पणी

    −(यत्) (अप्सु) जलेषु (यत्) (वनस्पती) जाताविदमेकवचनम्। वनस्पतिषु वृक्षेषु (यत्) (ओषधीषु) यवव्रीह्यादिषु (पुरुदंससा) हे बहुकर्माणौ (कृतम्) क्रियाफलम् (तेन) क्रियाफलेन (मा) माम् (अविष्टम्) अवतेर्लोटि बाहुलकात् सिप्, तत इट्। रक्षतम् (अश्विना) म० १। हे चतुरमातापितरौ ॥

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    विषय

    प्राणापान वानस्पतिक भोजन

    पदार्थ

    १. हे (पुरुदंससा) = पालक व पूरक कमोवाले (अश्विना) = प्राणापानो ! (यत्) = जो तेज [धर्म] आप (अप्सु) = जलों का प्रयोग होने पर, (यद् वनस्पतौ) = जो वनस्पतियों का प्रयोग होने पर तथा (यद् ओषधीषु) = जो तेज आप ओषधियों का प्रयोग होने पर (कृतम्) = उत्पन्न करते हो, (तेन) = उस तेज से (मा आविष्टम्) = मेरा रक्षण करो। २. यहाँ 'अप्सु ओषधीषु वनस्पती' इन शब्दों का प्रयोग स्पष्ट प्रतिपादन कर रहा है कि योगसाधना में खान-पान की शुद्धि अत्यन्त आवश्यक है। प्राणायाम के साथ मनुष्य का शाकभोजी होना आवश्यक है। सादा खानपान योगसाधना में सहायक होता है।

    भावार्थ

    हम जलों व ओषधियों के प्रयोग के साथ प्राणापान की साधना करते हुए तेजस्विी बनें और अपना रक्षण करें।

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    भाषार्थ

    (पुरुदंससा अश्विना) हे नानाविध कर्मोवाले अश्वियो! (यद्) जो आपकी (कृतम्) कृतियाँ (अप्सु) जलों के सम्बन्ध में हुई, अर्थात् नौकाओं तथा समुद्री जहाजों द्वारा व्यापार आदि; तथा (यद्) जो आपकी कृतियाँ (वनस्पतौ) वनस्पतियों के उगाने तथा उनसे फल आदि के संग्रह के सम्बन्ध में हुई हैं; (यद्) और जो आपकी कृतियाँ (ओषधीषु) ओषधियों से नानाविध औषधों के निर्माण के सम्बन्ध में हुई हैं, (तेन) उन कृतियों के साथ (मा) मेरे इस राष्ट्र में (आविष्टम्) प्रवेश करो।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    Ashvins, heroic powers of nature’s complementary forces, the power and vitality which you have vested in the waters, herbs and trees is multifarious. Pray, with that same vitality and power, bless and protect me too and let me advance.

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    Translation

    O physician and surgeon, you both guard me through that active achievement which you attained in waters, in the tree and in herbs. You are the master of many of mysterious deeds.

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    Translation

    O physician and surgeon, you both guard me through that active achievement which you attained in waters, in the tree and in herbs. You are the master of many of mysterious deeds.

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    Translation

    O physician and druggists, expert in various acts operation and production, whatever you produce in waters, in herbs and in medicinal objects, protect me thereby.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    −(यत्) (अप्सु) जलेषु (यत्) (वनस्पती) जाताविदमेकवचनम्। वनस्पतिषु वृक्षेषु (यत्) (ओषधीषु) यवव्रीह्यादिषु (पुरुदंससा) हे बहुकर्माणौ (कृतम्) क्रियाफलम् (तेन) क्रियाफलेन (मा) माम् (अविष्टम्) अवतेर्लोटि बाहुलकात् सिप्, तत इट्। रक्षतम् (अश्विना) म० १। हे चतुरमातापितरौ ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    গুরুজনগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (পুরুদংসসা) হে বহু কর্মকারী উভয়! (যৎ) যা কিছু (কৃতম্) ক্রিয়াফল (অপ্সু) জলে, (যৎ) যা (বনস্পতৌ) বনস্পতিতে [বৃক্ষে], এবং (যৎ) যা (ওষধীষু) ঔষধিতে [যব, চাল প্রভৃতিতে], (অশ্বিনা) হে উভয় অশ্বী! [চতুর মাতা-পিতা] (তেন) সেই [ক্রিয়াফল] দ্বারা (মা) আমাকে (অবিষ্টম্) রক্ষা করো ॥৫॥

    भावार्थ

    গুরুজন জিজ্ঞাসুদের জল আদি সব পদার্থসমূহের তত্ত্বজ্ঞান করিয়ে, ক্রিয়াকুশল করুক ॥৫॥

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    भाषार्थ

    (পুরুদংসসা অশ্বিনা) হে নানাবিধ কর্মবিশিষ্ট অশ্বিগণ! (যদ্) যা আপনার (কৃতম্) কৃতি (অপ্সু) জলের বিষয়ে হয়েছে, অর্থাৎ নৌকা তথা সামুদ্রিক জাহাজ দ্বারা বাণিজ্য আদি; তথা (যদ্) যা আপনার কৃতি (বনস্পতৌ) বনস্পতি উৎপন্ন/সৃষ্টি হয়েছে তথা তা থেকে ফলাদি সংগ্রহের বিষয়ে হয়েছে; (যদ্) এবং যে আপনার কৃতি (ওষধীষু) ঔষধি থেকে/দ্বারা নানাবিধ ঔষধ নির্মাণের বিষয়ে হয়েছে, (তেন) সেই কৃতির সাথে (মা) আমার এই রাষ্ট্রে (আবিষ্টম্) প্রবেশ করো।

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