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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 70/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-७०
    2

    स नो॑ वृषन्न॒मुं च॒रुं सत्रा॑दाव॒न्नपा॑ वृधि। अ॒स्मभ्य॒मप्र॑तिष्कुतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । न॒: । वष॒न् । अ॒मुम् । च॒रुम् । सत्रा॑ऽदावन् । अप॑ । वृ॒धि॒ ॥ अ॒स्मभ्य॑म् । अप्र॑तिऽस्कुत: ॥७०.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स नो वृषन्नमुं चरुं सत्रादावन्नपा वृधि। अस्मभ्यमप्रतिष्कुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । न: । वषन् । अमुम् । चरुम् । सत्राऽदावन् । अप । वृधि ॥ अस्मभ्यम् । अप्रतिऽस्कुत: ॥७०.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 70; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    १०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (वृषन्) हे सुख बरसानेवाले ! (सत्रादावन्) हे सत्य ज्ञान देनेवाले परमेश्वर ! (अप्रतिष्कुतः) बे-रोक गतिवाला (सः) सो तू (नः) हमारे लिये, (अस्मभ्यम्) हमार लिये (अमुम्) उस (चरुम्) मेघ के समान ज्ञान को (अप वृधि) खोल दे ॥१२॥

    भावार्थ

    मनुष्य ईश्वर से मेघसमान उपकारी सत्यज्ञान को प्राप्त करके सुखी होवे ॥१२॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र सामवेद में है-उ० ८।१।२ ॥ १२−(सः) परमेश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (वृषन्) हे सुखवर्षक (अमुम्) प्रसिद्धम् (चरुम्) भृमृशीङ्तॄचरि०। उ० १।७। चर गतिभक्षणयोः-उप्रत्ययः। चरुर्मेघनाम निघ० १।१०। मेघमिवोपकारकं ज्ञानम् (सत्रादावन्) सत्रा सत्यनाम-निघ० ३।१०। अतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७२। ददातेर्वनिप्। हे सत्यज्ञानस्य दातः (अप वृधि) वृञ् आच्छादने-लोट्। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७३। श्नोर्लुक्, श्रुशॄणुपृकृवृभ्यश्छन्दसि। पा० ९।४।१०२। इति हेर्धिः। उत्पाटय। उद्घाटय (अस्मभ्यम्) (अप्रतिष्कुतः) अथ० २०।४१।१। अप्रतिगतः ॥

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    विषय

    'चरु-अपावरण'

    पदार्थ

    १. हे (वृषन्) = संग्रामों में विजय प्राप्त कराके सुखों का वर्षण करनेवाले (सत्रादावन्) = सदा धनों व ज्ञानों को देनेवाले प्रभो! (स:) = वे आप (नः) = हमारे लिए (अमुं चरुम्) = अपने उस ज्ञान के कोश को अपावृधि-खोलिए। 'ब्रह्मचर्य' शब्द में ज्ञान के चरण का संकेत हैं, 'आचार्य' इस ज्ञान के चरण को करानेवाले हैं, ब्रह्मचारी इस चरण को करनेवाला है। इस चरु का प्रकट करना हो इसका अपावरण है। 'यस्मात् कोशादुभराम वेदम्' इन शब्दों में ज्ञान एक कोश है, उस कोश को प्रभु-कृपा से ही हम खोल पाएंगे। २. हे प्रभो! (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए आप (अप्रतिष्कुत:) = प्रतिशब्द से रहित हो-आप हमारे लिए 'न' इस शब्द का उच्चारण कीजिए ही नहीं। हमारी प्रार्थना सदा आपसे सुनी जाए।

    भावार्थ

    प्रभु हमारी प्रार्थना को सदा सुनें। हमारे लिए वे ज्ञान के कोश को खोल दें। हमपर सदा सुखों का वर्षण करें, हमारे लिए इष्ट धनों को देनेवाले हों।

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    भाषार्थ

    (वृषन्) हे सुखवर्षी! (सत्रादावन्) हे सच्चे दानी! (सः) वे आप—(नः अमुम् चरुम्) हमारे भीतर चञ्चल स्वभाववाले उस रजोगुण को (अपावृधि) हटा दीजिए। (अस्मभ्यम्) हमारे इस कार्य के लिए (अप्रतिष्कुतः) आप कहीं से भी प्रतिरोध नहीं पा सकते।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    India Devata

    Meaning

    Indra, lord of the universe, light of the world, generous lord of wealth, irresistible wielder of power, generous giver of showers, grant us the yajnic prosperity of life and open the doors of freedom and salvation at the end.

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    Translation

    O Almighty God, you are irresistible, you pour down happiness and you are always bounteous. For our well being you unclose the cloud or moving wealth.

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    Translation

    O Almighty God, you are irresistible, you pour down happiness and you are always bounteous. For our well being you unclose the cloud or moving wealth.

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    Translation

    O showers of blessings and gifts, Lord of All Beneficence or Constant Distributor of the fruit of acts of the souls, under that,share of the fruit of our actions, which is ours. Thou turnest away none unrewarded from Thy door.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र सामवेद में है-उ० ८।१।२ ॥ १२−(सः) परमेश्वरः (नः) अस्मभ्यम् (वृषन्) हे सुखवर्षक (अमुम्) प्रसिद्धम् (चरुम्) भृमृशीङ्तॄचरि०। उ० १।७। चर गतिभक्षणयोः-उप्रत्ययः। चरुर्मेघनाम निघ० १।१०। मेघमिवोपकारकं ज्ञानम् (सत्रादावन्) सत्रा सत्यनाम-निघ० ३।१०। अतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७२। ददातेर्वनिप्। हे सत्यज्ञानस्य दातः (अप वृधि) वृञ् आच्छादने-लोट्। बहुलं छन्दसि। पा० २।४।७३। श्नोर्लुक्, श्रुशॄणुपृकृवृभ्यश्छन्दसि। पा० ९।४।१०२। इति हेर्धिः। उत्पाटय। उद्घाटय (अस्मभ्यम्) (अप्रतिष्कुतः) अथ० २०।४१।१। अप्रतिगतः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ১০-২০ পরমেশ্বরোপাসনোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বৃষন্) হে সুখ বর্ষণকারী ! (সত্রাদাবন্) হে সত্য জ্ঞান প্রদানকারী পরমেশ্বর ! (অপ্রতিষ্কুতঃ) অপ্রতিরোধ্য গতিশক্তি সম্পন্ন (সঃ) আপনি (নঃ) আমাদের জন্য , (অস্মভ্যম্) আমাদের নিমিত্তে (অমুম্) সেই (চরুম্) মেঘের সমান জ্ঞান (অপ বৃধি) উন্মুক্ত করুন ॥১২॥

    भावार्थ

    মনুষ্য ঈশ্বর হতে মেঘসমান উপকারী সত্য জ্ঞান প্রাপ্ত করে সুখী হোক ॥১২॥এই মন্ত্র সামবেদে আছে-উ০ ৮।১।২ ॥

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    भाषार्थ

    (বৃষন্) হে সুখবর্ষী! (সত্রাদাবন্) হে প্রকৃতপক্ষে দানী! (সঃ) সেই আপনি—(নঃ অমুম্ চরুম্) আমাদের ভেতর চঞ্চল স্বভাবযুক্ত সেই রজোগুণ (অপাবৃধি) দূর করুন। (অস্মভ্যম্) আমাদের এই কার্যের জন্য (অপ্রতিষ্কুতঃ) আপনি কোনো প্রতিরোধ প্রাপ্ত হন/হবেন না।

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